Ram Par Kavita: राम भारत की चेतना हैं, राम ही हमारे जीवन का सार हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम धर्म की परिभाषा और आदर्श जीवन का प्रतीक हैं। जब भी संसार में अधर्म बढ़ा है या जब भी मानवता ने नैतिक पतन का दौर देखा है, तब-तब राम के आदर्शों ने संसार में एक नई ज्योति जगाई है। कवियों, संतों, भक्तों और विचारकों ने अपने शब्दों में श्रीराम के चरित्र को संजोया है। “राम पर कविता” केवल शब्दों की माला नहीं, यह आस्था, प्रेम, भक्ति और मर्यादा का संगम है। गोस्वामी तुलसीदास जी की ‘रामचरितमानस’, महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’, और कई संतों के भजनों व कविताओं के माध्यम से समाज ने भगवान राम का और उनके चरित्र का गुणगान किया गया है।
इस लेख में मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर कविता (Ram Par Kavita) दी गई हैं, जो हमें उनके आदर्श, संयम, धैर्य, त्याग और करुणा के बारे में बताती हैं। इन कविताओं के माध्यम से हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र के बारे में जान सकते हैं। आइए, पढ़ें मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर कविताएं।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर कविता – Ram Par Kavita
मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर कविता (Ram Par Kavita) की सूची इस प्रकार है:
कविता का नाम | कवियों के नाम |
रमा है सबमें राम | मैथिलीशरण गुप्त |
राम तुम कैसे हो | प्रेम नारायण ‘पंकिल’ |
दशरथ विलाप | भारतेंदु हरिश्चंद्र |
राम कहाँ मिलेंगे | रामनरेश त्रिपाठी |
राम की जल समाधि | भारत भूषण |
राम, तुम्हारा नाम | रामधारी सिंह “दिनकर” |
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है | हरिओम पंवार |
रमा है सबमें राम
रमा है सबमें राम,
वही सलोना श्याम।
जितने अधिक रहें अच्छा है
अपने छोटे छन्द,
अतुलित जो है उधर अलौकिक
उसका वह आनन्द
लूट लो, न लो विराम;
रमा है सबमें राम।
अपनी स्वर-विभिन्नता का है
क्या ही रम्य रहस्य;
बढ़े राग-रञ्जकता उसकी
पाकर सामञ्जस्य।
गूँजने दो भवधान,
रमा है सबमें राम।
बढ़े विचित्र वर्ण वे अपने
गढ़ें स्वतन्त्र चरित्र;
बने एक उन सबसे उसकी
सुन्दरता का चित्र।
रहे जो लोक ललाम,
रमा है सबमें राम।
अयुत दलों से युक्त क्यों न हों
निज मानस के फूल;
उन्हें बिखरना वहाँ जहाँ है
उस प्रिय की पद-धूल।
मिले बहुविधि विश्राम,
रमा है सबमें राम।
अपनी अगणित धाराओं के
अगणित हों विस्तार;
उसके सागर का भी तो है
बढ़ो बस आठों याम,
रमा है सबमें राम।
हुआ एक होकर अनेक वह
हम अनेक से एक,
वह हम बना और हम वह यों
अहा ! अपूर्व विवेक।
भेद का रहे न नाम,
रमा है सबमें राम।
– मैथिलीशरण गुप्त
साभार – कविताकोश
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राम तुम कैसे हो
कहतीं मुक्त कंठ से श्रुतियाँ शास्त्र संत अभिराम
तेरी द्युति से लज्जित होते कोटि-कोटि शूत काम-
राम तुम कैसे हो-
मुझको भी दिखला देते निज छवि माधुरी ललाम
राम तुम कैसे हों।।
कैसी हैं घुघुरारी अलकें ललित कपोल लोल लोचन
कैसा है विधुमुख बिम्बाधर मृगमद-कुंकुम गोरोचन
मन-मधुकर को दिखला देते पद-कंजारूण धाम
राम तुम कैसे हों।।
सहला कर बतला दो तेरे कर सरोज कितने कोमल
शुष्क-कंठ को सींच बता कितना शीतल चरणामृत जल
निज पीताम्बर की कर छाया मेटो मेरा घाम
राम तुम कैसे हो।।
नख-चंदिका सुना है हरती भक्त-जनों के उर का तम
अमृत वचन कर्ण-कुहरों को देते है विश्राम परम
इस जूठन के लोभी का क्या हुआ विधाता वाम
राम तुम कैसे हो।।
झलका दो निज उर मणि-माला भक्त-विपति-भंजनि धनुहीं
ध्वज-कुलशादिक पद की रेखा भरत लाल की प्रिय पनहीं
बीत न जाये बात-बात में ही जिन्दगी तमाम
राम तुम कैसे हो।।
पद पलोटते मारूति-नंदन मुख निहारतीं जनक-लली
अनुशासन माँगते लखन की शोभा होगी बड़ी भलीं
‘पंकिल’ तरस रहा झाँकी को दर्शन दो सुखधाम
राम तुम कैसे हो।।
– प्रेम नारायण ‘पंकिल’
साभार – कविताकोश
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दशरथ विलाप
कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे।
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे।।
बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था।।
छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत।।
छिपे हो कौन-से परदे में बेटा।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा।।
बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते।।
किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा।।
गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है।।
कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर।।
गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ।।
मेरी आँखों की पुतली कहाँ है।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है।।
कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो।।
लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के।।
मुझे सूना दिखाता है ज़माना।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना।।
अँधेरा हो गया घर हाय मेरा।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना।।
मेरा धन लूटकर के कौन भागा।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा।।
हमारा बोलता तोता कहाँ है।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है।।
कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे।।
कोई कुछ हाल तो आकर के कहता।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा।।
हवा और धूप में कुम्हका के थककर।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर।।
जो डरती देखकर मट्टी का चीता।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता।।
कभी उतरी न सेजों से जमीं पर।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर।।
न निकली जान अब तक बेहया हूँ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ।।
मेरा है वज्र का लोगो कलेजा।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता।।
मेरे जीने का दिन बस हाय बीता।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता।।
कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे।
न रह जाये हविस जी में हमारे।।
कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम।।
मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान।
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान।।
कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे।
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे।।
– भारतेंदु हरिश्चंद्र
साभार – कविताकोश
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राम कहाँ मिलेंगे
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना गिरजे के आसपास में।
ना पर्वत पर ना नदियों में
ना घर बैठे ना प्रवास में।
ना कुंजों में ना उपवन के
शांति-भवन या सुख-निवास में।
ना गाने में ना बाने में
ना आशा में नहीं हास में।
ना छंदों में ना प्रबंध में
अलंकार ना अनुप्रास में।
खोज ले कोई राम मिलेंगे
दीन जनों की भूख प्यास में।
– रामनरेश त्रिपाठी
साभार – कविताकोश
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राम पर कविताएं – Poem on Ram in Hindi
यहाँ आपके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर कविता (Poem on Ram in Hindi) दी गई हैं, जिन्हें पढ़कर आप उनके आदर्शों और चरित्र को अपने जीवन में आत्मसात कर पाएंगे। राम पर कविताएं (Poem on Ram in Hindi) इस प्रकार हैं;-
राम की जल समाधि
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू काँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब साँस-साँस संग्राम हुई।
ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार,
माँग रे भिखारी, लोक माँग, कुछ और माँग अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिलें न मिलें तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूँ,
कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूँ भी तो किससे बोलूँ,
सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूँजा भर था,
छप से पानी में पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियाँ, नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआँ-धुआँ फिर अँधियारा,
लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे,
आँखों में जैसे बान सधा, दो पाँव उड़े जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता,
जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक धक लपटों में निर्विकार, सशरीर सत्य-सी सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।
आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था,
केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक जगर-मगर, दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें,
केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल,
हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम।
– भारत भूषण
साभार – कविताकोश
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राम, तुम्हारा नाम
राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे,
हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे,
दुख से त्राण नहीं माँगूँ।
माँगू केवल शक्ति दुख सहने की,
दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया
अकातर ध्यानमग्न रहने की।
देख तुम्हारे मृत्यु दूत को डरूँ नहीं,
न्योछावर होने में दुविधा करूँ नहीं।
तुम चाहो, दूँ वही,
कृपण हौ प्राण नहीं माँगूँ।
– रामधारी सिंह “दिनकर”
साभार – कविताकोश
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है
चर्चा है अख़बारों में
टी. वी. में बाजारों में
डोली, दुल्हन, कहारों में
सूरज, चंदा, तारों में
आँगन, द्वार, दिवारों में
घाटी और पठारों में
लहरों और किनारों में
भाषण-कविता-नारों में
गाँव-गली-गलियारों में
दिल्ली के दरबारों में
धीरे-धीरे भोली जनता है बलिहारी मजहब की
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की
मैं होता हूँ बेटा एक किसानी का
झोंपड़ियों में पाला दादी-नानी का
मेरी ताकत केवल मेरी जुबान है
मेरी कविता घायल हिंदुस्तान है
मुझको मंदिर-मस्जिद बहुत डराते हैं
ईद-दिवाली भी डर-डर कर आते हैं
पर मेरे कर में है प्याला हाला का
मैं वंशज हूँ दिनकर और निराला का
मैं बोलूँगा चाकू और त्रिशूलों पर
बोलूँगा मंदिर-मस्जिद की भूलों पर
मंदिर-मस्जिद में झगडा हो अच्छा है
जितना है उससे तगड़ा हो अच्छा है
ताकि भोली जनता इनको जान ले
धर्म के ठेकेदारों को पहचान ले
कहना है दिनमानों का
बड़े-बड़े इंसानों का
मजहब के फरमानों का
धर्मों के अरमानों का
स्वयं सवारों को खाती है ग़लत सवारी मजहब की |
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की ||
बाबर हमलावर था मन में गढ़ लेना
इतिहासों में लिखा है पढ़ लेना
जो तुलना करते हैं बाबर-राम की
उनकी बुद्धि है निश्चित किसी गुलाम की
राम हमारे गौरव के प्रतिमान हैं
राम हमारे भारत की पहचान हैं
राम हमारे घट-घट के भगवान् हैं
राम हमारी पूजा हैं अरमान हैं
राम हमारे अंतरमन के प्राण हैं
मंदिर-मस्जिद पूजा के सामान हैं
राम दवा हैं रोग नहीं हैं सुन लेना
राम त्याग हैं भोग नहीं हैं सुन लेना
राम दया हैं क्रोध नहीं हैं जग वालो
राम सत्य हैं शोध नहीं हैं जग वालों
राम हुआ है नाम लोकहितकारी का
रावण से लड़ने वाली खुद्दारी का
दर्पण के आगे आओ
अपने मन को समझाओ
खुद को खुदा नहीं आँको
अपने दामन में झाँको
याद करो इतिहासों को
सैंतालिस की लाशों को
जब भारत को बाँट गई थी वो लाचारी मजहब की |
ऐसा ना हो देश जला दे ये चिंगारी मजहब की ||
आग कहाँ लगती है ये किसको गम है
आँखों में कुर्सी हाथों में परचम है
मर्यादा आ गयी चिता के कंडों पर
कूंचे-कूंचे राम टंगे हैं झंडों पर
संत हुए नीलाम चुनावी हट्टी में
पीर-फ़कीर जले मजहब की भट्टी में
कोई भेद नहीं साधू-पाखण्डी में
नंगे हुए सभी वोटों की मंडी में
अब निर्वाचन निर्भर है हथकंडों पर
है फतवों का भर इमामों-पंडों पर
जो सबको भा जाये अबीर नहीं मिलता
ऐसा कोई संत कबीर नहीं मिलता
जिनके माथे पर मजहब का लेखा है
हमने उनको शहर जलाते देखा है
जब पूजा के घर में दंगा होता है
गीत-गजल छंदों का मौसम रोता है
मीर, निराला, दिनकर, मीरा रोते हैं
ग़ालिब, तुलसी, जिगर, कबीरा रोते हैं
भारत माँ के दिल में छाले पड़ते हैं
लिखते-लिखते कागज काले पड़ते हैं
राम नहीं है नारा, बस विश्वाश है
भौतिकता की नहीं, दिलों की प्यास है
राम नहीं मोहताज किसी के झंडों का
सन्यासी, साधू, संतों या पंडों का
राम नहीं मिलते ईंटों में गारा में
राम मिलें निर्धन की आँसू-धारा में
राम मिलें हैं वचन निभाती आयु को
राम मिले हैं घायल पड़े जटायु को
राम मिलेंगे अंगद वाले पाँव में
राम मिले हैं पंचवटी की छाँव में
राम मिलेंगे मर्यादा से जीने में
राम मिलेंगे बजरंगी के सीने में
राम मिले हैं वचनबद्ध वनवासों में
राम मिले हैं केवट के विश्वासों में
राम मिले अनुसुइया की मानवता को
राम मिले सीता जैसी पावनता को
राम मिले ममता की माँ कौशल्या को
राम मिले हैं पत्थर बनी आहिल्या को
राम नहीं मिलते मंदिर के फेरों में
राम मिले शबरी के झूठे बेरों में
मै भी इक सौंगंध राम की खाता हूँ
मै भी गंगाजल की कसम उठाता हूँ
मेरी भारत माँ मुझको वरदान है
मेरी पूजा है मेरा अरमान है
मेरा पूरा भारत धर्म-स्थान है
मेरा राम तो मेरा हिंदुस्तान है
हरिओम पंवार
साभार – कविताकोश
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