दशहरा पर कविता 2024 : अधर्म पर धर्म की विजय की अलौकिक गाथाएं

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दशहरा पर कविता

भारतीय सनातन हिन्दू धर्म में मनाए जाने वाले अलौकिक पर्वों में से एक दशहरा भी है, जिसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू त्योहारों के लोकप्रिय पर्वों में एक दशहरा हर साल अश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। बता दें कि दशहरा पर एक ऐसा पर्व है जिसे बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है, इस पर्व के अवसर पर आप अपने परिजनों के साथ कुछ विशेष कविताएं साझा करके इसके उत्सव को पूरे हर्षोल्लास के साथ मना सकते हैं। इस ब्लॉग में आपको दशहरा पर कविता दी गईं हैं, जो आपको इस पवित्र पर्व का महत्व समझाएगी। इन कविताओं के माध्यम से आप इस बार दशहरे का पर्व अलग अंदाज में मना सकते हैं।

दशहरा पर कविता

दशहरा पर कविता पढ़ने से आप इस पर्व के उत्सव में चार चाँद लगा सकते हैं, साथ ही ये कविताएं आपको भारत की समृद्ध सनातन संस्कृति के बारे में बताएंगी। दशहरा पर कविता कुछ इस प्रकार हैं –

दशहरा

एक जुलूस है, जो साल-दर-साल इसी तरह
जगमगाते प्रकाश में,
खोई हुई प्रतिष्ठा की तलाश में,
दक्खिन से उत्तर चला जाता है
गाता-बजाता,
अपने अंतर की पराजय को
लगातार झुठलाता।

दक्खिन से उत्तर
लौटती हुई हताश और थकी हुई
सेनाओं के पीछे-पीछे लौटता हुआ,
एक जला हुआ नगर अपने पीछे छोड़ता हुआ
जहाँ अब कुछ भी बाक़ी नहीं है
हैरान आँखों के लिए।
न तो हड्डियों के सफ़ेद, चमकते हुए ढेर
न मँडराते गिद्ध, न ख़ून से भरे हुए तालाब
सिर्फ़ अनाम चिताओं की टोह में
बीते हुए दुःस्वप्न की खोह में
धीरे-धीरे रेंगती हुई,
बेहद हरी घास चढ़ आई है।

यह सब उसके सामने है, उसके अंदर है,
जहाँ अब प्रेम और प्रतिष्ठा के बीच
संशय और निष्ठा के बीच
एक टूटता हुआ पुरुष है।

वही जानता है।
उसके भीतर कितना अवसाद है :
आग और रक्त के निर्णय को ठुकराता
अंतर के शून्य को गुँजाता
वही दुर्दम भय-लोकापवाद है।

क्यों वह भूल गया है,
कि बह, जो उसके इस नाटक की
विडंबना झेलती रही है
वही, छाया की तरह,
उसके साथ-सारे दुखों को हेलती रही है
दुख ही आमुख
दुख ही उसके जीवन का उपसंहार है
लंका हो या अवध
उसके लिए एक-सा कारागार है।

वर्ष-दर-वर्ष, अपने प्रतिशोध की तृप्ति के लिए
वह टालता आया है हर्ष
वह जो बनना चाहता है युग का आदर्श :
अंदर से एक साधारण आदमी निकल आया है
उसे महसूस होता है,
इतनी क़ीमत चुका कर
उसने जिस सत्य को पाया है,
वह सत्य नहीं, महज़ उसकी छाया है।

लेकिन अब उसे मालूम है,
यह यात्रा के अंत की शुरुआत है
(भले ही यह उसकी प्रियतमा पर
उसी दुर्दम दैत्य-अपवाद-का आघात है)

कौन था वह जिसकी जय-यात्रा हम
इतने उत्साह, इतने जोश से मनाते हैं?

उसकी विजय, विजय नहीं, एक झुका हुआ माथ है
जिसकी सबसे बड़ी पराजय एक परित्यक्त हाथ है
वह जो अपनी शंका के आगे,
प्रवाद के सम्मुख
ख़ामोश हो गया
वह जो सत्ता का निर्विकार मुखोश हो गया

कौन था वह जिसकी जय-यात्रा हम
वर्ष दर वर्ष मनाते हैं।

हर साल। साल-दर-साल। हम एक आकृति
घृणा से रच कर अपने अंदर-ही-अंदर बनाते हैं
फिर जा कर उसे हम जला आते हैं
कौन था वह जिसकी सूरत
हम आज भी अपने अंदर पाते हैं?

