Judicial Review in Hindi: न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से न्यायालय द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि सरकार द्वारा बनाए गए कानून और नीतियाँ संविधान के अनुरूप हैं या नहीं। इसे एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक तंत्र माना जाता है, जो न्यायपालिका को यह अधिकार देता है कि वह कार्यपालिका और विधायिका द्वारा किए गए निर्णयों की वैधता की जांच कर सके।
बता दें कि UPSC परीक्षा में न्यायिक समीक्षा से संबंधित कई प्रश्न पूछे जाते हैं। इस ब्लॉग में कैंडिडेट्स के लिए न्यायिक समीक्षा (Judicial Review UPSC in Hindi) की संपूर्ण जानकारी दी गई है, इसलिए ब्लॉग को अंत तक जरूर पढ़ें।
This Blog Includes:
- न्यायिक समीक्षा क्या है?
- न्यायिक समीक्षा के प्रकार
- न्यायिक समीक्षा का महत्व
- न्यायिक समीक्षा की विशेषताएं
- भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा की उत्पत्ति
- न्यायिक समीक्षा का दायरा
- न्यायिक समीक्षा की सीमाएं
- न्यायिक समीक्षा और विधायिका के बीच संबंध
- न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका के बीच संबंध
- भारत में न्यायिक समीक्षा से जुड़े प्रमुख मामले
- UPSC के लिए न्यायिक समीक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु
- FAQs
न्यायिक समीक्षा क्या है?
न्यायिक समीक्षा विधायी अधिनियमों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करने हेतु न्यायपालिका की शक्ति है जो केंद्र एवं राज्य सरकारों पर लागू होती है। ध्यान दें कि न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) उस प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसके तहत न्यायपालिका द्वारा सरकारी कृत्यों और कानूनों की वैधता की जाँच की जा सकती है। इसमें न्यायालय यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई कानून या सरकारी निर्णय संविधान के अनुरूप है या नहीं। इसमें यदि कोई कृत्य संविधान के विपरीत पाया जाता है, तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
न्यायिक समीक्षा के प्रकार
न्यायिक समीक्षा के निम्नलिखित प्रकार होते हैं, जिनके बारे में विस्तृत जानकारी यहाँ दी गई है:-
- विधायी कार्यों की समीक्षा
- प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा
- न्यायिक निर्णयों की समीक्षा
विधायी कार्यों की समीक्षा
विधायी कार्यों की समीक्षा के अंतर्गत उन कानूनों और नीतियों की जांच की जाती हैं, जो संसद या राज्य विधानसभा द्वारा पारित किए गए हों। यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि बनाए गए कानून और नीतियाँ समाज के सभी वर्गों के लिए फायदेमंद हों और किसी भी प्रकार की असमानता या गलत कार्यप्रणाली को रोका जा सके।
प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा
प्रशासनिक कार्रवाई की समीक्षा का उद्देश्य प्रशासनिक निर्णयों की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना होता है। इस प्रक्रिया के अनुसार यह निर्धारित किया जाता है कि क्या प्रशासनिक कार्रवाई कानूनी, नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से उचित है। इसके साथ ही इससे यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णयों का नागरिकों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े और कोई भी असमानता या भ्रष्टाचार न हो।
न्यायिक निर्णयों की समीक्षा
न्यायिक निर्णयों की समीक्षा (Judicial Review) एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रक्रिया है, जिसमें उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी न्यायिक निर्णय की वैधता और उचितता की जांच करते हैं। बता दें कि यह प्रक्रिया संविधान द्वारा निर्धारित अधिकारों और मूल्यों के अनुरूप होती है, ताकि न्यायपालिका सुनिश्चित कर सके कि सरकार या अन्य सरकारी संस्थाएं संविधान का उल्लंघन नहीं कर रही हैं। इसका उद्देश्य न्याय व्यवस्था को सुनिश्चित करना और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना होता है।
न्यायिक समीक्षा का महत्व
न्यायिक समीक्षा के महत्व को नीचे दिए गए बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:-
- यह प्रक्रिया कानूनी अधिकारों की रक्षा करती है।
- इसके तहत समाज में संविधानिक संतुलन बनाया जा सकता है।
- इस प्रक्रिया में न्यायिक पारदर्शिता रहती है।
- न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की स्वतंत्रता और प्रभावशीलता को भी बढ़ाती है।
यह भी पढ़ें – न्यायिक सक्रियता की परिभाषा
न्यायिक समीक्षा की विशेषताएं
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review in Hindi) की विशेषताएं इस प्रकार हैं:-
- न्यायिक समीक्षा संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा करती है।
