1905 का बंगाल विभाजन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव डाला। ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने प्रशासनिक सुधारों के नाम पर बंगाल को दो भागों में विभाजित करने का निर्णय लिया। हालांकि, इसका उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना और “फूट डालो, राज करो” नीति को आगे बढ़ाना था। वहीं इस विभाजन के खिलाफ पूरे भारत में जबरदस्त विरोध हुआ, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। इस ब्लॉग में, हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे बंगाल का विभाजन हुआ और इसके कारण क्या थे, साथ ही इसके परिणामस्वरूप भारतीय समाज और राजनीति पर क्या असर पड़ा।
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बंगाल विभाजन की शुरुआत कब हुई थी?
बंगाल के विभाजन का विचार पहली बार 1903 में सामने आया था। उस समय ब्रिटिश सरकार ने चटगांव, ढाका, और मैमनसिंह जिलों को बंगाल से अलग करके असम प्रांत में शामिल करने की योजना बनाई। इसके अलावा, छोटा नागपुर को भी मध्य प्रांत में मिलाने का प्रस्ताव था।
1903 में कांग्रेस का 19वां अधिवेशन मद्रास में हुआ, जहां अध्यक्ष श्री लालमोहन घोष ने अपने भाषण में ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की और बंगाल के विभाजन की साजिश की चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि यह विभाजन एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज को कमजोर करना है।
सरकार ने जनवरी 1904 में इस विभाजन के विचार को औपचारिक रूप से पेश किया। फरवरी में, लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल के पूर्वी जिलों का दौरा किया ताकि वह जनता की राय जान सकें। उन्होंने ढाका, चटगांव, और मैमनसिंह में प्रमुख व्यक्तियों से मुलाकात की और विभाजन के समर्थन में प्रचार किया। हालांकि, हेनरी जॉन स्टेडमैन कॉटन, जो असम के मुख्य आयुक्त रह चुके थे, ने इस विभाजन के विचार का विरोध किया और इसे लागू करने के खिलाफ थे।
बंगाल का विभाजन
सन 1905 में 16 अक्टूबर को भारत के तत्कालीन वॉयसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया। बंगाल लगभग फ्रांस जितना बड़ा था जबकि उसकी आबादी फ्रांस से कहीं अधिक थी। पूर्व में ऐसा विचार किया गया था कि पूर्वी क्षेत्र उपेक्षित और उचित रूप से शासित नहीं था। प्रान्त के बँटवारे से पूर्वीय क्षेत्र में बेहतर प्रशासन स्थापित किया जा सकता था जिससे अंततः वहाँ की जनता स्कूल और रोजगार के मौकों से लाभान्वित होती। हालाँकि, विभाजन की योजना के पीछे अन्य उद्देश्य भी छिपे थे। बंगाली हिंदू, शासन में अधिक से अधिक भागीदारी के लिए राजनैतिक आंदोलन में अग्रणी थे, अतः अब पूर्व में मुस्लिमों का वर्चस्व बढ़ने से उनकी स्थिति कमजोर हो रही थी।
लेकिन प्रबल सार्वजनिक विरोध के बावजूद 20 जुलाई 1905 को बंग भंग के प्रस्ताव पर भारत सचिव का ठप्पा लग गया। राजशाही, ढाका तथा चटगाँव कमिश्नरियों को असम के साथ मिलाकर एक प्रांत बनाया गया, जिसका नाम पूर्वबंग और असम रखा गया।
इस अवसर पर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों को यह कहकर लड़ाने की चेष्टा की गई कि इस विभाजन से मुसलमानों को फायदा है क्योंकि पूर्वबंग और असम में उन्हीं का बहुमत रहेगा। ढाका के नवाब ने पहले विरोध किया था, पर जब बंग भंग हो गया तो वह उसके पक्ष में हो गए। सर जोजेफ बैमफील्ड फुलर पूर्व बंग और असम के नए लेफ्टिनैंट गवर्नर बने। कहा जाता है, उन्होंने कई जगह खुल्लमखुल्ला कहा कि हिंदू और मुसलमान उनकी दो बीबियाँ हैं, इनमें से मुसलमान उनकी चहेती हैं। इस कथन का आशय स्पष्ट था।
बंग भंग का मुख्य उद्देश्य प्रशासन के लिए सुविधा उत्पन्न करना नहीं था, जैसा कि दावा किया गया था, बल्कि इसके दो स्पष्ट उद्देश्य थे, एक हिंदू मुसलमान को लड़ाना और दूसरे नवजाग्रत बंगाल को चोट पहुंचाना। यदि गहराई से देखा जाए तो यहीं से पाकिस्तान का बीजारोपण हुआ। मुस्लिम लीग के सन 1906 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुए, उनमें से एक यह भी था कि बंग भंग मुसलमानों के लिए अच्छा है और जो लोग इसके विरुद्ध आंदोलन करते हैं, वे गलत काम करते हैं और वे मुसलमानों को नुकसान पहुंचाते हैं।
बता दें कि इस नए प्रान्त में पहाड़ी राज्य त्रिपुरा, चिट्टागांग मंडल, ढाका और राजशाही (दार्जिलिंग को छोड़ कर) शामिल हुए और मालदा जिले को असम प्रान्त में मिला दिया गया। बंगाल को न केवल इन बड़े पूर्वी प्रदेशों को छोड़ना पड़ा, बल्कि पाँच हिंदी भाषी राज्यों को भी मध्य प्रांत के लिए गँवाना पड़ा। पश्चिम की तरफ से इसे मध्य प्रान्त से संबलपुर और पाँच छोटे उड़िया-भाषी राज्य प्रदान किये गए। बंगाल के पास अब 141,580 वर्ग मील (366,700 कि॰मी2) क्षेत्रफल और पाँच करोड़ चालीस लाख की जनसंख्या ही बची थी, जिसमें उस समय चार करोड़ बीस लाख हिन्दू और नब्बे लाख मुस्लिम थे।
