Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi: सरल शब्दों में गहरी बातें करतीं, भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं

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Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi सौजन्य : kavishala.in

Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi: हिंदी साहित्य में जब भी सच्चे और सहज अभिव्यक्ति वाले कवियों की बात होती है, तो भवानी प्रसाद मिश्र का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वे उन गिने-चुने कवियों में से थे, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से आमजन की भावनाओं को व्यक्त किया और समाज को जागरूक करने का कार्य किया। उनकी कविताएं किसी भारी-भरकम शब्दों के जाल में नहीं फँसतीं, बल्कि इतनी सरल और प्रभावशाली होती हैं कि वे सीधे पाठकों के हृदय तक पहुँचती हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाएँ सिर्फ पढ़ने या सुनने के लिए नहीं थीं, बल्कि उनमें बदलाव लाने की शक्ति थी। उनकी कविताओं में सामाजिक चेतना, स्वतंत्रता संग्राम की झलक, और आम जीवन के अनुभवों का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। वे कविता को किसी निश्चित ढांचे में बाँधने के पक्षधर नहीं थे, बल्कि उनका मानना था कि कविता वही होती है जो अपने समय की सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त करे।

उनकी कविताएँ आज भी पाठकों के मन में एक नई ऊर्जा का संचार करती हैं और जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। इस ब्लॉग में हम भवानी प्रसाद मिश्र की कुछ बेहतरीन कविताओं (Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) को आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आपको साहित्य की सादगी और गहराई का अनुभव कराएँगी।

भवानी प्रसाद मिश्र के बारे में

भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी साहित्य के उन महान कवियों में से एक थे, जिन्होंने अपनी सरल भाषा और गहरी संवेदनशीलता से कविता को नए आयाम दिए। वे न केवल एक प्रतिभाशाली कवि थे, बल्कि गद्य, निबंध और नाटक लेखन में भी निपुण थे। उनकी रचनाएँ समाज की सच्चाइयों को उजागर करने के साथ-साथ जनचेतना जागृत करने का कार्य करती हैं। 29 मार्च 1913 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में जन्मे भवानी प्रसाद मिश्र की प्रारंभिक शिक्षा जबलपुर के शासकीय विज्ञान महाविद्यालय और रॉबर्टसन कॉलेज में हुई। उनके पिता सीताराम मिश्र और माता गोमती देवी थीं, जिनसे उन्होंने उच्च संस्कार और सादगीपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा ली।

भवानी प्रसाद मिश्र ने कविता, गद्य, निबंध और नाटक जैसी विधाओं में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी कविताओं में प्रेम, प्रकृति, सामाजिक समस्याएँ और गांधीवादी विचारधारा प्रमुख रूप से देखने को मिलती हैं। उनकी भाषा अत्यंत सरल, सहज और प्रवाहमयी थी, जो पाठकों के मन को गहराई से छू जाती थी। वे जटिल भाषा के बजाय सहज अभिव्यक्ति को महत्व देते थे, जिससे उनकी कविताएँ हर वर्ग के पाठकों तक पहुँच पाती थीं। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा गया, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण और पद्मविभूषण शामिल हैं। उनके लेखन ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि सामाजिक चेतना को भी जागरूक किया।

20 फरवरी 1985 को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में भवानी प्रसाद मिश्र का निधन हो गया। हालांकि, उनकी रचनाएँ आज भी हिंदी साहित्य में जीवंत हैं और साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करती रहती हैं। उनकी कविताएँ सादगी और गहनता का अनूठा संगम हैं, जो पाठकों के हृदय में गहरी छाप छोड़ती हैं।

यह भी पढ़ें : भवानी प्रसाद मिश्र का जीवन परिचय

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं – Bhawani Prasad Mishra Poems

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं (Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) इस प्रकार हैं, जो समाज को जागरूक करने, मानवीय संवेदनाओं को उजागर करने और गांधीवादी विचारधारा को सरल भाषा में प्रस्तुत करने का अद्वितीय उदाहरण हैं।

