Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavita Himalaya: रामधारी सिंह दिनकर की कविता “हिमालय” आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितना कभी अपनी रचना के समय थी। रामधारी सिंह दिनकर की कविता युवाओं की चेतना जगाए रखने का काम करती है। हिंदी साहित्य के अनमोल रत्न राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी एक ऐसे कवि थे, जिन्होंने जन-जन की पीड़ाओं को अपने शब्दों में स्थान दिया। दिनकर जी का जन्म 30 सितंबर 1908 में बिहार के सिमरिया ग्राम में हुआ था। मुख्य रूप से रामधारी सिंह दिनकर जी की कविताएँ और काव्यग्रंथ भारतीय संस्कृति, धर्म, और समाज के मुद्दों पर आधारित थे।
इस ब्लॉग में आप रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय (Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavita Himalaya) को भावार्थ सहित पढ़ पाएंगे, साथ ही इस कविता में आपको दिनकर की हिमालय कविता का सारांश भी पढ़ने को मिलेगा।
रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय – Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavita Himalaya
रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय आपकी जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव कर सकती है। जो कि आपको भारत के शीश हिमालय की खूबसूरती के किस्से सुनाएगी, तथा आपको आपकी जीवन यात्रा में भी प्रेरित करेगी।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाला!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति! तूने की पुकार,
‘पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।’
उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
किन द्रौपदियों के बाल खुले?
किन-किन कलियों का अंत हुआ?
कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?
पूछे सिकता-कण से हिमपति!
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये
फिरनेवाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?
वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,
तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं
अपनी अनंत निधियाँ सारी?
री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक गये हुए संदेश कहाँ?
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।
ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट् स्वर में निनाद,
तू शैलराट! हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल।
नव-युग-शंखध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल!
-रामधारी सिंह दिनकर
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रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय का भावार्थ – Himalaya Kavita Ka Bhavarth
रामधारी सिंह दिनकर की कविता “हिमालय” एक अत्यधिक भावुक और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर कविता है। दिनकर जी की कविताएँ धैर्य, संघर्ष, और उत्कृष्ट भाषा के गर्भ से प्रखरता से पैदा हुई थी। उनकी लेखनी और मर्यादित भाषा के चलते ही उन्हें “राष्ट्रकवि” का उपनाम भी दिया गया है, और उनकी कविताएँ आज भी हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में अपना योगदान देती हैं।
रामधारी सिंह दिनकर की कविता “हिमालय” में दिनकर जी अपने शब्दों से हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य और उसके गौरव का गौरवगान करते हैं। इस अद्भुत कविता में विशेषकर भारतीय संस्कृति और प्राकृतिक दृश्यों के प्रति एक श्रद्धाभावना और समर्पण का प्रतीक देखने को मिलता है। यदि कविता को दो भागों में वर्णित किया जाए तो आप इसके शब्दों को सरलता से महसूस कर पाएंगे।
कविता के पहले भाग में हिमालय के विविध सौंदर्य जैसे: हिमालय की ऊंचाई, हिमालय की चोटियाँ, चोटियों पर जमी बर्फ की चादर और शिखरों की महिमा आदि का वर्णन किया गया। कविता के पहले भाग में दिनकर जी हिमालय की महानता और उनसे मिली प्रेरणा अथवा आदर्शता के बारे में भी उल्लेख करते हैं।
कविता के दूसरे भाग में एक कवि के भीतर उत्पन्न हुई भावनाओं को महसूस किया जा सकता है, जो हिमालय के सामंजस्य, शांत, और प्रेरणास्पद दृश्यों से प्राप्त होती हैं। कवि के मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि हिमालय का दर्शन करने से वह नई प्रेरणा और ऊर्जा को प्राप्त कर सकते हैं, और उनका जीवन नए आदर्शों और मार्गों के साथ जुड़ जाता है।
निष्कर्ष के रूप में देखा जाए तो “हिमालय” कविता के माध्यम से दिनकर जी हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ, मानव जीवन की आदर्शता और प्रेरणाशीलता को शब्दों के माध्यम से दर्शातें हैं। जिसका भाव भारतीय संस्कृति के मूल्यों के प्रति भी एक गहरी श्रद्धा और समर्पण भाव को प्रकट करना है।
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हिमालय कविता का सारांश – Himalaya Kavita Ka Saransh
हिमालय रामधारी सिंह दिनकर जी की प्रसिद्ध कविताओं में से एक है, जो हिमालय की प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक महत्व और आध्यात्मिक शक्ति का अद्भुत चित्रण करती है। हिमालय कविता का सारांश युवाओं का मार्गदर्शन करने के साथ-साथ, उन्हें बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करेगा। हिमालय कविता का सारांश कुछ इस प्रकार है कि इस कविता में कवि ने हिमालय की विशालता, भव्यता, हिमालय के महत्व और आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ, हिमालय के प्रति प्रेम को परिभाषित किया है।
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