Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen: अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसे राजनेता और कवि थे जिन्होंने राष्ट्रनिर्माण के साथ-साथ, साहित्यनिर्माण में भी अपनी मुख्य भूमिका निभाई। अटल जी का जैसा नाम था ठीक वैसा ही विराट उनका व्यक्तित्व भी था, उनकी लेखन शैली ने समाज को सदैव एक सशक्त आवाज देने का काम किया। आज भी अटल जी की कविताएं प्रासंगिक होकर समाज का मार्गदर्शन करने का काम करती हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि अटल जी भारत के उन प्रतिष्ठित राजनेताओं में से थे, जिन्होंने न केवल राजनीति में बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उनकी कविताएं उनकी संवेदनशीलता, विचारशीलता, और राष्ट्रप्रेम का एक अद्भुत संगम हैं। इस ब्लॉग में आपको अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं (Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन की हर चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करेंगी।
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अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में
भारतीय हिंदी साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि अटल बिहारी वाजपेयी भी हैं, जिनकी लेखनी ने सदैव युवाओं को प्रेरित किया है। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने हिंदी साहित्य के महान कवि होने के साथ-साथ, भारत के प्रधानमंत्री के रूप में भी अपनी भूमिका को बखूबी निभाया।
25 दिसंबर 1924 को अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी के पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी एक शिक्षक थे, इसी कारण अटल बिहारी वाजपेयी का साहित्य के प्रति एक गहरा जुड़ाव था। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ग्वालियर के दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज से स्नातक और फिर कानपुर विश्वविद्यालय से LLB की उपाधि प्राप्त की।
अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविताओं जैसे “गीत नया गाता हूँ”, “आओ फिर से दिया जलाएँ”, “मौत से ठन गई”, “ऊँचाई” इत्यादि ने समाज का सदैव मार्गदर्शन किया है। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी ने साहित्य के क्षेत्र में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया, राष्ट्रहित सर्वोपरि के उद्देश्य से अपना सारा जीवन लगा देने वाले वाजपेयी जी का निधन 16 अगस्त 2018 को दिल्ली में हुआ था।
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अटल जी की कविताएं – Atal Ji Ki Kavitayen
अटल जी की कविताएं (Atal Ji Ki Kavitayen) समाज की सोई चेतना को जागकर युवाओं का मार्गदर्शन करने का काम करती हैं, जो सदैव आपका मार्गदर्शन करेंगी। अटल जी की कविताएं (Atal Ji Ki Kavitayen) कुछ इस प्रकार हैं –
- गीत नया गाता हूँ
- आओ फिर से दिया जलाएँ
- मौत से ठन गई
- ऊँचाई
- दूर कहीं कोई रोता है
- पड़ोसी से
- हरी हरी दूब पर
- पंद्रह अगस्त की पुकार
- क़दम मिला कर चलना होगा
- कौरव कौन, कौन पांडव
- दूध में दरार पड़ गई
- मनाली मत जइयो
- क्षमा याचना
- अंतरद्वंद्व
- पुनः चमकेगा दिनकर
- जीवन की ढलने लगी साँझ
- मैं न चुप हूँ न गाता हूँ
- एक बरस बीत गया
- झुक नहीं सकते
- दो अनुभूतियाँ
- हिरोशिमा की पीड़ा
- राह कौन सी जाऊँ मैं?
- अपने ही मन से कुछ बोलें
- जो बरसों तक सड़े जेल में
- मैं अखिल विश्व का गुरू महान
- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं
- दुनिया का इतिहास पूछता इत्यादि।
गीत नया गाता हूँ
Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen (अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं) आपको परिचय साहस से करवाएंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक “गीत नया गाता हूँ” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ गीत नया गाता हूँ टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ गीत नया गाता हूँ
-अटल बिहारी वाजपेयी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी युवाओं को समस्याओं के विरुद्ध स्वयं को प्रेरित करने का संदेश देते हैं। इस कविता के माध्यम से अटल जी हर प्रकार की नकारात्मकताओं का नाश करने के साथ-साथ, स्वयं को प्रेरित करने का काम करता है। यह कविता हमें सकारात्मकता के साथ जीवनयापन करने का संदेश देती है।
आओ फिर से दिया जलाएँ
Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen (अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं) आपको प्रेरित करने का काम करेगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “आओ फिर से दिया जलाएँ” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
भरी दुपहरी में अँधियारा सूरज परछाईं से हारा अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ आओ फिर से दिया जलाएँ हम पड़ाव को समझे मंज़िल लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल वतर्मान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ आओ फिर से दिया जलाएँ आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा अपनों के विघ्नों ने घेरा अंतिम जय का वज्र बनाने नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ आओ फिर से दिया जलाएँ
–अटल बिहारी वाजपेयी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि अटल बिहारी वाजपेयी जी निराशा से जन्मे अंतर्मन के तमस को मिटाने के लिए, आशाओं की भावना के साथ विश्वास का दीपक जलाने का संदेश देती है। यह कविता आपको प्रेरणा से भरने का प्रयास करती है, जीवन में मिली असफलताओं का सामना करने के लिए यह कविता हमें सक्षम बनाती है।
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मौत से ठन गई
Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen आपको प्रेरणा से भर देंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं की श्रेणी में से एक रचना “मौत से ठन गई” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, ज़िंदगी-सिलसिला, आज-कल की नहीं मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा मौत से बेख़बर, ज़िंदगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी है कोई गिला हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई, मौत से ठन गई।
-अटल बिहारी वाजपेयी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी जीवन का अटल सत्य “मृत्यु” के बारे में एक सवाल उठाते हैं, सवाल ऐसा जो जीवन की वास्तविकता से आपका परिचय करवाता है। कविता में कवि किसी से कोई शिकायत या शिकवा नहीं करते हैं, कविता में कवि साहस के साथ चुनौतियों से निपटने के लिए समाज को प्रेरित करते हैं।
ऊँचाई
Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen आपको साहित्य के सौंदर्य से परिचित करवाएंगी, साथ ही आपको प्रेरित करेंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “ऊँचाई” भी है, यह कुछ इस प्रकार है:
ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है। जमती है सिर्फ़ बर्फ़, जो कफ़न की तरह सफ़ेद और मौत की तरह ठंडी होती है खेलती, खिलखिलाती नदी, जिसका रूप धारण कर, अपने भाग्य पर बूँद-बूँद रोती है। ऐसी ऊँचाई, जिसका परस, पानी को पत्थर कर दे, ऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे, अभिनंदन की अधिकारी है, आरोहियों के लिए आमंत्रण है, उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, किंतु कोई गौरैया, वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, न कोई थका-माँदा बटोही, उसकी छाँव में पल भर पलक ही झपका सकता है। सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, सबसे अलग-थलग, परिवेश से पृथक, अपनों से कटा-बँटा, शून्य में अकेला खड़ा होना, पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है। ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है। जो जितना ऊँचा, उतना एकाकी होता है, हर भार को स्वयं ढोता है, चेहरे पर मुस्कानें चिपका, मन ही मन रोता है। ज़रूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, जिससे मनुष्य, ठूँठ-सा खड़ा न रहे, औरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले, किसी के संग चले। भीड़ में खो जाना, यादों में डूब जाना, स्वयं को भूल जाना, अस्तित्व को अर्थ, जीवन को सुगंध देता है। धरती को बौनों की नहीं, ऊँचे क़द के इंसानों की ज़रूरत है। इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें, किंतु इतने ऊँचे भी नहीं, कि पाँव तले दूब ही न जमे, कोई काँटा न चुभे, कोई कली न खिले। न वसंत हो, न पतझड़, हो सिर्फ़ ऊँचाई का अंधड़, मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, इतनी रुखाई कभी मत देना।
-अटल बिहारी वाजपेयी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी जीवन के वास्तविक अर्थ को सहजता से समझाते हैं। कविता हमें बताती है कि हम चाहे जितना भी यह कह लें कि ज़िंदगी में हम ऊंचाई पर हैं अथवा हमनें कुछ कमाया, वास्तविकता में हमने कुछ नहीं किया। कविता का उद्देश्य ईश्वर से प्रार्थना करना है कि हमें जीवन में इतनी भी ऊंचाई न मिले कि हम समाज के दुखों को महसूस न कर पाएं।
दूर कहीं कोई रोता है
Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen आपको प्रेरित करेंगी, साथ ही आपका परिचय अटल सत्य से करवाएंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की महान रचनाओं में से एक रचना “दूर कहीं कोई रोता है” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
तन पर पहरा, भटक रहा मन, साथी है केवल सूनापन, बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का, क्रंदन सदा करुण होता है। जन्म दिवस पर हम इठलाते, क्यों न मरण-त्यौहार मनाते, अंतिम यात्रा के अवसर पर, आँसू का अशकुन होता है। अंतर रोएँ, आँख न रोएँ, धुल जाएँगे स्वप्न सँजोए, छलना भरे विश्व में, केवल सपना ही सच होता है। इस जीवन से मृत्यु भली है, आतंकित जब गली-गली है, मैं भी रोता आस-पास जब, कोई कहीं नहीं होता है। दूर कहीं कोई रोता है।
-अटल बिहारी वाजपेयी
भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी ने अंतर्मन की पीड़ाओं को शब्दों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया है। यह कविता निराश मन की भावनाओं को शब्दों से उकेरने का काम करती है। एकांत के सन्नाटे से जन्मी पीड़ाओं को, टूटे हुए सपनों की पीड़ाओं को इस कविता के माध्यम से दर्शाने का काम किया गया है।
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अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं – Atal Bihari Vajpayee ki Kavita
अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं (Atal Bihari Vajpayee ki Kavitayen) समाज के हर पहलू पर बेबाकी से अपनी राय रखती है, ये कुछ इस प्रकार है;
क़दम मिला कर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। कुछ काँटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा।
-अटल बिहारी वाजपेयी
मैं न चुप हूँ न गाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ सवेरा है मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल रूई से धुंधलके में मील के पत्थर पड़े घायल ठिठके पाँव ओझल गाँव जड़ता है न गतिमयता स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूं न मैं चुप हूँ न गाता हूँ समय की सदर साँसों ने चिनारों को झुलस डाला, मगर हिमपात को देती चुनौती एक दुर्ममाला, बिखरे नीड़, विहँसे चीड़, आँसू हैं न मुस्कानें, हिमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता हूँ। न मैं चुप हूँ न गाता हूँ
-अटल बिहारी वाजपेयी
कौरव कौन, कौन पांडव
कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है। दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है। धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है। हर पंचायत में पांचाली अपमानित है। बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है
-अटल बिहारी वाजपेयी
दूध में दरार पड़ गई
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया? भेद में अभेद खो गया। बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई। दूध में दरार पड़ गई। खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है। वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई। अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं ग़ैर, ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता। बात बनाएँ, बिगड़ गई। दूध में दरार पड़ गई।
-अटल बिहारी वाजपेयी
पुनः चमकेगा दिनकर
आज़ादी का दिन मना, नई ग़ुलामी बीच; सूखी धरती, सूना अंबर, मन-आंगन में कीच; मन-आंगम में कीच, कमल सारे मुरझाए; एक-एक कर बुझे दीप, अंधियारे छाए; कह क़ैदी कबिराय न अपना छोटा जी कर; चीर निशा का वक्ष पुनः चमकेगा दिनकर।
-अटल बिहारी वाजपेयी
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अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविता – (Atal Bihari Vajpayee ki Kavita)
अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविता (Atal Bihari Vajpayee ki Kavita) कुछ इस प्रकार है, जिन्होंने युवाओं के दिलों पर अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी। ये लोकप्रिय कविता कुछ इस प्रकार है –
न दैन्यं न पलायनम्
कर्तव्य के पुनीत पथ को हमने स्वेद से सींचा है, कभी-कभी अपने अश्रु और— प्राणों का अर्ध्य भी दिया है। किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में— हम कभी रुके नहीं हैं। किसी चुनौती के सम्मुख कभी झुके नहीं हैं। आज, जब कि राष्ट्र-जीवन की समस्त निधियाँ, दाँव पर लगी हैं, और, एक घनीभूत अंधेरा— हमारे जीवन के सारे आलोक को निगल लेना चाहता है; हमें ध्येय के लिए जीने, जूझने और आवश्यकता पड़ने पर— मरने के संकल्प को दोहराना है। आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में— आइए, अर्जुन की तरह उद्घोष करें : ‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
-अटल बिहारी वाजपेयी
मैंने जन्म नहीं मांगा था!
मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करुँगा। जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरा हूँ। जन्म मरण के फेरे से मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ। अन्तहीन अंधियार ज्योति की, कब तक और तलाश करूँगा। मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा। बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, यह मजबूरी या मनमानी? पूर्व जन्म के पूर्व बसी— दुनिया का द्वारचार करूँगा। मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा।
-अटल बिहारी वाजपेयी
कवि आज सुना वह गान रे
कवि आज सुना वह गान रे, जिससे खुल जाएँ अलस पलक। नस–नस में जीवन झंकृत हो, हो अंग–अंग में जोश झलक। ये - बंधन चिरबंधन टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी हम मिलकर हर्ष मना डालें, हूकें उर की मिट जाएँ सभी। यह भूख – भूख सत्यानाशी बुझ जाय उदर की जीवन में। हम वर्षों से रोते आए अब परिवर्तन हो जीवन में। क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और, हाहाकारों से चिर परिचय। कुछ क्षण को दूर चला जाए, यह वर्षों से दुख का संचय। हम ऊब चुके इस जीवन से, अब तो विस्फोट मचा देंगे। हम धू - धू जलते अंगारे हैं, अब तो कुछ कर दिखला देंगे। अरे ! हमारी ही हड्डी पर, इन दुष्टों ने महल रचाए। हमें निरंतर चूस – चूस कर, झूम – झूम कर कोष बढ़ाए। रोटी – रोटी के टुकड़े को, बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं। इन – मतवाले उन्मत्तों ने, लूट – लूट कर गेह भरे हैं। पानी फेरा मर्यादा पर, मान और अभिमान लुटाया। इस जीवन में कैसे आए, आने पर भी क्या पाया? रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना, क्या यही हमारा जीवन है? हम स्वच्छंद जगत में जन्मे, फिर कैसा यह बंधन है? मानव स्वामी बने और— मानव ही करे गुलामी उसकी। किसने है यह नियम बनाया, ऐसी है आज्ञा किसकी? सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे, और मृत्यु सब पाएँगे। फिर यह कैसा बंधन जिसमें, मानव पशु से बंध जाएँगे ? अरे! हमारी ज्वाला सारे— बंधन टूक-टूक कर देगी। पीड़ित दलितों के हृदयों में, अब न एक भी हूक उठेगी। हम दीवाने आज जोश की— मदिरा पी उन्मत्त हुए। सब में हम उल्लास भरेंगे, ज्वाला से संतप्त हुए। रे कवि! तू भी स्वरलहरी से, आज आग में आहुति दे। और वेग से भभक उठें हम, हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
-अटल बिहारी वाजपेयी
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
विजय का पर्व! जीवन संग्राम की काली घड़ियों में क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर विजयोन्मुख भविष्य का पथ प्रशस्त करते हैं। अमावस के अभेद्य अंधकार का— अन्तकरण पूर्णिमा का स्मरण कर थर्रा उठता है। सरिता की मँझधार में अपराजित पौरुष की संपूर्ण उमंगों के साथ जीवन की उत्ताल तरंगों से हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले नैराश्य के भीषण भँवर को कौतुक के साथ आलिंगन आनन्द देता है। पर्वतप्राय लहरियाँ उसे भयभीत नहीं कर सकतीं उसे चिन्ता क्या है ? कुछ क्षण पूर्व ही तो वह स्वेच्छा से कूल-कछार छोड़कर आया उसे भय क्या है ? कुछ क्षण पश्चात् ही तो वह संघर्ष की सरिता पार कर वैभव के अमिट चरण-चिह्न अंकित करेगा। हम अपना मस्तक आत्मगौरव के साथ तनिक ऊँचा उठाकर देखें विश्व के गगन मंडल पर हमारी कलित कीर्ति के असंख्य दीपक जल रहे हैं। युगों के बज्र कठोर हृदय पर हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं। अनंत भूतकाल हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं। भावी की अगणित घड़ियाँ हमारी विजयमाला की लड़ियाँ बनने की प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं। हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है। हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।
-अटल बिहारी वाजपेयी
स्वाधीनता के साधना पीठ
अपने आदर्शों और विश्वासों के लिए काम करते-करते, मृत्यु का वरण करना सदैव ही स्पृहणीय है। किन्तु वे लोग सचमुच धन्य हैं जिन्हें लड़ाई के मैदान में, आत्माहुति देने का अवसर प्राप्त हुआ है। शहीद की मौत मरने का सौभाग्य सब को नहीं मिला करता। जब कोई शासक सत्ता के मद में चूर होकर या, सत्ता हाथ से निकल जाने के भय से भयभीत होकर व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वाभिमान को कुचल देने पर आमादा हो जाता है, तब कारागृह ही स्वाधीनता के साधना पीठ बन जाते हैं।
-अटल बिहारी वाजपेयी
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