इदं न मममैं कहता हूँ
कविकई बार
चिकने लंबे केशदिनकर
घर की यादबहुत छोटी जगह
सतपुड़ा के जंगलउस दिन भी
पानी को क्या सूझीएक दो दिन नहीं
मित्र मंडलअपने आपमें
अकर्त्ताअभी घड़ी में
कुछ सूखे फूलों केअनार का मेरा पेड़
पूरे एक वर्षकाली है आज की रात
अपमानसीखूंगा
कहीं नहीं बचेफूल गुलाब और
सागर से मिलकरदिन के उजाले के बाद
ख्याल की ख़राबीक्या हर्ज़ है
मन में कुछ लेकरजैसे घंटों तक
कविता में हीबड़ा मीठा खरबूजा
कलाघूमने जाता हूँ
कोई अलौकिकआज कोई
दुनिया के लिएकाफ़ी दिन हो गये
सुबह उठकरचौंका देगी उसे
मैं अभीरात-भर
मैंने पूछाअच्छी थी
ऐसे अनजानेभूल नहीं सकता
मैंपूरे समारोह से
एक माँअशरीरी एक आवाज
कुछ ऐसे ख्यालजैसे पंछी के मारफ़त
चकित कर देती हैंएक अनुभव
बिना गिनेशून्य होकर
ऐसा नहीं हैलता की जड़
वह नहीं रहे होंगेतुमने लिखा
सुनाई पड़ते हैंजब आप
हवा नेतुमने कुछ
हर चीज़ सेतुमने अपना हाथ
मैं जानता हूँअधूरे ही
लो देखोपरदों की तरह
बुरे नहीं थेबाहर निकल गया हूँ
तुम भीतरनिराकार को
सालंकारबिलकुल फ़ाजिल
मुझे अफ़सोस हैकारण-अकारण
नहींकारण बाद में समझा
सैकड़ों तितलियाँ

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – इदं न मम

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) इदं न मम इस प्रकार है:

बड़ी मुश्किल से 
उठ पाता है कोई 
मामूली-सा भी दर्द 
इसलिए 
जब यह 
बड़ा दर्द आया है 
तो मानता हूँ 
कुछ नहीं है 
इसमें मेरा!

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – कवि

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) कवि इस प्रकार है:

क़लम अपनी साध, 
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह, 
और बहते बने सादे ढंग से तो बह। 
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, 
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। 
चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए 
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए। 
फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ 
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ। 
टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना, 
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना। 
विंध्य, रेवा, फूल, फल, बरसात या गर्मी, 
प्यार प्रिय का, कष्ट-कारा, क्रोध या नरमी, 
देश या कि विदेश, मेरा हो कि तेरा हो 
हो विशद विस्तार, चाहे एक घेरा हो, 
तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी, 
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी।

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – चिकने लंबे केश

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) चिकने लंबे केश इस प्रकार है:

चिकने लंबे केश 
काली चमकीली आँखें 
खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का 
फूलों ही जैसी सुगंध शरीर की 
समयों के अंतराल चीरती हुई 
अधीरता इच्छा की 
याद आती हैं ये सब
बातें अधैर्य नहीं जागता मगर अब 
इन सबके याद आने पर 
न जागता है कोई पश्चात्ताप 
जीर्णता के जीतने का 
शरीर के इस या उस वसंत के बीतने का 
दुःख नहीं होता 
उलटे एक परिपूर्णता-सी 
मन में उतरती है 
जैसे मौसम के बीत जाने पर 
दुःख नहीं होता 
उस मौसम के फूलों का!

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – घर की याद

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) घर की याद इस प्रकार है:

आज पानी गिर रहा है, 
बहुत पानी गिर रहा है, 
रात-भर गिरता रहा है, 
प्राण मन घिरता रहा है, 
अब सवेरा हो गया है, 
कब सवेरा हो गया है, 
ठीक से मैंने न जाना, 
बहुत सोकर सिर्फ़ माना— 
क्योंकि बादल की अँधेरी, 
है अभी तक भी घनेरी, 
अभी तक चुपचाप है सब, 
रातवाली छाप है सब, 
गिर रहा पानी झरा-झर, 
हिल रहे पत्ते हरा-हर, 
बह रही है हवा सर-सर, 
काँपते हैं प्राण थर-थर, 
बहुत पानी गिर रहा है, 
घर नज़र में तिर रहा है, 
घर कि मुझसे दूर है जो, 
घर ख़ुशी का पूर है जो, 
घर कि घर में चार भाई, 
मायके में बहिन आई, 
बहिन आई बाप के घर, 
हायर रे परिताप के घर! 
आज का दिन दिन नहीं है, 
क्योंकि इसका छिन नहीं है, 
एक छिन सौ बरस है रे, 
हाय कैसा तरस है रे, 
घर कि घर में सब जुड़े हैं, 
सब कि इतने तब जुड़े हैं, 
चार भाई चार बहिनें, 
भुजा भाई प्यार बहिनें, 
और माँ बिन-पढ़ी मेरी, 
दुःख में वह गढ़ी मेरी, 
माँ कि जिसकी गोद में सिर, 
रख लिया तो दुख नहीं फिर, 
माँ कि जिसकी स्नेह-धारा 
का यहाँ तक भी पसारा, 
उसे लिखना नहीं आता, 
जो कि उसका पत्र पाता। 
और पानी गिर रहा है, 
घर चतुर्दिक् घिर रहा है, 
पिताजी भोले बहादुर, 
वज्र-भुज नवनीत-सा उर, 
पिताजी जिनको बुढ़ापा, 
एक क्षण भी नहीं व्यापा, 
जो अभी दौड़ जाएँ, 
जो अभी भी खिल-खिलाएँ, 
मौत के आगे न हिचकें, 
शेर के आगे न बिचकें, 
बोल में बादल गरजता, 
काम में झंझा लरजता, 
आज गीता पाठ करके, 
दंड दो सौ साठ करके, 
ख़ूब मुगदर हिला लेकर, 
मूठ उनकी मिला लेकर, 
जब कि नीचे आए होंगे 
नैन जल से छाए होंगे, 
हाय, पानी गिर रहा है, 
घर नज़र में तिर रहा है, 
चार भाई चार बहिनें, 
भुजा भाई प्यार बहिनें, 
खेलते या खड़े होंगे, 
नज़र उनकी पड़े होंगे। 
पिताजी जिनको बुढ़ापा, 
एक क्षण भी नहीं व्यापा, 
रो पड़े होंगे बराबर, 
पाँचवें का नाम लेकर, 
पाँचवाँ मैं हूँ अभागा, 
जिसे सोने पर सुहागा, 
पिताजी कहते रहे हैं, 
प्यार में बहते रहे हैं, 
आज उनके स्वर्ण बेटे, 
लगे होंगे उन्हें हेटे, 
क्योंकि मैं उन पर सुहागा 
बँधा बैठा हूँ अभागा, 
और माँ ने कहा होगा, 
दुःख कितना बहा होगा 
आँख में किस लिए पानी, 
वहाँ अच्छा है भवानी, 
वह तुम्हारा मन समझ कर, 
और अपनापन समझ कर, 
गया है सो ठीक ही है, 
यह तुम्हारी लीक ही है, 
पाँव जो पीछे हटाता, 
कोख को मेरी लजाता, 
इस तरह होओ न कच्चे, 
रो पड़ेगे और बच्चे, 
पिताजी ने कहा होगा, 
हाय कितना सहा होगा, 
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, 
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ, 
गिर रहा है आज पानी, 
याद आता है भवानी, 
उसे थी बरसात प्यारी, 
रात-दिन की झड़ी झारी, 
खुले सिर नंगे बदन वह, 
घूमता फिरता मगन वह, 
बड़े बाड़े में कि जाता, 
बीज लौकी का लगाता, 
