Judicial Activism in Hindi: न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका मुख्य उद्देश्य नागरिक अधिकारों की रक्षा करते हुए, निर्णय लेते समय कानून का राज स्थापित करना है। न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाती है। वर्ष 1970 के दौरान भारत में सार्वजनिक हित याचिकाओं (Public Interest Litigations – PILs) का चलन बढ़ने लगा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने इस प्रक्रिया के तहत जनहित के मामलों में स्वप्रेरणा से कार्यवाही शुरू करने और कई ऐतिहासिक निर्णय देने में मुख्य भूमिका निभाई।
UPSC परीक्षा की तैयारी में न्यायिक सक्रियता से संबंधित जानकारी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि यह जानकारी संविधान, राजनीति और समाजशास्त्र के बीच एक सेतु का काम करती है। बता दें कि UPSC परीक्षा में Judicial Activism से संबंधित कई प्रश्न किए जाते हैं। इस ब्लॉग में कैंडिडेट्स के लिए न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism UPSC in Hindi) की संपूर्ण जानकारी दी गई है, इसलिए ब्लॉग को अंत तक जरूर पढ़ें।
This Blog Includes:
- न्यायिक सक्रियता क्या है?
- भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन क्या है?
- न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता
- न्यायिक सक्रियता की विशेषताएं
- न्यायिक सक्रियता का महत्व
- न्यायिक सक्रियता का लाभ
- न्यायिक सक्रियता की चुनौतियाँ
- न्यायिक सक्रियता के मुख्य लक्षण
- न्यायिक सक्रियता के दोष
- न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष
- न्यायिक सक्रियता और न्यायिक समीक्षा में अंतर
- न्यायिक सक्रियता के उदाहरण
- UPSC के लिए न्यायिक सक्रियता से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु
- FAQs
न्यायिक सक्रियता क्या है?
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) भारतीय न्याय प्रणाली का एक ऐसा महत्वपूर्ण पहलू है, जिसके तहत न्यायपालिका कानून की व्याख्या करते समय समाज में व्याप्त मुद्दों को हल करने के लिए सक्रिय भूमिका निभाती है। इस अवधारणा का मुख्य सिद्धांत यह है कि न्यायपालिका केवल विवादों का निपटारा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से वह कानूनों की व्याख्या करते समय सामाजिक न्याय, संवैधानिक मूल्यों और सार्वजनिक हितों की रक्षा भी करती है।
भारत में न्यायिक सक्रियता की नींव न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, न्यायमूर्ति वी.आर कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति ओ.चिन्नप्पा रेड्डी और न्यायमूर्ति डी.ए. देसाई ने रखी थी। वहीं न्यायिक सक्रियता शब्द वर्ष 1947 में अमरीकी इतिहासकार और लेखक ‘आर्थर स्लेसिंगर जूनियर’ (Arthur Schlesinger Jr) द्वारा गढ़ा गया था।
भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन क्या है?
भारत में न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें न्यायपालिका अपनी पारंपरिक भूमिका से आगे बढ़कर जनहित से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय हस्तक्षेप करती है। इसका उद्देश्य समाज में न्याय, समानता और कानून के शासन को सुनिश्चित करना है। भारत में न्यायिक सक्रियता के मुख्य साधन जनहित याचिका, संविधान की व्याख्या, मूल अधिकारों की रक्षा और न्यायिक समीक्षा है।
न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता
न्यायिक सक्रियता सही मायनों में लोकतंत्र में शासन के तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के बीच संतुलन बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। न्यायिक सक्रियता के निम्नलिखित प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं:-
- न्यायिक सक्रियता का सबसे प्रभावी तरीका ‘सार्वजनिक हित याचिका’ (PIL) है। इसके माध्यम से कोई भी नागरिक या संगठन जनता के हित में न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
- इसमें न्यायालय, संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करते हुए नई नीतियां और अधिकार निर्धारित करता है।
- इस प्रक्रिया के तहत न्यायपालिका कभी-कभी कार्यपालिका को सार्वजनिक हित में आवश्यक कदम उठाने के लिए निर्देश भी देती है।
- न्यायिक सक्रियता से न्यायालयों ने समय-समय पर अनुच्छेद 32 और 226 के तहत मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप किया है।