-नीलाभ अश्क

विजयदशमी

आसमान की आदिम छायाओं के नीचे,
दक्षिण का यह महासिंधु अब भी टकराता,
सेतुबंध की श्यामल, बहती चट्टानों से।
आँखों में, यह अंतरीप के मंदिर की चोटी उठती है,
जिस पर रोज़ साँझ छा जाते,
युग-युग रंजित, लाल, सुनहले, पीले बादल,
एक पुरातन तूफ़ानी-सी याद दिला कर,
जब, अविलंब, अग्नि-शर-चाप उठाते ही में,
नभ-चुंबी, काले पर्वत-सा ज्वाल मिटा था।

संस्कृतियों पर संस्कृतियों के महल मिट गए,
लौह नींव पर खड़े हुए गढ़, दुर्ग, मिनारें।
दृढ़ स्तंभ आधार भंग हो
गिरे, विभिन्न निशान, शास्ति के केतन डूबे।
महाकाल के भारी पाँवों से न मिट सके,
चित्रकूट, किष्किन्धा, नीलगिरी के जंगल,
पंचवटी की गुँथी हुई अलसायी छाँहें।

वाल्मीकि के मृत्युंजय स्वर ले अपने पर
सरयू, गोदावरी, नील, कृष्णा की धारा।
प्रेत-भरे इस यंत्रकाल में,
आज कोटि युग की दूरी से यादें आतीं,
शंभु-चाप से अविच्छिन्न इतिहास पुराने,
और वज्र-विद्युत से पूरित अग्नि-नयन वे
जिनमें भस्म हुए लंका-से पाप हज़ारों।
अब भी विजय-मार्ग में वह केतन दिखता है
लौट रहे उस मोर-विनिर्मित कुसुम-यान का,
लंबे-लंबे दुख-वियोग की अंतिम-वेला।

सीता के गोरे, काँटों से भरे चरण वे,
अग्नि-परीक्षाएँ पग-पग की;
घोर जंगलों, नदियों से जब पार उतरकर,
उन बिछुड़े नयनों का सुखमय मिलन हुआ था।
और चतुर्दश वर्षों पहले का प्रभात वह,
सुमन-सेज जब छोड़े तीन सुकुमार मूर्तियाँ,
तर, मंडित, वन-पथ पर चलीं तपस्वी बन कर,
राग-रंगीली दुनिया में आते ही आते
आसमान की आदिम छायाओं के नीचे
सेतुबंध से सिंधु आज भी टकराता है।

पदचिह्नों पर पदचिह्नों के अंक बन गए
कितने स्वर, ध्वनियाँ, कोलाहल डूब गए हैं।
किंतु सृजन की और मरण की रेखाओं में
चिर ज्वलंत निष्कंप एक लौ फिरती जाती,
धरती का तप जिस प्रकाश में पूर्ण हुआ है।
देश, दिशाएँ, काल लोक-सीमा से आगे,
वह त्रिमूर्ति चलती जाती मन के फूलों पर,
अपने श्यामल गौर चरण से पावन करती
वर्षों, सदियों, युगों-युगों के इतिहासों को।

-गिरिजाकुमार माथुर

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विजयदशमी

जानकी जीवन, विजयदशमी तुम्हारी आज है,
दीख पड़ता देश में कुछ दूसरा ही साज है।
राघवेंद्र! हमें तुम्हारा आज भी कुछ ज्ञान है,
क्या तुम्हें भी अब कभी आता हमारा ध्यान है?