तुझे बतलाता कि बेला 
ने फलानी फूल झेला, 
तू कि उसके साथ जाती, 
आज इससे याद आती, 
मैं न रोऊँगा,—कहा होगा, 
और फिर पानी बहा होगा, 
दृश्य उसके बाद का रे, 
पाँचवे की याद का रे, 
भाई पागल, बहिन पागल, 
और अम्मा ठीक बादल, 
और भौजी और सरला,, 
सहज पानी, सहज तरला, 
शर्म से रो भी न पाएँ, 
ख़ूब भीतर छटपटाएँ, 
आज ऐसा कुछ हुआ होगा, 
आज सबका मन चुआ होगा। 
अभी पानी थम गया है, 
मन निहायत नम गया है, 
एक-से बादल जमे हैं, 
गगन-भर फैले रमे हैं, 
ढेर है उनका, न फाँकें, 
जो कि किरने झुकें-झाँकें, 
लग रहे हैं वे मुझे यों, 
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, 
गगन-आँगन की लुनाई, 
दिशा के मन से समाई, 
दश-दिशा चुपचार है रे, 
स्वस्थ की छाप है रे, 
झाड़ आँखें बंद करके, 
साँस सुस्थिर मंद करके, 
हिले बिन चुपके खड़े हैं, 
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं, 
एक पंछी बोलता है, 
घाव उर के खोलता है, 
आदमी के उर बिचारे, 
किस लिए इतनी तृषा रे, 
तू ज़रा-सा दुःख कितना, 
सह सकेगा क्या कि इतना, 
और इस पर बस नहीं है, 
बस बिना कुछ रस नहीं है, 
हवा आई उड़ चला तू, 
लहर आई मुड़ चला तू, 
लगा झटका टूट बैठा, 
गिरा नीचे फूट बैठा, 
तू कि प्रिय से दूर होकर, 
बह चला रे पूर होकर 
दुःख भर क्या पास तेरे, 
अश्रु सिंचित हास तेरे! 
पिताजी का वेश मुझको, 
दे रहा है क्लेश मुझको, 
देह एक पहाड़ जैसे, 
मन कि बड़ का झाड़ जैसे 
एक पत्ता टूट जाए, 
बस कि धारा फूट जाए, 
एक हल्की चोट लग ले, 
दूध की नद्दी उमग ले, 
एक टहनी कम न होले, 
कम कहाँ कि ख़म न होले, 
ध्यान कितना फ़िक्र कितनी, 
डाल जितनी जड़ें उतनी! 
इस तरह का हाल उनका, 
इस तरह का ख़याल उनका, 
हवा, उनको धीर देना, 
यह नहीं जी चीर देना, 
हे सजीले हरे सावन, 
हे कि मेरे पुण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसें, 
पाँचवें को वे न तरसें, 
मैं मज़े में हूँ सही है, 
घर नहीं हूँ बस यही है, 
किंतु यह बस बड़ा बस है, 
इसी बस से सब विरस है, 
किंतु उससे यह न कहना, 
उन्हें देते धीर रहना, 
उन्हें कहना लिख रहा हूँ, 
मत करो कुछ शोक कहना, 
और कहना मस्त हूँ मैं, 
कातने में व्यस्त हूँ मैं, 
वज़न सत्तर सेर मेरा, 
और भोजन ढेर मेरा, 
कूदता हूँ, खेलता हूँ, 
दुःख डट कर ठेलता हूँ, 
और कहना मस्त हूँ मैं, 
यों न कहना अस्त हूँ मैं, 
हाय रे, ऐसा न कहना, 
है कि जो वैसा न कहना, 
कह न देना जागता हूँ, 
आदमी से भागता हूँ, 
कह न देना मौन हूँ मैं, 
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं, 
देखना कुछ बक न देना, 
उन्हें कोई शक न देना, 
हे सजीले हरे सावन, 
हे कि मेरे पुण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसें, 
पाँचवें को वे न तरसें। 

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की कविता – सतपुड़ा के जंगल

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) सतपुड़ा के जंगल इस प्रकार है:

सतपुड़ा के घने जंगल 
नींद में डूबे हुए-से, 
ऊँघते अनमने जंगल। 
झाड़ ऊँचे और नीचे 
चुप खड़े हैं आँख भींचे; घास चुप है, काश चुप है 
मूक शाल, पलाश चुप है; 
बन सके तो धँसो इनमें, 
धँस न पाती हवा जिनमें, 
सतपुड़ा के घने जंगल 
नींद में डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
सड़े पत्ते, गले पत्ते, 
हरे पत्ते, जले पत्ते, 
वन्य पथ को ढँक रहे-से 
पंक दल में पले पत्ते, 
चलो इन पर चल सको तो, 
दलो इनको दल सको तो, 
ये घिनौने-घने जंगल, 
नींद में डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
अटपटी उलझी लताएँ, 
डालियों को खींच खाएँ, 
पैरों को पकड़ें अचानक, 
प्राण को कस लें कपाएँ, 
साँप-सी काली लताएँ 
बला की पाली लताएँ, 
लताओं के बने जंगल, 
नींद में डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
मकड़ियों के जाल मुँह पर, 
और सिर के बाल मुँह पर, 
मच्छरों के दंश वाले, 
दाग़ काले-लाल मुँह पर, 
बात झंझा वहन करते, 
चलो इतना सहन करते, 
कष्ट से ये सने जंगल, 
नींद मे डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
अजगरों से भरे जंगल 
अगम, गति से परे जंगल, 
सात-सात पहाड़ वाले, 
बड़े-छोटे झाड़ वाले, 
शेर वाले बाघ वाले, 
गरज और दहाड़ वाले, 
कंप से कनकने जंगल, 
नींद मे डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
इन वनों के ख़ूब भीतर, 
चार मुर्ग़े, चार तीतर, 
पाल कर निश्चिंत बैठे, 
विजन वन के बीच बैठे, 
झोंपड़ी पर फूस डाले 
गोंड तगड़े और काले 
जब कि होली पास आती, 
सरसराती घास गाती, 
और महुए से लपकती, 
मत्त करती बास आती, 
गूँज उठते ढोल इनके, 
गीत इनके गोल इनके। 
सतपुड़ा के घने जंगल 
नींद मे डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
जगते अँगड़ाइयों में, 
खोह खड्डों खाइयों में 
घास पागल, काश पागल, 
शाल और पलाश पागल, 
लता पागल, वात पागल, 
डाल पागल, पात पागल, 
मत्त मुर्ग़े और तीतर, 
इन वनों के ख़ूब भीतर। 
क्षितिज तक फैला हुआ-सा, 
मृत्यु तक मैला हुआ-सा 
क्षुब्ध काली लहर वाला, 
मथित, उत्थित ज़हर वाला, 
मेरु वाला, शेष वाला, 
शंभु और सुरेश वाला, 
एक सागर जानते हो? 
ठीक वैसे घने जंगल, 
नींद मे डूबे हुए-से 
ऊँघते अनमने जंगल। 
धँसो इनमें डर नहीं है, 
मौत का यह घर नहीं है, 
उतर कर बहते अनेकों, 
कल-कथा कहते अनेकों, 
नदी, निर्झर और नाले, 
इन वनों ने गोद पाले, 
लाख पंछी, सौ हिरन-दल, 
चाँद के कितने किरन दल, 
झूमते बनफूल, फलियाँ, /
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ, 
हरित दूर्वा, रक्त किसलय, 
पूत, पावन, पूर्ण रसमय, 
सतपुड़ा के घने जंगल 
लताओं के बने जंगल।

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – पानी को क्या सूझी

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) पानी को क्या सूझी इस प्रकार है:

मैं उस दिन 
नदी के किनारे पर गया
तो क्या जाने 
पानी को क्या सूझी 
पानी ने मुझे 
बूँद-बूँद पी लिया 
और मैं 
पिया जाकर पानी से 
उसकी तरंगों में 
नाचता रहा 
रात-भर 
लहरों के साथ-साथ 
बाँचता रहा!

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – मित्र मंडल

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) मित्र मंडल इस प्रकार है:

मैं आज 
घूमने निकल पड़ा 
तो चीज़ें आ गईं 
हाल-चाल पूछने
बहुत दिनों से 
निकला नहीं था 
घर से बाहर 
सबके चेहरों पर 
ख़ुशी देखी 
और उत्सुकता 
सबसे बढ़कर 
अलग-अलग मिला 
और समझकर उत्सुकता 
कहा, अच्छा हूँ 
कैसी हैं आप 
कैसे हैं आप 
सबने लगभग मुस्कुराकर ही 
जताया कि अच्छे हैं हम 
हमें चिंता रहती थी लेकिन 
तुम्हारी!

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता – अकर्त्ता

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता (Bhawani Prasad Mishra Poem in Hindi) अकर्त्ता इस प्रकार है:

तुम तो
जब कुछ रचोगे
तब बचोगे
मैं नाश की संभावना से रहित
आकाश की तरह
असंदिग्ध बैठा हूँ।

-भवानी प्रसाद मिश्र

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं

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भवानी प्रसाद मिश्र की अन्य लोकप्रिय कविताएं – Famous Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi

भवानी प्रसाद मिश्र की लोकप्रिय कविताएं (Famous Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) इस प्रकार हैं, जो अपनी सहज भाषा, गहरी संवेदनशीलता और समाज को जागरूक करने वाले विचारों के लिए जानी जाती हैं।

कुछ सूखे फूलों के

कुछ सूखे फूलों के
गुलदस्तों की तरह
बासी शब्दों के
बस्तों को
फेंक नहीं पा रहा हूँ मैं

गुलदस्ते
जो सम्हालकर
रख लिये हैं
उनसे यादें जुड़ी हैं

शब्दों में भी
बसी हैं यादें
बिना खोले इन बस्तों को

बरसों से धरे हूँ
फेंकता नहीं हूँ
ना देता हूँ किसी शोधकर्ता को

बासे हो गये हैं शब्द
सूख गये हैं फूल
मगर नक़ली नहीं हैं वे न झूठे हैं!

