Poem on Farmer in Hindi: धरती के सच्चे नायक की कड़ी मेहनत और समर्पण की अनकही कहानी बताती किसान पर कविताएं

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Poem on Farmer in Hindi

Poem on Farmer in Hindi: किसान हमारी धरती के असली नायक हैं, जिनकी मेहनत और संघर्ष से ही हमारा आहार संभव होता है। वे अपनी खेती में दिन-रात कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी उनकी तपस्या का असली मूल्य हम अक्सर समझ नहीं पाते। इस ब्लॉग में ऐसी कविताएं साझा करेंगे, जो किसान के जीवन की कठिनाइयों, उसके सपनों और उसकी निस्वार्थ सेवा को बयां करेंगी। ये किसान पर कविताएं न केवल किसान के प्रति हमारे सम्मान को प्रकट करती है, बल्कि हमें यह भी याद दिलाती है कि उनके बिना हमारी ज़िंदगी अधूरी है। आइए, किसान पर कविता (Kisan Par Kavita) के माध्यम से किसान के संघर्षों और उसकी महानता को समझने की कोशिश करें।

किसान पर कविताएं (Poem on Farmer in Hindi)

किसान पर कविता (Poem on Farmer in Hindi) की सूची इस प्रकार हैं:

किसान पर कविता का नामकवि का नाम
किसानमैथिलीशरण गुप्त
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ हैकेदारनाथ अग्रवाल
उठ किसान ओत्रिलोचन
शाम : एक किसानसर्वेश्वरदयाल सक्सेना
किसानसत्यनारायण लाल
अकाल और उसके बादनागार्जुन
वह दंतुरित मुस्काननागार्जुन
फ़सलनागार्जुन
नई खेतीरमाशंकर यादव विद्रोही

किसान – मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

-मैथिलीशरण गुप्त

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है – केदारनाथ अग्रवाल

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है

जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है

वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फ़ौलादी पंजे फैलाए नाग बना है

जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है

वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

- केदारनाथ अग्रवाल
किसान पर कविता

उठ किसान ओ – त्रिलोचन

उठ किसान ओ, उठ किसान ओ,
बादल घिर आए हैं

तेरे हरे-भरे सावन के
साथी ये आए हैं

आसमान भर गया देख तो
इधर देख तो, उधर देख तो

नाच रहे हैं उमड़-घुमड़ कर
काले बादल तनिक देख तो

तेरे प्राणों में भरने को
नए राग लाए हैं

यह संदेशा लेकर आई
सरस मधुर, शीतल पुरवाई

तेरे लिए, अकेले तेरे
लिए, कहाँ से चल कर आई

फिर वे परदेसी पाहुन, सुन,
तेरे घर आए हैं

उड़ने वाले काले जलधर
नाच-नाच कर गरज-गरज कर

ओढ़ फुहारों की सित चादर
देख उतरते हैं धरती पर

छिपे खेत में, आँखमिचौनी
सी करते आए हैं

हरा खेत जब लहराएगा
हरी पताका फहराएगा

छिपा हुआ बादल तब उसमें
रूप बदल कर मुसकाएगा

तेरे सपनों के ये मीठे
गीत आज छाए हैं

- त्रिलोचन

शाम : एक किसान – सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता

बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नदी चादर-सी,

पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी

अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।

अचानक—बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी—

‘सुनते हो’।
चिलम औंधी

धुआँ उठा—
सूरज डूबा

अँधेरा छा गया।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

किसान – सत्यनारायण लाल

नहीं हुआ है अभी सवेरा,
पूरब की लाली पहचान,

चिड़ियों के जगने से पहले,
खाट छोड़ उठ गया किसान।

खिला-खिलाकर बैलों को ले,
करने चला खेत पर काम,

नहीं कभी त्योहार न छुट्टी,
उसको नहीं कभी आराम।

गर्म-गर्म लू चलती सन-सन,
धरती जलती तवे समान,

तब भी करता काम खेत पर,
बिना किए आराम किसान।

बादल गरज रहे गड़-गड़-गड़,
बिजली चमक रही चम-चम,

मूसलाधार बरसता पानी,
ज़रा न रुकता लेता दम।

हाथ-पाँव ठिठुरे जाते हैं,
घर से बाहर निकले कौन,

फिर भी आग जला, खेतों की,
रखवाली करता वह मौन।

है किसान को चैन कहाँ,
वह करता रहता हरदम काम,

सोचा नहीं कभी भी उसने,
घर पर रह करना आराम।

- सत्यनारायण लाल

अकाल और उसके बाद – नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद

- नागार्जुन

वह दंतुरित मुस्कान – नागार्जुन

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान

धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात...
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात

परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण

छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?

तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!

थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?

क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज

मैं न सकता देख
मैं न पाता जान

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!

चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इन अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क

उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार

और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान

मुझे लगती बड़ी ही छविमान

- नागार्जुन

फ़सल – नागार्जुन 

एक के नहीं
दो के नहीं

ढेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,

दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा :

एक की नहीं
दो की नहीं

हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म :
फ़सल क्या है?

और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू जय वह

हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है

रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

- नागार्जुन

नई खेती – रमाशंकर यादव विद्रोही

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ।

कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,

मैं कहता हूँ कि
गेगले-घोघले

अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है।

और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा—

या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

- रमाशंकर यादव विद्रोही

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