वह शुभ स्मृति आज भी मन को बनाती है हरा,
देव! तुम तो आज भी भूली नहीं है यह धरा।
स्वच्छ जल रखती तथा उत्पन्न करती अन्न है,
दीन भी कुछ भेंट लेकर दीखती संपन्न है॥

व्योम को भी याद है प्रभुवर तुम्हारी वह प्रभा!
कीर्ति करने बैठती है चंद्र-तारों की सभा।
भानु भी नव-दीप्ति से करता प्रताप प्रकाश है,
जगमगा उठता स्वयं जल, थल तथा आकाश है॥

दुःख में ही है! तुम्हारा ध्यान आया है हमें,
जान पड़ता किंतु अब तुमने भुलाया है हमें।
सदय होकर भी सदा तुमने विभो! यह क्या किया,
कठिन बनकर निज जनों को इस प्रकार भुला दिया॥

है हमारी क्या दशा सुध भी न ली तुमने हरे?
और देखा तक नहीं जन जी रहे हैं या मरे।
बन सकी हमसे न कुछ भी किंतु तुमसे क्या बनी?
वचन देकर ही रहे, हो बात के ऐसे धनी!

आप आने को कहा था, किंतु तुम आए कहाँ?
प्रश्न है जीवन-मरण का हो चुका प्रकटित यहाँ।
क्या तुम्हारा आगमन का समय अब भी दूर है?
हाय तब तो देश का दुर्भाग्य ही भरपूर है!

आग लगने पर उचित है क्या प्रतीक्षा वृष्टि की,
यह धरा अधिकारिणी है पूर्ण करुणा दृष्टि की।
नाथ इसकी ओर देखो और तुम रक्खो इसे,
देर करने पर बताओ फिर बचाओगे किसे?

बस तुम्हारे ही भरोसे आज भी यह जी रही,
पाप पीड़ित ताप से चुपचाप आँसू पी रही।
ज्ञान, गौरव, मान, धन, गुण, शील सब कुछ खो गया,
अंत होना शेष है बस और सब कुछ हो गया॥

यह दशा है इस तुम्हारी कर्मलीला भूमि की,
हाय! कैसी गति हुई इस धर्म-शीला भूमि की।
जा घिरी सौभाग्य-सीता दैन्य-सागर-पार है,
राम-रावण-वध बिना संभव कहाँ उद्धार है?

शक्ति दो भगवान् हमें कर्तव्य का पालन करे,
मनुज होकर हम न परवश पशु-समान जिएँ-मरें।
विदित विजय-स्मृति तुम्हारी यह महामंगलमयी,
जटिल जीवन-युद्ध में कर दे हमें सत्वर जयी॥

-मैथिलीशरण गुप्त

आ गया पावन दशहरा

फिर हमें संदेश देने
आ गया पावन दशहरा

तम संकटों का हो घनेरा
हो न आकुल मन ये तेरा
संकटों के तम छटेंगें
होगा फिर सुंदर सवेरा
धैर्य का तू ले सहारा

द्वेष हो कितना भी गहरा
हो न कलुषित मन यह तेरा
फिर से टूटे दिल मिलेंगें
होगा जब प्रेमी चितेरा
बन शमी का पात प्यारा

सत्य हो कितना प्रताडित
पर न हो सकता पराजित
रूप उसका और निखरे
जानता है विश्व सारा
बन विजय स्वर्णिम सितारा

-सत्यनारायण सिंह

होगा तभी दशहरा

किस्सा एक पुराना बच्चो
लंका में था रावण,
राजा एक महा अभिमानी
कँपता जिससे कण-कण।

उस अभिमानी रावण ने था
सबको खूब सताया,
रामचंद्र जब आए वन में
सीता को हर लाया।

झलमल-झलमल सोने की
लंका पैरों पर झुकती,
और काल की गति भी भाई
उसके आगे रुकती।

सुंदर थी लंका, लंका में
सोना ही सोना था,
लेकिन पुण्य नहीं, पापों का
भरा हुआ दोना था।

तभी राम आए बंदर-
भालू को लेकर सेना,
साध निशाना सच्चाई का
तीर चलाया पैना।

लोभ-पाप की लंका धू-धू
जलकर हो गई राख,
दीप जले थे तब धरती पर
अनगिन, लाखों-लाख!

इसीलिए तो आज धूम है
रावण आज मरा था,
कटे शीश दस बारी-बारी
उतरा भार धरा का।

लेकिन सोचो, कोई रावण
फिर छल ना कर पाए,
कोई अभिमानी ना फिर से
काला राज चलाए।

तब होगी सच्ची दीवाली
होगा तभी दशहरा,
जगमग-जगमग होगा तब फिर
सच्चाई का चेहरा।

-प्रकाश मनु

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