Bhawani Prasad Mishra Poems : साहित्य की यही सुंदरता है कि ये समाज की चेतना को जगाए रखने और युवाओं का मार्गदर्शन करने का काम करता है। इसी कढ़ी में हिंदी साहित्य ने भी जनमानस के जागरण में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी साहित्य के आँगन में कई ऐसे कवियों का लालन-पालन हुआ है, जिन्होंने अपनी कविताओं के बल पर साहित्य की सुंदरता में चार चाँद लगाने का काम किया है। कविताएं समाज को साहसिक और निडर बनाती हैं, कविताएं मानव को समाज की कुरीतियों और अन्याय के विरुद्ध लड़ना सिखाती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से समाज की चेतना को जागृत करने वाले “भवानी प्रसाद मिश्र” ने सदा ही समाज के हर वर्ग को प्रेरित करने का काम किया है। इस ब्लॉग में आपके लिए भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं (Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) नीचे दी गई हैं, विद्यार्थियों को प्रेरणा से भर देंगी, जिसके बाद उनके जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेगा।
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भवानी प्रसाद मिश्र के बारे में
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi पढ़ने सेे पहले आपको भवानी प्रसाद मिश्र जी का जीवन परिचय पढ़ लेना चाहिए। भारतीय साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि भवानी प्रसाद मिश्र भी थे, जिनका पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन भवानी प्रसाद मिश्र था।
29 मार्च 1913 को भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में हुआ था। भवानी प्रसाद मिश्र जी ने शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, जबलपुर और रॉबर्टसन कॉलेज, जबलपुर से शिक्षा प्राप्त की। सीताराम मिश्र और गोमती देवी की विलक्षण बुद्धि की संतान भवानीप्रसाद मिश्र जी ने कविता, गद्य, नाटक और निबंध आदि सभी विधाओं में लेखन किया। उनकी कविताओ में प्रेम, प्रकृति, सामाजिक समस्याएँ और गांधीवादी विचारों का समावेश देखने को मिल जाता है। उनकी कविताओ की भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है, जिससे समाज का मार्गदर्शन मिल जाता हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र की महान रचनाओं के कारण उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण और पद्मविभूषण इत्यादि पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सदी के महान क्रांतिकारी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने 20 फरवरी 1985 को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में अपनी अंतिम साँस ली।
यह भी पढ़ें : भवानी प्रसाद मिश्र का जीवन परिचय
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं – Bhawani Prasad Mishra Poems
भवानी प्रसाद मिश्र ने अपने लेखन के समय कई कविताएं लिखी हैं। भवानी प्रसाद मिश्र की प्रमुख रचनाओं में गीत-फ़रोश, चकित है दुख, गाँधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, व्यक्तिगत, इदम् न मम इत्यादि हैं। उनके द्वारा लिखित लोकप्रिय कविताएं कुछ इस प्रकार हैं –
- इदं न मम
- कवि
- चिकने लंबे केश
- घर की याद
- सतपुड़ा के जंगल
- पानी को क्या सूझी
- मित्र मंडल
- अकर्त्ता
- कुछ सूखे फूलों के
- पूरे एक वर्ष
- अपमान
- कहीं नहीं बचे
- सागर से मिलकर
- ख्याल की ख़राबी
- मन में कुछ लेकर
- कविता में ही
- कला
- कोई अलौकिक
- दुनिया के लिए
- सुबह उठकर
- मैं अभी
- मैंने पूछा
- ऐसे अनजाने
- मैं
- एक माँ
- कुछ ऐसे ख्याल
- चकित कर देती हैं
- बिना गिने
- ऐसा नहीं है
- वह नहीं रहे होंगे
- सुनाई पड़ते हैं
- हवा ने
- हर चीज़ से
- मैं जानता हूँ
- लो देखो
- बुरे नहीं थे
- तुम भीतर
- सालंकार
- मुझे अफ़सोस है
- नहीं
- सैकड़ों तितलियाँ
- बाहर निकल गया हूँ
- निराकार को
- बिलकुल फ़ाजिल
- कारण-अकारण
- कारण बाद में समझा
- मैं कहता हूँ
- कई बार
- दिनकर
- बहुत छोटी जगह
- उस दिन भी
- एक दो दिन नहीं
- अपने आपमें
- अभी घड़ी में
- अनार का मेरा पेड़
- काली है आज की रात
- सीखूंगा
- फूल गुलाब और
- दिन के उजाले के बाद
- क्या हर्ज़ है
- जैसे घंटों तक
- बड़ा मीठा खरबूजा
- घूमने जाता हूँ
- आज कोई
- काफ़ी दिन हो गये
- चौंका देगी उसे
- रात-भर
- अच्छी थी
- भूल नहीं सकता
- पूरे समारोह से
- अशरीरी एक आवाज
- जैसे पंछी के मारफ़त
- एक अनुभव
- शून्य होकर
- लता की जड़
- तुमने लिखा
- जब आप
- तुमने कुछ
- तुमने अपना हाथ
- अधूरे ही
- परदों की तरह इत्यादि।
इदं न मम
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “इदं न मम” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
बड़ी मुश्किल से उठ पाता है कोई मामूली-सा भी दर्द इसलिए जब यह बड़ा दर्द आया है तो मानता हूँ कुछ नहीं है इसमें मेरा!