- इस प्रक्रिया में ‘सुपर एक्टिव ज्यूडिशियल स्टेप्स’ (Suo Motu Cognizance) के तहत न्यायालय कई बार स्वतः संज्ञान लेते हुए मामलों की सुनवाई करता है।
- इस प्रक्रिया में न्यायिक समीक्षा के माध्यम से न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी कानून संविधान के खिलाफ न हो।
- जनहित याचिका के माध्यम से न्यायपालिका को नागरिकों की समस्याओं से अवगत होने और उनका समाधान करने का अवसर मिलता है।
न्यायिक सक्रियता की विशेषताएं
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism in Hindi) की विशेषताएं इस प्रकार हैं:-
- न्यायिक सक्रियता के अंतर्गत संविधान की व्याख्या में लचीलापन देखा जा सकता है, यानी इस प्रक्रिया में संविधान की व्याख्या आधुनिक समय और परिस्थितियों के अनुसार की जाती है।
- न्यायिक सक्रियता नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करती है।
- जनहित याचिका न्यायिक सक्रियता का ऐसा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जिसके माध्यम से समाज के वंचित और कमजोर वर्गों को न्याय दिलाने का मार्ग प्रशस्त किया जाता है।
- यह प्रक्रिया न्यायपालिका को आम जनता की समस्याओं को सुनने और सुलझाने का अवसर देती है।
- न्यायिक सक्रियता के माध्यम से न्यायपालिका सरकार के कार्यों की निगरानी करती है।
- इस प्रक्रिया में यह सुनिश्चित किया जाता है कि विधायिका और कार्यपालिका संविधान की सीमाओं के भीतर काम करें और उनकी नीतियों का दुरुपयोग न हो।
- न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र को मजबूती देने में भी विशेष भूमिका निभाता है।
- सामाजिक सुधार के लिए भी न्यायिक सक्रियता एक प्रेरणा का स्रोत है। इसके माध्यम से, शिक्षा का अधिकार (RTE), पर्यावरण संरक्षण, और महिला सशक्तिकरण से जुड़े मामलों में न्यायपालिका ने सक्रिय भूमिका निभाई है।
- न्यायिक सक्रियता के कारण न्यायपालिका न केवल संवैधानिक मामलों में बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक मुद्दों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
न्यायिक सक्रियता का महत्व
न्यायिक सक्रियता के महत्व (Judicial Activism in Hindi) को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:-
- संविधान की रक्षा करने में न्यायिक सक्रियता का एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाना।
- समय-समय पर लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करन।
- समाज में न्याय सुनिश्चित करना।
- मानवाधिकारों की रक्षा करना।
- सार्वजनिक नीतियों का निर्धारण करना।
- आम जनमानस को समय पर न्याय दिलाना।
न्यायिक सक्रियता का लाभ
यहाँ न्यायिक सक्रियता का लाभ के बारे में जानिए:-
- न्यायिक सक्रियता ही सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करता है।
- इसके माध्यम से ही कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा की जा सकती है।
- यह सरकारी निष्क्रियता पर नियंत्रण रखने में मुख्य भूमिका निभाता है।
- सरकार या कार्यपालिका जब अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने में विफल रहती है, तब इसी प्रक्रिया के दौरान न्यायपालिका सक्रिय होकर हस्तक्षेप करती है।
- यह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने में भी मुख्य भूमिका निभाता है।
- आसान भाषा में समझा जाए तो यह प्रक्रिया संविधान की आत्मा को सुरक्षित रखने में सहायक भूमिका निभाती है।
न्यायिक सक्रियता की चुनौतियाँ
न्यायिक सक्रियता की मुख्य चुनौतियाँ (Judicial Activism in Hindi) इस प्रकार हैं:-
- न्यायालय जब कार्यपालिका या विधायिका की नीतियों में हस्तक्षेप करता है, तो संविधान की स्पष्टता को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। आसान भाषा में समझा जाए तो संविधान के अनुच्छेदों के बीच संतुलन बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होती है।
- कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका में हस्तक्षेप करने से लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- न्यायालय के अत्यधिक सक्रिय हो जाने से यह सवाल उठता है कि क्या यह विधायिका और कार्यपालिका की शक्ति को कमजोर करता है, जो कि लोकतंत्र की दृष्टि से एक बड़ी चुनौती है।
- कई जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायिक सक्रियता की सीमा का निर्धारण करना कठिन हो सकता है, जो कि एक बड़ी चुनौती के समान है।