-भवानी प्रसाद मिश्र

पूरे एक वर्ष

सो जाओ
आशाओं
सो जाओ संघर्ष

पूरे एक वर्ष
अगले
पूरे वर्षभर

मैं शून्य रहूँगा
न प्रकृति से जूझूँगा
न आदमी से

देखूँगा
क्या मिलता है प्राण को
हर्ष की शोक की

इस कमी से
इनके प्राचुर्य से तो
ज्वर मिले हैं

जब-जब
फूल खिले हैं
या जब-जब

उतरा है फसलों पर
तुषार
तो जो कुछ अनुभव है

वह बहुत हुआ तो
हवा है
अगले बरस

अनुभव ना चाहता हूँ मैं
शुद्ध जीवन का परस
बहना नहीं चाहता केवल

उसकी हवा के झोंकों में
सो जाओ
आशाओं

सो जाओ संघर्ष
पूरे एक वर्ष!

-भवानी प्रसाद मिश्र

अपमान

अपमान का
इतना असर
मत होने दो अपने ऊपर

सदा ही
और सबके आगे
कौन सम्मानित रहा है भू पर

मन से ज्यादा
तुम्हें कोई और नहीं जानता
उसी से पूछकर जानते रहो

उचित-अनुचित
क्या-कुछ
हो जाता है तुमसे

हाथ का काम छोड़कर
बैठ मत जाओ
ऐसे गुम-सुम से!

-भवानी प्रसाद मिश्र

कहीं नहीं बचे

कहीं नहीं बचे
हरे वृक्ष
न ठीक सागर बचे हैं
न ठीक नदियाँ
पहाड़ उदास हैं
और झरने लगभग चुप
आँखों में
घिरता है अँधेरा घुप
दिन दहाड़े यों
जैसे बदल गई हो
तलघर में
दुनिया
कहीं नहीं बचे
ठीक हरे वृक्ष
कहीं नहीं बचा
ठीक चमकता सूरज
चांदनी उछालता
चांद
स्निग्धता बखेरते
तारे
काहे के सहारे खड़े
कभी की
उत्साहवन्त सदियाँ
इसीलिए चली
जा रही हैं वे
सिर झुकाये
हरेपन से हीन
सूखेपन की ओर
पंछियों के
आसमान में
चक्कर काटते दल
नजर नहीं आते
क्योंकि
बनाते थे
वे जिन पर घोंसले
वे वृक्ष
कट चुके हैं
क्या जाने
अधूरे और बंजर हम
अब और
किस बात के लिए रुके हैं
ऊबते क्यों नहीं हैं
इस तरंगहीनता
और सूखेपन से
उठते क्यों नहीं हैं यों
कि भर दें फिर से
धरती को
ठीक निर्झरों
नदियों पहाड़ों
वन से!

-भवानी प्रसाद मिश्र

सागर से मिलकर

सागर से मिलकर जैसे
नदी खारी हो जाती है
तबीयत वैसे ही

भारी हो जाती है मेरी
सम्पन्नों से मिलकर
व्यक्ति से मिलने का

अनुभव नहीं होता
ऐसा नहीं लगता
धारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंध
दूसरी सुगंध की ओर
मुड़ी है

तो कहना चाहिए
सम्पन्न वयक्ति
वयक्ति नहीं है
वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति
नहीं है

कई बातों का जमाव है
सही किसी भी
अस्तित्व का आभाव है

मैं उससे मिलकर
अस्तित्वहीन हो जाता हूँ
दीनता मेरी

बनावट का कोई तत्व नहीं है
फिर भी धनाड्य से मिलकर
मैं दीन हो जाता हूँ

अरति जनसंसदि का
मैंने इतना ही
अर्थ लगाया है
अपने जीवन के
समूचे अनुभव को
इस तथ्य में समाया है

कि साधारण जन
ठीक जन है
उससे मिलो जुलो

उसे खोलो
उसके सामने खुलो
वह सूर्य है जल है

फूल है फल है
नदी है धारा है
सुगंध है

स्वर है ध्वनि है छंद है
साधारण का ही जीवन में
आनंद है!

-भवानी प्रसाद मिश्र

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आशा है कि इस ब्लॉग के माध्यम से आपने भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं (Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) पढ़ी होंगी, जो आपको सदैव प्रेरित करती रहेंगी। ऐसी ही अन्य प्रेरणादायक कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu से जुड़े रहें।

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