-भवानी प्रसाद मिश्र
कवि
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi आपकी सोच का विस्तार कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “कवि” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
क़लम अपनी साध, और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध। यह कि तेरी-भर न हो तो कह, और बहते बने सादे ढंग से तो बह। जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए। फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ। टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना, पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना। विंध्य, रेवा, फूल, फल, बरसात या गर्मी, प्यार प्रिय का, कष्ट-कारा, क्रोध या नरमी, देश या कि विदेश, मेरा हो कि तेरा हो हो विशद विस्तार, चाहे एक घेरा हो, तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी, तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी।
-भवानी प्रसाद मिश्र
चिकने लंबे केश
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “चिकने लंबे केश” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
चिकने लंबे केश काली चमकीली आँखें खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का फूलों ही जैसी सुगंध शरीर की समयों के अंतराल चीरती हुई अधीरता इच्छा की याद आती हैं ये सब बातें अधैर्य नहीं जागता मगर अब इन सबके याद आने पर न जागता है कोई पश्चात्ताप जीर्णता के जीतने का शरीर के इस या उस वसंत के बीतने का दुःख नहीं होता उलटे एक परिपूर्णता-सी मन में उतरती है जैसे मौसम के बीत जाने पर दुःख नहीं होता उस मौसम के फूलों का!
-भवानी प्रसाद मिश्र
घर की याद
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi के माध्यम से आपको कवि की भावनाओं का अनुमान लगेगा, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं में से एक कविता “घर की याद” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात-भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है, अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ़ माना— क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी, अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप है सब, गिर रहा पानी झरा-झर, हिल रहे पत्ते हरा-हर, बह रही है हवा सर-सर, काँपते हैं प्राण थर-थर, बहुत पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है, घर कि मुझसे दूर है जो, घर ख़ुशी का पूर है जो, घर कि घर में चार भाई, मायके में बहिन आई, बहिन आई बाप के घर, हायर रे परिताप के घर! आज का दिन दिन नहीं है, क्योंकि इसका छिन नहीं है, एक छिन सौ बरस है रे, हाय कैसा तरस है रे, घर कि घर में सब जुड़े हैं, सब कि इतने तब जुड़े हैं, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें, और माँ बिन-पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी, माँ कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर, माँ कि जिसकी स्नेह-धारा का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता। और पानी गिर रहा है, घर चतुर्दिक् घिर रहा है, पिताजी भोले बहादुर, वज्र-भुज नवनीत-सा उर, पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, जो अभी दौड़ जाएँ, जो अभी भी खिल-खिलाएँ, मौत के आगे न हिचकें, शेर के आगे न बिचकें, बोल में बादल गरजता, काम में झंझा लरजता, आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके, ख़ूब मुगदर हिला लेकर, मूठ उनकी मिला लेकर, जब कि नीचे आए होंगे नैन जल से छाए होंगे, हाय, पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें, खेलते