- न्यायिक सक्रियता का एक अन्य पहलू यह है कि जब न्यायालय सशक्त रूप से हस्तक्षेप करता है, तो समाज में उत्पन्न होने वाली असमानताओं को हल करने के प्रयासों में न्यायपालिका की भूमिका बढ़ जाती है।
न्यायिक सक्रियता के मुख्य लक्षण
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism in Hindi) के मुख्य लक्षण नीचे दिए गए हैं:-
- न्यायिक सक्रियता का सबसे प्रमुख लक्षण ‘सार्वजनिक हित याचिका’ (PIL) का प्रावधान है, जिसके तहत कोई भी नागरिक या संगठन समाज के हित में अदालत में याचिका दायर कर सकता है।
- न्यायालय संविधान के अनुच्छेदों की विस्तृत और प्रगतिशील व्याख्या करता है, जिसके तहत यह सुनिश्चित होता है कि संविधान के मूल उद्देश्यों की रक्षा हो और उनके अनुसार ही शासन का संचालन हो।
- न्यायिक सक्रियता के तहत न्यायालय, कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों की समीक्षा की जाती है।
- न्यायिक सक्रियता का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है, जिसके तहत यदि किसी व्यक्ति या वर्ग के अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो न्यायालय हस्तक्षेप करके उन्हें उनका अधिकार दिलाता है।
- न्यायिक सक्रियता समाज में समानता और न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास करती है।
- न्यायिक सक्रियता के माध्यम से नागरिकों को न्याय व्यवस्था में अधिक भागीदारी का अवसर मिलता है।
- न्यायिक सक्रियता के मामलों में मीडिया और समाज की जागरूकता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
न्यायिक सक्रियता के दोष
न्यायिक सक्रियता के दोष इस प्रकार है:-
- न्यायिक सक्रियता के कारण न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का संतुलन बिगड़ सकता है।
- न्यायिक सक्रियता के दौरान अगर न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय लेती है, तो अविभाजित सत्ता का खतरा पैदा हो सकता है।
- इस प्रक्रिया में संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन होता है, क्योंकि कई बार न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया जाता है।
- इस प्रक्रिया में अधिकारों का अतिक्रमण होता है, जो कि इसका एक बड़ा दोष है।
- न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर सवाल खड़े हो सकते हैं, जिससे न्यायिक मनमानी का खतरा बढ़ जाता है।
न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष
न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष से संबंधित जानकारी इस प्रकार है:-
न्यायिक सक्रियता के पक्ष में तर्क
- न्यायिक सक्रियता से संवैधानिक मूल्यों की रक्षा होती है।
- इसमें लोकहित संरक्षण के प्रावधान भी होते हैं।
- यह प्रक्रिया पूरी तरह निष्पक्षता का उदाहरण पेश करती है।
- इस प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए हैं, जिनमें केशवानंद भारती मामला, शीला बरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (वर्ष 1983) तथा मनरेगा के कार्यक्रमों की समीक्षा करना आदि शामिल हैं।
न्यायिक सक्रियता के विपक्ष में तर्क
- न्यायिक सक्रियता के कारण अधिकारों का अतिक्रमण होने का खतरा होता है।
- इसमें कई बार जनादेश की अनदेखी भी देखी गई है, आसान भाषा में समझा जाए तो इसमें जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के निर्णयों को दरकिनार किया जा सकता है।
- न्यायालय नीति निर्माण का अनुभव नहीं रखते, जिससे उनके फैसले कभी-कभी व्यावहारिक रूप से अप्रभावी हो सकते हैं।
- इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर दबाव भी देखा जा सकता है।
- इसमें अत्यधिक सक्रियता का खतरा भी बढ़ जाता है।
न्यायिक सक्रियता और न्यायिक समीक्षा में अंतर
भारतीय न्याय प्रणाली के दो महत्वपूर्ण स्तंभ ‘न्यायिक सक्रियता’ और ‘न्यायिक समीक्षा’ हैं, जो संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए उपयोग किए जाते हैं। ये दोनों अवधारणाएं न्यायपालिका से जुड़ी होती है, लेकिन इनके उद्देश्य और कार्यशैली अलग-अलग होती हैं। न्यायिक सक्रियता में न्यायपालिका सक्रिय रूप से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों में हस्तक्षेप करती है।
