Majrooh Sultanpuri Shayari : मजरूह सुल्तानपुरी के चुनिंदा शेर, शायरी और ग़ज़ल

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Majrooh Sultanpuri Shayari

मजरूह सुल्तानपुरी हिंदी सिनेमा के सबसे प्रसिद्ध गीतकारों में से एक थे, जिन्होंने 20वीं सदी में एक महान गीतकार होने के साथ-साथ एक प्रगतिशील विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी अपनी एक अमिट पहचान बनाई। मजरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे गीतकार रहे जिन्होंने अपने गीतों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को उठाकर समाज में जागरूकता लाने का काम किया। मजरूह सुल्तानपुरी की रचनाएं विभिन्न शैलियों में सरल भाषा और गहरे भाव का एक बेहतरीन तालमेल थी। मजरूह सुल्तानपुरी के शेर, शायरी और ग़ज़लें विद्यार्थी जीवन में मिलने वाली असफलताओं से निराश हुए बिना उनका डटकर सामना करने के लिए, विद्यार्थियों को प्रेरित करेंगी। इस ब्लॉग के माध्यम से आप चुनिंदा Majrooh Sultanpuri Shayari पढ़ पाएंगे, जो आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने का सफल प्रयास करेंगी।

मजरूह सुल्तानपुरी का जीवन परिचय

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर शहर में हुआ था। मजरूह सुल्तानपुरी का पूरा और असली नाम इसरार हसन ख़ान था। उनके पिता मुहम्मद हसन ख़ान पुलिस में मुलाज़िम थे और मजरूह उनकी इकलौती संतान थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा मदरसे से हुई, जिसके बाद वर्ष 1933 में उन्होंने लखनऊ के तिब्ब्या कॉलेज में दाख़िला लेकर हकीम की सनद हासिल की।

यूँ तो मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने करियर में कई बेहतरीन गीतों की रचना की लेकिन “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या होगा”, “होठों पे ऐसी बात है”, “चौंक गए नज़रें”, “मेरे महबूब कयामत होगी”, “ऐ मेरे वतन के लोगों” आदि उनके कुछ प्रसिद्ध गीत थे। इन सभी गीतों ने मजरूह सुल्तानपुरी की एक अमिट पहचान बनाई।

मजरूह सुल्तानपुरी को वर्ष 1973 में पद्म भूषण, वर्ष 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 1997 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने गीतों के माध्यम से कई सामाजिक विषयों पर अपनी बेबाक राय रखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी का 24 मई 2000 को महाराष्ट्र के मुंबई में निधन हुआ था।

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मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी – Majrooh Sultanpuri Shayari

मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी पढ़कर युवाओं में साहित्य को लेकर एक समझ पैदा होगी, जो उन्हें उर्दू साहित्य की खूबसूरती से रूबरू कराएगी, जो इस प्रकार है:

"मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया..."

 -मजरूह सुल्तानपुरी

"कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा 
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा..."

 -मजरूह सुल्तानपुरी

"देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार 
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख..."

 -मजरूह सुल्तानपुरी

"शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई 
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया..."

 -मजरूह सुल्तानपुरी

"जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए 
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की..."

 -मजरूह सुल्तानपुरी

“बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना 
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह' 
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर 
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़ 
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह' 
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

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मोहब्बत पर मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी

मोहब्बत पर मजरूह सुल्तानपुरी की शायरियाँ जो आपका मन मोह लेंगी, जो इस प्रकार हैं:

“ऐसे हँस हँस के न देखा करो सब की जानिब 
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना 
थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए 
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“तेरी महफ़िल से जो निकला तो ये मंज़र देखा 
मुझे लोगों ने बुलाया मुझे छू कर देखा…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह 
बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम 
उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए 
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

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मजरूह सुल्तानपुरी के शेर

मजरूह सुल्तानपुरी के शेर पढ़कर युवाओं को मजरूह सुल्तानपुरी की लेखनी से प्रेरणा मिलेगी। मजरूह सुल्तानपुरी के शेर युवाओं के भीतर सकारात्मकता का संचार करेंगे, जो कुछ इस प्रकार हैं:

“बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना 
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“दिल की तमन्ना थी मस्ती में मंज़िल से भी दूर निकलते 
अपना भी कोई साथी होता हम भी बहकते चलते चलते…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह' 
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है 
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“'मजरूह' क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है 
रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात 
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम 
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“कुछ बता तू ही नशेमन का पता 
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह 
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“वो आ रहे हैं सँभल सँभल कर नज़ारा बे-ख़ुद फ़ज़ा जवाँ है 
झुकी झुकी हैं नशीली आँखें रुका रुका दौर-ए-आसमाँ है…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

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मजरूह सुल्तानपुरी की दर्द भरी शायरी

मजरूह सुल्तानपुरी की दर्द भरी शायरियाँ कुछ इस प्रकार हैं:

“हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा 
चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी 
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल 
ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“मेरे ही संग-ओ-ख़िश्त से तामीर-ए-बाम-ओ-दर 
मेरे ही घर को शहर में शामिल कहा न जाए…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“पारा-ए-दिल है वतन की सरज़मीं मुश्किल ये है 
शहर को वीरान या इस दिल को वीराना कहें …”

-मजरूह सुल्तानपुरी

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मजरूह सुल्तानपुरी मोटिवेशनल शायरी

हौंसलें बढ़ाने का काम करने वाली मजरूह सुल्तानपुरी की मोटिवेशनल शायरी कुछ इस प्रकार है:

“सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ 
अपनी कुलाह कज है उसी बाँकपन के साथ…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले 
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“सैर-ए-साहिल कर चुके ऐ मौज-ए-साहिल सर न मार 
तुझ से क्या बहलेंगे तूफ़ानों के बहलाए हुए…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने 
कहता है मगर ये अज़्म-ए-जुनूँ सहरा से गुलिस्ताँ दूर नहीं…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते 
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

“मैं कि एक मेहनत-कश मैं कि तीरगी-दुश्मन 
सुब्ह-ए-नौ इबारत है मेरे मुस्कुराने से…”

-मजरूह सुल्तानपुरी

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मजरूह सुल्तानपुरी की गजलें

मजरूह सुल्तानपुरी की गजलें आज भी प्रासंगिक बनकर बेबाकी से अपना रुख रखती हैं, जो नीचे दी गई हैं-

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा

कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा 
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा 
शाम तन्हाई की है आएगी मंज़िल कैसे 
जो मुझे राह दिखा दे वही तारा न रहा 
ऐ नज़ारो न हँसो मिल न सकूँगा तुम से 
तुम मिरे हो न सके मैं भी तुम्हारा न रहा 
क्या बताऊँ मैं कहाँ यूँही चला जाता हूँ 
जो मुझे फिर से बुला ले वो इशारा न रहा

-मजरूह सुल्तानपुरी

जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले

जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले 
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले 
दयार-ए-शाम नहीं मंज़िल-ए-सहर भी नहीं 
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले 
हमारे लब न सही वो दहान-ए-ज़ख़्म सही 
वहीं पहुँचती है यारो कहीं से बात चले 
सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़ 
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले 
हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक 
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले 
बचा के लाए हम ऐ यार फिर भी नक़्द-ए-वफ़ा 
अगरचे लुटते रहे रहज़नों के हाथ चले 
फिर आई फ़स्ल कि मानिंद बर्ग-ए-आवारा 
हमारे नाम गुलों के मुरासलात चले 
क़तार-ए-शीशा है या कारवान-ए-हम-सफ़राँ 
ख़िराम-ए-जाम है या जैसे काएनात चले 
भुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ 'मजरूह' 
बग़ल में हम भी लिए इक सनम का हाथ चले

-मजरूह सुल्तानपुरी

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा तिरे सामने मिरा हाल है

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा तिरे सामने मिरा हाल है 
तिरी इक निगाह की बात है मिरी ज़िंदगी का सवाल है 
मिरी हर ख़ुशी तिरे दम से है मिरी ज़िंदगी तिरे ग़म से है 
तिरे दर्द से रहे बे-ख़बर मिरे दिल की कब ये मजाल है 
तिरे हुस्न पर है मिरी नज़र मुझे सुब्ह शाम की क्या ख़बर 
मिरी शाम है तिरी जुस्तुजू मेरी सुब्ह तेरा ख़याल है 
मिरे दिल जिगर में समा भी जा रहे क्यों नज़र का भी फ़ासला 
कि तिरे बग़ैर तो जान-ए-जाँ मुझे ज़िंदगी भी मुहाल है

-मजरूह सुल्तानपुरी

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