या खड़े होंगे, नज़र उनकी पड़े होंगे। पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, रो पड़े होंगे बराबर, पाँचवें का नाम लेकर, पाँचवाँ मैं हूँ अभागा, जिसे सोने पर सुहागा, पिताजी कहते रहे हैं, प्यार में बहते रहे हैं, आज उनके स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्हें हेटे, क्योंकि मैं उन पर सुहागा बँधा बैठा हूँ अभागा, और माँ ने कहा होगा, दुःख कितना बहा होगा आँख में किस लिए पानी, वहाँ अच्छा है भवानी, वह तुम्हारा मन समझ कर, और अपनापन समझ कर, गया है सो ठीक ही है, यह तुम्हारी लीक ही है, पाँव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता, इस तरह होओ न कच्चे, रो पड़ेगे और बच्चे, पिताजी ने कहा होगा, हाय कितना सहा होगा, कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, धीर मैं खोता, कहाँ हूँ, गिर रहा है आज पानी, याद आता है भवानी, उसे थी बरसात प्यारी, रात-दिन की झड़ी झारी, खुले सिर नंगे बदन वह, घूमता फिरता मगन वह, बड़े बाड़े में कि जाता, बीज लौकी का लगाता, तुझे बतलाता कि बेला ने फलानी फूल झेला, तू कि उसके साथ जाती, आज इससे याद आती, मैं न रोऊँगा,—कहा होगा, और फिर पानी बहा होगा, दृश्य उसके बाद का रे, पाँचवे की याद का रे, भाई पागल, बहिन पागल, और अम्मा ठीक बादल, और भौजी और सरला,, सहज पानी, सहज तरला, शर्म से रो भी न पाएँ, ख़ूब भीतर छटपटाएँ, आज ऐसा कुछ हुआ होगा, आज सबका मन चुआ होगा। अभी पानी थम गया है, मन निहायत नम गया है, एक-से बादल जमे हैं, गगन-भर फैले रमे हैं, ढेर है उनका, न फाँकें, जो कि किरने झुकें-झाँकें, लग रहे हैं वे मुझे यों, माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, गगन-आँगन की लुनाई, दिशा के मन से समाई, दश-दिशा चुपचार है रे, स्वस्थ की छाप है रे, झाड़ आँखें बंद करके, साँस सुस्थिर मंद करके, हिले बिन चुपके खड़े हैं, क्षितिज पर जैसे जड़े हैं, एक पंछी बोलता है, घाव उर के खोलता है, आदमी के उर बिचारे, किस लिए इतनी तृषा रे, तू ज़रा-सा दुःख कितना, सह सकेगा क्या कि इतना, और इस पर बस नहीं है, बस बिना कुछ रस नहीं है, हवा आई उड़ चला तू, लहर आई मुड़ चला तू, लगा झटका टूट बैठा, गिरा नीचे फूट बैठा, तू कि प्रिय से दूर होकर, बह चला रे पूर होकर दुःख भर क्या पास तेरे, अश्रु सिंचित हास तेरे! पिताजी का वेश मुझको, दे रहा है क्लेश मुझको, देह एक पहाड़ जैसे, मन कि बड़ का झाड़ जैसे एक पत्ता टूट जाए, बस कि धारा फूट जाए, एक हल्की चोट लग ले, दूध की नद्दी उमग ले, एक टहनी कम न होले, कम कहाँ कि ख़म न होले, ध्यान कितना फ़िक्र कितनी, डाल जितनी जड़ें उतनी! इस तरह का हाल उनका, इस तरह का ख़याल उनका, हवा, उनको धीर देना, यह नहीं जी चीर देना, हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवें को वे न तरसें, मैं मज़े में हूँ सही है, घर नहीं हूँ बस यही है, किंतु यह बस बड़ा बस है, इसी बस से सब विरस है, किंतु उससे यह न कहना, उन्हें देते धीर रहना, उन्हें कहना लिख रहा हूँ, मत करो कुछ शोक कहना, और कहना मस्त हूँ मैं, कातने में व्यस्त हूँ मैं, वज़न सत्तर सेर मेरा, और भोजन ढेर मेरा, कूदता हूँ, खेलता हूँ, दुःख डट कर ठेलता हूँ, और कहना मस्त हूँ मैं, यों न कहना अस्त हूँ मैं, हाय रे, ऐसा न कहना, है कि जो वैसा न कहना, कह न देना जागता हूँ, आदमी से भागता हूँ, कह न देना मौन हूँ मैं, ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं, देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना, हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवें को वे न तरसें।
-भवानी प्रसाद मिश्र
सतपुड़ा के जंगल
Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं में से एक कविता “सतपुड़ा के जंगल” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
सतपुड़ा के घने जंगल नींद में डूबे हुए-से, ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे चुप खड़े हैं आँख भींचे; घास चुप है, काश चुप है मूक शाल, पलाश चुप है; बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल नींद में डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, वन्य पथ को ढँक रहे-से पंक दल में पले पत्ते, चलो इन पर चल सको तो, दलो इनको दल सको तो, ये घिनौने-घने जंगल, नींद में डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। अटपटी उलझी लताएँ, डालियों को खींच खाएँ, पैरों को पकड़ें अचानक, प्राण को कस लें कपाएँ, साँप-सी काली लताएँ बला की पाली लताएँ, लताओं के बने जंगल, नींद में डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। मकड़ियों के जाल मुँह पर, और सिर के बाल मुँह पर, मच्छरों के दंश वाले, दाग़ काले-लाल मुँह पर, बात झंझा वहन करते, चलो इतना सहन करते, कष्ट से ये सने जंगल, नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। अजगरों से भरे जंगल अगम, गति से परे जंगल, सात-सात पहाड़ वाले, बड़े-छोटे झाड़ वाले, शेर वाले बाघ वाले, गरज और दहाड़ वाले, कंप से कनकने जंगल, नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। इन वनों के ख़ूब भीतर, चार मुर्ग़े, चार तीतर, पाल कर निश्चिंत बैठे, विजन वन के बीच बैठे, झोंपड़ी पर फूस डाले गोंड तगड़े और काले जब कि होली पास आती, सरसराती घास गाती, और महुए से लपकती, मत्त करती बास आती, गूँज उठते ढोल इनके, गीत इनके गोल इनके। सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। जगते अँगड़ाइयों में, खोह खड्डों खाइयों में घास पागल, काश पागल, शाल और पलाश पागल, लता पागल, वात पागल, डाल पागल, पात पागल, मत्त मुर्ग़े और तीतर, इन वनों के ख़ूब भीतर। क्षितिज तक फैला हुआ-सा, मृत्यु तक मैला हुआ-सा क्षुब्ध काली लहर वाला, मथित, उत्थित ज़हर वाला, मेरु वाला, शेष वाला, शंभु और सुरेश वाला, एक सागर जानते हो? ठीक वैसे घने जंगल, नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। धँसो इनमें डर नहीं है, मौत का यह घर नहीं है, उतर कर बहते अनेकों, कल-कथा कहते अनेकों, नदी, निर्झर और नाले, इन वनों ने गोद पाले, लाख पंछी, सौ हिरन-दल, चाँद के कितने किरन दल, झूमते बनफूल, फलियाँ, / खिल रहीं अज्ञात कलियाँ, हरित दूर्वा, रक्त किसलय, पूत, पावन, पूर्ण रसमय, सतपुड़ा के घने जंगल लताओं के बने जंगल।
-भवानी प्रसाद मिश्र
पानी को क्या सूझी
Bhawani Prasad Mishra Poems आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं में से एक कविता “पानी को क्या सूझी” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
मैं उस दिन नदी के किनारे पर गया तो क्या जाने पानी को क्या सूझी पानी ने मुझे बूँद-बूँद पी लिया और मैं पिया जाकर पानी से उसकी तरंगों में नाचता रहा रात-भर लहरों के साथ-साथ बाँचता रहा!
-भवानी प्रसाद मिश्र
मित्र मंडल
ये कविताएं आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताओं में से एक कविता “मित्र मंडल” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
मैं आज घूमने निकल पड़ा तो चीज़ें आ गईं हाल-चाल पूछने बहुत दिनों से निकला नहीं था घर से बाहर सबके चेहरों पर ख़ुशी देखी और उत्सुकता सबसे बढ़कर अलग-अलग मिला और समझकर उत्सुकता कहा, अच्छा हूँ कैसी हैं आप कैसे हैं आप सबने लगभग मुस्कुराकर ही जताया कि अच्छे हैं हम हमें चिंता रहती थी लेकिन तुम्हारी!