न्यायिक सक्रियता के माध्यम से न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के लिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि संविधान के अनुरूप कार्य किए जाएं। तो वहीं न्यायिक समीक्षा का मतलब है कि न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि विधायिका और कार्यपालिका द्वारा बनाए गए कानून या नीतियाँ संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
न्यायिक सक्रियता के उदाहरण
न्यायिक सक्रियता के मुख्य उदाहरण (Judicial Activism in Hindi) इस प्रकार हैं:-
- केशवानंद भारती केस (वर्ष 1973) में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा (Basic Structure Doctrine) को स्पष्ट करने के साथ-साथ, यह सुनिश्चित किया कि संसद संविधान के मूल सिद्धांतों में बदलाव नहीं कर सकती है।
- मनु शर्मा बनाम भारत सरकार (Right to Life) के मामले में पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छता के मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्देश जारी किए थे, जिसमें गंगा सफाई अभियान भी शामिल है।
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे।
- हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (वर्ष 1979) के मामले में विचाराधीन कैदियों के खिलाफ अमानवीय और बर्बरता की स्थिति पर प्रकाश डाला था।
UPSC के लिए न्यायिक सक्रियता से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु
UPSC परीक्षा के लिए Judicial Activism से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं:-
- UPSC परीक्षा में Judicial Activism की परिभाषा और सिद्धांत, न्यायिक सक्रियता और PIL का महत्व के बारे में प्रश्न पूछे जाते हैं।
- इस परीक्षा में संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 का महत्व भी पूछा जाता है।
- UPSC परीक्षा में भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका से संबंधित प्रश्न भी पूछे जाते है।
- न्यायिक सक्रियता से संबंधित वर्तमान मुद्दे और उदाहरण भी परीक्षा में प्रश्न पूछे जा सकते हैं।
FAQs
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) वह प्रक्रिया है, जिसमें न्यायालय संविधान की व्याख्या करते समय सक्रिय भूमिका निभाते हैं और ऐसे निर्णय लेते हैं जो समाज में बदलाव लाने के उद्देश्य से हों।
न्यायिक सक्रियता का मुख्य उद्देश्य शासन में पारदर्शिता लाना, वंचित वर्गों की आवाज़ बनना और संविधान की मूल भावना को बनाए रखना होता है।
न्यायिक सक्रियता की मुख्य विशेषताएं संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना, लोकहित याचिकाओं (PIL) के माध्यम से जनहित के मुद्दों पर न्यायिक हस्तक्षेप करना और नए कानूनों के लिए सुझाव देना होता है।
न्यायिक सक्रियता नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करने, समाज में समानता और न्याय की स्थापना करने के साथ-साथ, प्रशासनिक सुधार और जवाबदेही सुनिश्चित करने में लाभकारी होती है।
न्यायिक सक्रियता में न्यायालय सामाजिक और संवैधानिक सुधार के लिए निर्णय लेते हैं, जबकि न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) में न्यायालय विधायिका और कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में अत्यधिक हस्तक्षेप करते हैं। यही इन दोनों में एक बड़ा अंतर है।
न्यायिक सक्रियता के लोकप्रिय उदाहरण में से एक विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (वर्ष 1997) का केस है, जिसके तहत कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित दिशानिर्देश दिए गए थे।
न्यायिक सक्रियता का प्रशासन और लोकतंत्र पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं, जिसमें एक तरफ तो नागरिक अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही बढ़ती है तो वहीं दूसरी ओर इसके कारण न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संघर्ष उत्पन्न भी हो सकता है।
न्यायिक सक्रियता की आलोचना विधायिका और कार्यपालिका के प्रतिनिधि करते हैं, जो इसे उनके अधिकारों में हस्तक्षेप मानते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ विधि विशेषज्ञ का भी यह मानना है कि न्यायपालिका को केवल न्यायिक कार्यों तक सीमित रहना चाहिए।
लोकहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) न्यायिक सक्रियता का एक ऐसा प्रमुख उपकरण है, जिसके माध्यम से सामान्य नागरिक या संगठन को समाज के हित में न्यायालय से अपील करने का अधिकार मिलता है।
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