कविताएं समाज का आईना होती हैं, कविताओं को ही समाज की प्रेरणा माना जाता है। जब-जब मातृभूमि, संस्कृति और माटी पर संकट का समय आता है, या जब-जब सभ्य समाज कहीं नींद गहरी सो जाता है। तब-तब कविताएं समाज की सोई चेतना को जगाती हैं, तब-तब कविताएं मानव को साहस से लड़ना सिखाती हैं। हर दौर में-हर देश में अनेकों महान कवि हुए हैं, जिन्होंने मानव को सदैव सद्मार्ग दिखाया है। उन्हीं में से एक मिर्ज़ा ग़ालिब भी हैं, जिनकी लिखी कविता आज तक भारत के युवाओं को प्रेरित कर रहीं हैं। Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब की कविताएं पढ़ पाएंगे, जिसके लिए आपको ब्लॉग को अंत तक पढ़ना पड़ेगा।
This Blog Includes:
- मिर्ज़ा ग़ालिब कौन हैं?
- दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
- आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
- आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
- आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
- आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
- दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
- कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
- कब वो सुनता है कहानी मेरी
- मिर्ज़ा ग़ालिब की रुबाइयां
मिर्ज़ा ग़ालिब कौन हैं?
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसम्बर 1797 को आज के उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। पेशे से उर्दू, फारसी शायर ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खान था। मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और फारसी भाषा के के महान शायर और गायक थे, उन्हें उर्दू भाषा में आज तक का सबसे महान शायर माना जाता हैं। फारसी शब्दों का हिंदी में जुड़ाव का श्रेय भी ग़ालिब को ही दिया जाता है।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब के चरित्र को जान सकते हैं, जिसमें उनकी लिखी कविता में “दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है” है। यह एक ऐसी कविता है, जो एक शायर द्वारा दिल से किये गए सवालों को दर्शाती है।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार या इलाही ये माजरा क्या है मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है हाँ भला कर तिरा भला होगा और दरवेश की सदा क्या है जान तुम पर निसार करता हूँ मैं नहीं जानता दुआ क्या है मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब' मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
–मिर्ज़ा ग़ालिब
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आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा रचित कविता “आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक” को पढ़ सकते हैं, जिसके शब्द आपको शायरी को नजदीक से जानने का मौका देंगे।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की ता'लीम मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होते तक ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते तक
–मिर्ज़ा ग़ालिब
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा रचित कविता “आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए” को पढ़ सकते हैं, जिसका उद्देश्य खुद में छिपी खामियों को देखना है।
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था क़ासिद को अपने हाथ से गर्दन न मारिए उस की ख़ता नहीं है ये मेरा क़ुसूर था ज़ोफ़-ए-जुनूँ को वक़्त-ए-तपिश दर भी दूर था इक घर में मुख़्तसर सा बयाबाँ ज़रूर था ऐ वाए-ग़फ़लत-ए-निगह-ए-शौक़ वर्ना याँ हर पारा संग लख़्त-ए-दिल-ए-कोह-ए-तूर था दर्स-ए-तपिश है बर्क़ को अब जिस के नाम से वो दिल है ये कि जिस का तख़ल्लुस सुबूर था हर रंग में जला 'असद'-ए-फ़ित्ना-इन्तिज़ार परवाना-ए-तजल्ली-ए-शम-ए-ज़ुहूर था शायद कि मर गया तिरे रुख़्सार देख कर पैमाना रात माह का लबरेज़-ए-नूर था जन्नत है तेरी तेग़ के कुश्तों की मुंतज़िर जौहर सवाद-ए-जल्वा-ए-मिज़्गान-ए-हूर था
–मिर्ज़ा ग़ालिब
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा रचित कविता “आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे” को पढ़ सकते हैं, जो आपको आपसे मिलवाने का काम करेगी।
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे 'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइ'ज़ बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे है इंतिज़ार से शरर आबाद रुस्तख़ेज़ मिज़्गान-ए-कोह-कन रग-ए-ख़ारा कहें जिसे किस फ़ुर्सत-ए-विसाल पे है गुल को अंदलीब ज़ख़्म-ए-फ़िराक़ ख़ंदा-ए-बे-जा कहें जिसे
–मिर्ज़ा ग़ालिब
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा रचित कविता “आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त” को पढ़ सकते हैं, जो शायर ने तब की परिस्थिति को ध्यान में रख कर लिखी होगी।
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त दूद-ए-शम'-ए-कुश्ता था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त ऐ दिल-ए-ना-आक़िबत-अंदेश ज़ब्त-ए-शौक़ कर कौन ला सकता है ताब-ए-जल्वा-ए-दीदार-ए-दोस्त ख़ाना-वीराँ-साज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिए सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त इश्क़ में बेदाद-ए-रश्क-ए-ग़ैर ने मारा मुझे कुश्ता-ए-दुश्मन हूँ आख़िर गरचे था बीमार-ए-दोस्त चश्म-ए-मा रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है दीदा-ए-पुर-ख़ूँ हमारा साग़र-ए-सरशार-ए-दोस्त ग़ैर यूँ करता है मेरी पुर्सिश उस के हिज्र में बे-तकल्लुफ़ दोस्त हो जैसे कोई ग़म-ख़्वार-ए-दोस्त ताकि मैं जानूँ कि है उस की रसाई वाँ तलक मुझ को देता है पयाम-ए-वादा-ए-दीदार-ए-दोस्त जब कि मैं करता हूँ अपना शिकवा-ए-ज़ोफ़-ए-दिमाग़ सर करे है वो हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबर-बार-ए-दोस्त चुपके चुपके मुझ को रोते देख पाता है अगर हँस के करता है बयान-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार-ए-दोस्त मेहरबानी-हा-ए-दुश्मन की शिकायत कीजिए ता बयाँ कीजे सिपास-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-दोस्त ये ग़ज़ल अपनी मुझे जी से पसंद आती है आप है रदीफ़-ए-शेर में 'ग़ालिब' ज़ि-बस तकरार-ए-दोस्त चश्म-ए-बंद-ए-ख़ल्क़ जुज़ तिमसाल-ए-ख़ुद-बीनी नहीं आइना है क़ालिब-ए-ख़िश्त-ए-दर-ओ-दीवार-ए-दोस्त बर्क़-ए-ख़िर्मन-ज़ार गौहर है निगाह-ए-तेज़ याँ अश्क हो जाते हैं ख़ुश्क अज़-गरमी-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त है सवा नेज़े पे उस के क़ामत-ए-नौ-ख़ेज़ से आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर है गुल-ए-दस्तार-ए-दोस्त ऐ अदू-ए-मस्लहत चंद ब-ज़ब्त अफ़्सुर्दा रह करदनी है जम्अ' ताब-ए-शोख़ी-ए-दीदार-ए-दोस्त लग़्ज़िश-ए-मस्ताना ओ जोश-ए-तमाशा है 'असद' आतिश-ए-मय से बहार-ए-गरमी-ए-बाज़ार-ए-दोस्त
–मिर्ज़ा ग़ालिब
दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
Mirza Ghalib Poems in Hindi के माध्यम से आप मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा रचित कविता “दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ” को पढ़ सकते हैं, जो शायर ने तकलीफों का प्याला पी कर लिखी है।
दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ जमा करते हो कयों रकीबों को ? इक तमाशा हुआ गिला न हुआ हम कहां किस्मत आज़माने जाएं तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ कितने शरीं हैं तेरे लब कि रकीब गालियां खा के बे मज़ा न हुआ है ख़बर गरम उनके आने की आज ही घर में बोरीया न हुआ क्या वो नमरूद की ख़ुदायी थी बन्दगी में मेरा भला न हुआ जान दी, दी हुयी उसी की थी हक तो यह है कि हक अदा न हुआ ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा काम गर रुक गया रवां न हुआ रहज़नी है कि दिल-सितानी है ले के दिल, दिलसितां रवाना हुआ कुछ तो पढ़ीये कि लोग कहते हैं आज 'ग़ालिब' ग़ज़लसरा न हुआ
–मिर्ज़ा ग़ालिब
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से जफ़ायें करके अपनी याद शरमा जाये है मुझ से ख़ुदाया ज़ज़बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है कि जितना खैंचता हूं और खिंचता जाये है मुझ से वो बद-ख़ू और मेरी दासतान-ए-इशक तूलानी इबारत मुख़तसर कासिद भी घबरा जाये है मुझ से उधर वो बदगुमानी है इधर ये नातवानी है ना पूछा जाये है उससे न बोला जाये है मुझ से संभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी क्या क्यामत है कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से तकल्लुफ़ बर-तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन वो देखा जाये कब ये ज़ुलम देखा जाये है मुझ से हुए हैं पांव ही पहले नवरद-ए-इशक में ज़ख़्मी न भागा जाये है मुझसे न ठहरा जाये है मुझ से कयामत है कि होवे मुद्दयी का हमसफ़र 'ग़ालिब' वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से
–मिर्ज़ा ग़ालिब
कब वो सुनता है कहानी मेरी
कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी ख़लिश-ए-ग़मज़ा-ए-खूंरेज़ न पूछ देख ख़ून्नाबा-फ़िशानी मेरी क्या बयां करके मेरा रोएंगे यार मगर आशुफ़ता-बयानी मेरी हूं ज़-ख़ुद रफ़ता-ए-बैदा-ए-ख़याल भूल जाना है निशानी मेरी मुतकाबिल है मुकाबिल मेरा रुक गया देख रवानी मेरी कद्रे-संगे-सरे-रह रखता हूं सख़त-अरज़ां है गिरानी मेरी गरद-बाद-ए-रहे-बेताबी हूं सरसरे-शौक है बानी मेरी दहन उसका जो न मालूम हुआ खुल गयी हेच मदानी मेरी कर दिया ज़ोफ़ ने आज़िज़ 'ग़ालिब' नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी
–मिर्ज़ा ग़ालिब
मिर्ज़ा ग़ालिब की रुबाइयां
1.आतिशबाज़ी है जैसे शग़ले-अतफ़ाल है सोज़े-ज़िगर का भी इसी तौर का हाल था मूजीदे-इशक भी क्यामत कोई लड़कों के लिए गया है क्या खेल निकाल 2.दिल था की जो जाने दर्द तमहीद सही बेताबी-रशक व हसरते-दीद सही हम और फ़सुरदन, ऐ तज़लली! अफ़सोस तकरार रवा नहीं तो तजदीद सही 3. है ख़लक हसद कमाश लड़ने के लिए वहशत-कदा-ए-तलाश लड़ने के लिए यानी हर बार सूरते-कागज़े-बाद मिलते हैं ये बदमाश लड़ने के लिए 4. दिल सख़त निज़नद हो गया है गोया उससे गिलामन्द हो गया है गोया पर यार के आगे बोल सकते ही नहीं ''ग़ालिब'' मुंह बन्द हो गया है गोया 5. दुक्ख जी के पसन्द हो गया है ''ग़ालिब'' दिल रुककर बन्द हो गया है ''ग़ालिब'' वल्लाह कि शब को नींद आती ही नहीं सोना सौगन्द हो गया है ''ग़ालिब''
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