-भवानी प्रसाद मिश्र
अकर्त्ता
तुम तो जब कुछ रचोगे तब बचोगे मैं नाश की संभावना से रहित आकाश की तरह असंदिग्ध बैठा हूँ।
-भवानी प्रसाद मिश्र
यह भी पढ़ें : दुष्यंत कुमार की कविताएं, जो आपको प्रेरित करेंगी
भवानी प्रसाद मिश्र की लोकप्रिय कविताएं – Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi
भवानी प्रसाद मिश्र की लोकप्रिय कविताएं (Bhawani Prasad Mishra Poems in Hindi) कुछ इस प्रकार हैं, जो आपको जीवन भर प्रेरित करेंगी;
कुछ सूखे फूलों के
कुछ सूखे फूलों के गुलदस्तों की तरह बासी शब्दों के बस्तों को फेंक नहीं पा रहा हूँ मैं गुलदस्ते जो सम्हालकर रख लिये हैं उनसे यादें जुड़ी हैं शब्दों में भी बसी हैं यादें बिना खोले इन बस्तों को बरसों से धरे हूँ फेंकता नहीं हूँ ना देता हूँ किसी शोधकर्ता को बासे हो गये हैं शब्द सूख गये हैं फूल मगर नक़ली नहीं हैं वे न झूठे हैं!
-भवानी प्रसाद मिश्र
पूरे एक वर्ष
सो जाओ आशाओं सो जाओ संघर्ष पूरे एक वर्ष अगले पूरे वर्षभर मैं शून्य रहूँगा न प्रकृति से जूझूँगा न आदमी से देखूँगा क्या मिलता है प्राण को हर्ष की शोक की इस कमी से इनके प्राचुर्य से तो ज्वर मिले हैं जब-जब फूल खिले हैं या जब-जब उतरा है फसलों पर तुषार तो जो कुछ अनुभव है वह बहुत हुआ तो हवा है अगले बरस अनुभव ना चाहता हूँ मैं शुद्ध जीवन का परस बहना नहीं चाहता केवल उसकी हवा के झोंकों में सो जाओ आशाओं सो जाओ संघर्ष पूरे एक वर्ष!
-भवानी प्रसाद मिश्र
अपमान
अपमान का इतना असर मत होने दो अपने ऊपर सदा ही और सबके आगे कौन सम्मानित रहा है भू पर मन से ज्यादा तुम्हें कोई और नहीं जानता उसी से पूछकर जानते रहो उचित-अनुचित क्या-कुछ हो जाता है तुमसे हाथ का काम छोड़कर बैठ मत जाओ ऐसे गुम-सुम से!
-भवानी प्रसाद मिश्र
कहीं नहीं बचे
कहीं नहीं बचे हरे वृक्ष न ठीक सागर बचे हैं न ठीक नदियाँ पहाड़ उदास हैं और झरने लगभग चुप आँखों में घिरता है अँधेरा घुप दिन दहाड़े यों जैसे बदल गई हो तलघर में दुनिया कहीं नहीं बचे ठीक हरे वृक्ष कहीं नहीं बचा ठीक चमकता सूरज चांदनी उछालता चांद स्निग्धता बखेरते तारे काहे के सहारे खड़े कभी की उत्साहवन्त सदियाँ इसीलिए चली जा रही हैं वे सिर झुकाये हरेपन से हीन सूखेपन की ओर पंछियों के आसमान में चक्कर काटते दल नजर नहीं आते क्योंकि बनाते थे वे जिन पर घोंसले वे वृक्ष कट चुके हैं क्या जाने अधूरे और बंजर हम अब और किस बात के लिए रुके हैं ऊबते क्यों नहीं हैं इस तरंगहीनता और सूखेपन से उठते क्यों नहीं हैं यों कि भर दें फिर से धरती को ठीक निर्झरों नदियों पहाड़ों वन से!
-भवानी प्रसाद मिश्र
सागर से मिलकर
सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तो कहना चाहिए सम्पन्न वयक्ति वयक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का जमाव है सही किसी भी अस्तित्व का आभाव है मैं उससे मिलकर अस्तित्वहीन हो जाता हूँ दीनता मेरी बनावट का कोई तत्व नहीं है फिर भी धनाड्य से मिलकर मैं दीन हो जाता हूँ अरति जनसंसदि का मैंने इतना ही अर्थ लगाया है अपने जीवन के समूचे अनुभव को इस तथ्य में समाया है कि साधारण जन ठीक जन है उससे मिलो जुलो उसे खोलो उसके सामने खुलो वह सूर्य है जल है फूल है फल है नदी है धारा है सुगंध है स्वर है ध्वनि है छंद है साधारण का ही जीवन में आनंद है!
-भवानी प्रसाद मिश्र
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