बंगाल विभाजन का प्रभाव
बंगाल विभाजन के भारत पर निम्नलखित प्रभाव पड़े जो कि इस प्रकार हैं:-
- विभाजन के बाद लगातार हो रहे राजनीतिक विरोधों के कारण, बंगाल के दोनों भाग सन 1911 में फिर से जुड़ गए थे। जिसके बाद एक नया बंटवारा हुआ जिसने प्रान्त को धार्मिक के स्थान पर भाषाई आधार पर बाँटा। जिससे हिंदी, उड़िया और असमिया भाषी क्षेत्रों को नयी प्रशासनिक इकाइयों बनाने के लिए अलग किया गया। इसके साथ ही ब्रिटिश भारत की प्रशासनिक राजधानी को कलकत्ता से नई दिल्ली ले जाया गया।
- सन 1919 में, मुसलमानों और हिंदुओं के लिए अलग-अलग चुनाव व्यवस्था स्थापित की गयी। इस से पहले, दोनों समुदायों के कई सदस्यों ने सभी बंगालियों के लिए राष्ट्रीय एकता की वकालत की थी। अब, अलग-अलग समुदायों ने अपने-अपने राजनैतिक मुद्दे विकसित कर लिए।
- इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुओं और मुसलमानों के लिए दो स्वतंत्र राज्यों के निर्माण की माँग उठने लगी, अधिकांश बंगाली हिंदू अब हिंदू बहुमत क्षेत्र और मुस्लिम बहुमत क्षेत्र के आधार पर होने वाले बंगाल के बंटवारे का पक्ष लेने लगे।
- सन 1947 में बंगाल दूसरी बार, फिर से धार्मिक आधार पर विभाजित हुआ। जो कि बाद में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) बन गया। हालाँकि सन 1971 में पश्चिमी पाकिस्तानी सैन्य शासन के साथ एक सफल मुक्ति युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश नाम का एक स्वतंत्र देश बन गया।
- इसने एक बड़ा राजनीतिक संकट भी पैदा किया। पूर्वी बंगाल में मुस्लिमों की धारणा थी कि एक अलग क्षेत्र उन्हें शिक्षा, रोजगार आदि के अधिक अवसर उपलब्ध कराएगा, जबकि पश्चिमी बंगाल के लोगों को यह बंटवारा पसंद नहीं आया और इस समय के दौरान बड़ी मात्रा में राष्ट्रवादी साहित्य की रचना की गयी।
बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन
बंगाल विभाजन के विरुद्ध बंगाल के बाहर बहुत बड़े आंदोलन हुए। इस आंदोलन में देश के प्रसिद्ध कवियों और साहित्यकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन ने बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के ‘वंदे मातरम्’ गीत को नई बुलंदियाँ प्रदान की। उस समय बंगाल को बाँट देने का अंग्रेजी कुचक्र तो टूटा ही, सारे देश में और विदेशों में इसे असाधारण ख्याति मिली। वहीं जर्मन और कनाडा जैसे देश भी इससे प्रभावित हुए।
बंगाल विभाजन का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव
बंगाल विभाजन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा असर डाला था। इस विभाजन ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव बढ़ाया, जिससे धार्मिक विभाजन की भावना को बढ़ावा मिला और राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न हुई। ब्रिटिश सरकार द्वारा पूर्वी बंगाल में मुस्लिम बहुसंख्यक बनाने का प्रयास किया गया, जिससे स्वदेशी आंदोलन को प्रोत्साहन मिला। इस विभाजन के विरोध ने स्वदेशी वस्त्रों का उपयोग बढ़ाने और ब्रिटिश सामान का बहिष्कार करने की दिशा में महत्वपूर्ण आंदोलन को जन्म दिया। देशभर में इस विभाजन के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जिसने भारतीय जनता में राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाया और संगठित विरोध की नींव रखी। युवा नेताओं जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाष चंद्र बोस, और चितरंजन दास ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंततः, विभाजन के विरोध और जनाक्रोश के चलते ब्रिटिश सरकार ने 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया, जो स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण जीत साबित हुई। इस घटना ने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को बदल दिया और देश की स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदमों को मजबूत किया।
FAQs
भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 20 जुलाई 1905 को बंगाल विभाजन की आधिकारिक घोषणा की थी।
सन 1911 में लॉर्ड हार्डिंग ने बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया क्योंकि विभाजन के विरोध में चारों ओर दंगे और हिंसा फैली हुई थी।
बंगाल विभाजन का अन्य उद्देश्य बंगाल की संगठित राजनीतिक भावना को समाप्त करना तथा राष्ट्रीयता के वेग को कम करना था। इतिहासकारों के अनुसार बंगाल विभाजन का प्रमुख उद्देश्य जनता में फूट डालना था।
आशा है इस ब्लॉग से आपको बंगाल विभाजन और इससे जुड़ी सभी अहम घटनाओं के बारे में बहुत सी जानकारी प्राप्त हुई होगी। भारत के इतिहास से जुड़े हुए ऐसे ही अन्य ब्लॉग पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहे।