Atal Bihari Vajpayee ki Kavita : अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का अनमोल संग्रह, जो बनी समाज की सशक्त आवाज

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Atal Bihari Vajpayee ki Kavita

अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसे राजनेता और कवि थे जिन्होंने राष्ट्रनिर्माण के साथ-साथ, साहित्यनिर्माण में भी अपनी मुख्य भूमिका निभाई। अटल जी का जैसा नाम था ठीक वैसा ही विराट उनका व्यक्तित्व भी था, उनकी लेखन शैली ने समाज को सदैव एक सशक्त आवाज देने का काम किया। आज भी उनकी कविताएं प्रासंगिक होकर समाज का मार्गदर्शन करने का काम करती हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि अटल जी भारत के उन प्रतिष्ठित राजनेताओं में से थे, जिन्होंने न केवल राजनीति में बल्कि साहित्यिक क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उनकी कविताएं उनकी संवेदनशीलता, विचारशीलता, और राष्ट्रप्रेम का एक अद्भुत संगम हैं। इस ब्लॉग में आपको अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं (Atal Bihari Vajpayee ki Kavita) पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा, जो आपको जीवन की हर चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करेंगी।

अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में

भारतीय हिंदी साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि अटल बिहारी वाजपेयी भी हैं, जिनकी लेखनी ने सदैव युवाओं को प्रेरित किया है। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने हिंदी साहित्य के महान कवि होने के साथ-साथ, भारत के प्रधानमंत्री के रूप में भी अपनी भूमिका को बखूबी निभाया।

25 दिसंबर 1924 को अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी के पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी एक शिक्षक थे, इसी कारण अटल बिहारी वाजपेयी का साहित्य के प्रति एक गहरा जुड़ाव था। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ग्वालियर के दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज से स्नातक और फिर कानपुर विश्वविद्यालय से LLB की उपाधि प्राप्त की।

अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविताओं जैसे “गीत नया गाता हूँ”, “आओ फिर से दिया जलाएँ”, “मौत से ठन गई”, “ऊँचाई” इत्यादि ने समाज का सदैव मार्गदर्शन किया है। भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी ने साहित्य के क्षेत्र में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया, राष्ट्रहित सर्वोपरि के उद्देश्य से अपना सारा जीवन लगा देने वाले वाजपेयी जी का निधन 16 अगस्त 2018 को दिल्ली में हुआ था।

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अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविता – Atal Bihari Vajpayee ki Kavita

अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविता (Atal Bihari Vajpayee ki Kavita) कुछ इस प्रकार हैं, जो सदैव आपका मार्गदर्शन करेंगी;

गीत नया गाता हूँ

Atal Bihari Vajpayee ki Kavita (अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं) आपको परिचय साहस से करवाएंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक “गीत नया गाता हूँ” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर 
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर 
झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात 
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ 
गीत नया गाता हूँ 
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी 
अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी 
हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा 
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ 
गीत नया गाता हूँ

-अटल बिहारी वाजपेयी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी युवाओं को समस्याओं के विरुद्ध स्वयं को प्रेरित करने का संदेश देते हैं। इस कविता के माध्यम से अटल जी हर प्रकार की नकारात्मकताओं का नाश करने के साथ-साथ, स्वयं को प्रेरित करने का काम करता है। यह कविता हमें सकारात्मकता के साथ जीवनयापन करने का संदेश देती है।

आओ फिर से दिया जलाएँ

Atal Bihari Vajpayee ki Kavita (अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं) आपको प्रेरित करने का काम करेगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “आओ फिर से दिया जलाएँ” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

भरी दुपहरी में अँधियारा 
सूरज परछाईं से हारा 
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएँ 
आओ फिर से दिया जलाएँ 

हम पड़ाव को समझे मंज़िल 
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल 
वतर्मान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएँ 
आओ फिर से दिया जलाएँ 

आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा 
अपनों के विघ्नों ने घेरा 
अंतिम जय का वज्र बनाने नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ 
आओ फिर से दिया जलाएँ

अटल बिहारी वाजपेयी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से कवि अटल बिहारी वाजपेयी जी निराशा से जन्मे अंतर्मन के तमस को मिटाने के लिए, आशाओं की भावना के साथ विश्वास का दीपक जलाने का संदेश देती है। यह कविता आपको प्रेरणा से भरने का प्रयास करती है, जीवन में मिली असफलताओं का सामना करने के  लिए यह कविता हमें सक्षम बनाती है।

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मौत से ठन गई

Atal Bihari Vajpayee ki Kavita आपको प्रेरणा से भर देंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं की श्रेणी में से एक रचना “मौत से ठन गई” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

ठन गई! 
मौत से ठन गई! 
जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था 
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई 
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 
ज़िंदगी-सिलसिला, आज-कल की नहीं 

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा 

मौत से बेख़बर, ज़िंदगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर 
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी है कोई गिला 
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, 
आँधियों में जलाए हैं बुझते दिए 

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है 
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई, 
मौत से ठन गई।

-अटल बिहारी वाजपेयी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी जीवन का अटल सत्य “मृत्यु” के बारे में एक सवाल उठाते हैं, सवाल ऐसा जो जीवन की वास्तविकता से आपका परिचय करवाता है। कविता में कवि किसी से कोई शिकायत या शिकवा नहीं करते हैं, कविता में कवि साहस के साथ चुनौतियों से निपटने के लिए समाज को प्रेरित करते हैं।

ऊँचाई

Atal Bihari Vajpayee ki Kavita आपको साहित्य के सौंदर्य से परिचित करवाएंगी, साथ ही आपको प्रेरित करेंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुप्रसिद्ध रचनाओं में से एक रचना “ऊँचाई” भी है, यह कुछ इस प्रकार है:

ऊँचे पहाड़ पर, 
पेड़ नहीं लगते, 
पौधे नहीं उगते, 
न घास ही जमती है। 
जमती है सिर्फ़ बर्फ़, 
जो कफ़न की तरह सफ़ेद 
और मौत की तरह ठंडी होती है 
खेलती, खिलखिलाती नदी, 
जिसका रूप धारण कर, 
अपने भाग्य पर बूँद-बूँद रोती है।

ऐसी ऊँचाई, 
जिसका परस, 
पानी को पत्थर कर दे, 
ऐसी ऊँचाई 
जिसका दरस हीन भाव भर दे, 
अभिनंदन की अधिकारी है, 
आरोहियों के लिए आमंत्रण है, 
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, 
किंतु कोई गौरैया, 
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, 
न कोई थका-माँदा बटोही, 
उसकी छाँव में पल भर पलक ही झपका सकता है। 

सच्चाई यह है कि 
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, 
सबसे अलग-थलग, 
परिवेश से पृथक, 
अपनों से कटा-बँटा, 
शून्य में अकेला खड़ा होना, 
पहाड़ की महानता नहीं, 
मजबूरी है। 
ऊँचाई और गहराई में 
आकाश-पाताल की दूरी है। 

जो जितना ऊँचा, 
उतना एकाकी होता है, 
हर भार को स्वयं ढोता है, 
चेहरे पर मुस्कानें चिपका, 
मन ही मन रोता है। 
ज़रूरी यह है कि 
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, 
जिससे मनुष्य, 
ठूँठ-सा खड़ा न रहे, 
औरों से घुले-मिले, 
किसी को साथ ले, 
किसी के संग चले। 

भीड़ में खो जाना, 
यादों में डूब जाना, 
स्वयं को भूल जाना, 
अस्तित्व को अर्थ, 
जीवन को सुगंध देता है। 

धरती को बौनों की नहीं, 
ऊँचे क़द के इंसानों की ज़रूरत है। 

इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, 
नए नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें, 
किंतु इतने ऊँचे भी नहीं, 
कि पाँव तले दूब ही न जमे, 
कोई काँटा न चुभे, 
कोई कली न खिले। 

न वसंत हो, न पतझड़, 
हो सिर्फ़ ऊँचाई का अंधड़, 
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। 

मेरे प्रभु! 
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, 
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, 
इतनी रुखाई कभी मत देना।

-अटल बिहारी वाजपेयी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी जीवन के वास्तविक अर्थ को सहजता से समझाते हैं। कविता हमें बताती है कि हम चाहे जितना भी यह कह लें कि ज़िंदगी में हम ऊंचाई पर हैं अथवा हमनें कुछ कमाया, वास्तविकता में हमने कुछ नहीं किया। कविता का उद्देश्य ईश्वर से प्रार्थना करना है कि हमें जीवन में इतनी भी ऊंचाई न मिले कि हम समाज के दुखों को महसूस न कर पाएं।

दूर कहीं कोई रोता है

Atal Bihari Vajpayee ki Kavita आपको प्रेरित करेंगी, साथ ही आपका परिचय अटल सत्य से करवाएंगी। अटल बिहारी वाजपेयी जी की महान रचनाओं में से एक रचना “दूर कहीं कोई रोता है” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

तन पर पहरा, भटक रहा मन, 
साथी है केवल सूनापन, 
बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का, 
क्रंदन सदा करुण होता है। 

जन्म दिवस पर हम इठलाते, 
क्यों न मरण-त्यौहार मनाते, 
अंतिम यात्रा के अवसर पर, 
आँसू का अशकुन होता है। 

अंतर रोएँ, आँख न रोएँ, 
धुल जाएँगे स्वप्न सँजोए, 
छलना भरे विश्व में, 
केवल सपना ही सच होता है। 

इस जीवन से मृत्यु भली है, 
आतंकित जब गली-गली है, 
मैं भी रोता आस-पास जब, 
कोई कहीं नहीं होता है। 
दूर कहीं कोई रोता है।

-अटल बिहारी वाजपेयी

भावार्थ : इस कविता के माध्यम से अटल बिहारी वाजपेयी जी ने अंतर्मन की पीड़ाओं को शब्दों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया है। यह कविता निराश मन की भावनाओं को शब्दों से उकेरने का काम करती है। एकांत के सन्नाटे से जन्मी पीड़ाओं को, टूटे हुए सपनों की पीड़ाओं को इस कविता के माध्यम से दर्शाने का काम किया गया है।

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अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं

अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं समाज के हर पहलू पर बेबाकी से अपनी राय रखती है, ये कुछ इस प्रकार है;

क़दम मिला कर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

-अटल बिहारी वाजपेयी

मैं न चुप हूँ न गाता हूँ

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पाँव
ओझल गाँव
जड़ता है न गतिमयता

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

समय की सदर साँसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,

बिखरे नीड़,
विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ।
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

-अटल बिहारी वाजपेयी

कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है।
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है।
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है।
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है।
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है

-अटल बिहारी वाजपेयी

दूध में दरार पड़ गई

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

-अटल बिहारी वाजपेयी

पुनः चमकेगा दिनकर

आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;
कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर।

-अटल बिहारी वाजपेयी

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