- इसके तहत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा को बढ़ावा मिलता है।
- न्यायिक समीक्षा के माध्यम से ही न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है।
- यह कानूनी प्रक्रिया न्यायपालिका की सक्रियता को दर्शाती है।
- इस प्रक्रिया का प्रयोग मुख्य रूप से संविधानिक मामलों में किया जाता है, जहाँ देखा जाता है कि कोई विशेष कानून या सरकारी कार्य संविधान के अनुरूप है या नहीं।
- यह सरकार और उसके अंगों की पारदर्शिता और जिम्मेदारी को सुनिश्चित करती है।
- इससे न्यायपालिकाओं को स्वतंत्रता मिलती है, जिससे वह बिना किसी दबाव के संविधान और कानून के अनुरूप निर्णय लेने में सक्षम हो पाती हैं।
- इसके साथ ही यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुरक्षा में भी अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा की उत्पत्ति
भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा की अवधारणा अमेरिकी संविधान से प्रेरित है, जहाँ भारत की ही तरह अमेरिकी संविधान में भी न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका की कार्रवाई पर नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त है। भारत में, यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 13, 32, और 226 के माध्यम से प्राप्त होता है।
बता दें कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान करता है, इसके साथ ही इसका वर्णन मौलिक अधिकारों में भी एक महत्वपूर्ण अधिकार के रूप देखने को मिल जाता है। दूसरे शब्दों से समझा जाए तो भारत संघ या राज्य द्वारा यदि ऐसा कोई नियम बनाया जाता है, जो लोगों के आवश्यक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो इसे असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार उच्च न्यायालयों और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पास होता है।
न्यायिक समीक्षा को सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारतीय संविधान की मूल विशेषता के रूप में घोषित किया गया है। इसके लिए इसे विभिन्न श्रेणियों जैसे – संवैधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा, कानून की न्यायिक समीक्षा और प्रशासनिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा में शामिल किया गया है।
न्यायिक समीक्षा का दायरा
न्यायिक समीक्षा का दायरा (Judicial Review in Hindi) इस प्रकार है:-
- न्यायालय संविधान के अनुसार किसी भी कानून या सरकारी निर्णय की वैधता की जांच कर सकता है।
- इसमें प्रशासनिक निर्णयों जैसे कि सरकारी आदेश या नीतियों की भी समीक्षा की जा सकती है।
- इसके तहत ही सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर किसी भी विधायी या कार्यकारी आदेश की संवैधानिकता को चुनौती दी जा सकती है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में भारत में न्यायिक समीक्षा का दायरा बेहद संकीर्ण है क्योंकि भारत सही मायनों में संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के सिद्धांत का पालन करता है।
न्यायिक समीक्षा की सीमाएं
न्यायिक समीक्षा की सीमाएं (Judicial Review in Hindi) इस प्रकार है:-
- न्यायालय संविधान में किए गए संशोधनों की समीक्षा नहीं कर सकता, जब तक कि वह संशोधन संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) के खिलाफ न हो। आसान भाषा में समझें तो न्यायिक समीक्षा का दायरा उपलब्धता और कार्य दोनों के संदर्भ में सीमित है।
- न्यायालय राजनीति से जुड़े मामलों जैसे कि चुनावी प्रक्रिया या सरकार की नीति में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
- न्यायालय के पास केवल संविधान और कानून के तहत दायित्व होता है, यानि कि इनके द्वारा किसी भी मामले में अपनी इच्छानुसार निर्णय नहीं लिया जा सकता।
- भारत में न्यायिक समीक्षा ने ही न्यायिक सक्रियता और न्यायिक आत्म-संयम के बीच की रेखा कहाँ खींची जानी चाहिए पर एक बड़ी बहस छेड़ने में मुख्य भूमिका निभाई है।
न्यायिक समीक्षा और विधायिका के बीच संबंध
भारत के संवैधानिक ढांचे का एक महत्वपूर्ण पहलू न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) और विधायिका (Legislature) के बीच का संबंध है। यह संबंध संविधान में शक्ति के संतुलन और संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के माध्यम से लोकतंत्र को सुदृढ़ करता है। न्यायिक समीक्षा के माध्यम से न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि विधायिका और कार्यपालिका संविधान के अनुरूप कार्य करें। विधायिका का मुख्य कार्य कानून बनाना और जनता के लिए नीतियों को लागू करना होता है, जो कि जनता द्वारा चुनी गई संस्था है और इसे ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का प्रतिनिधि माना जाता है।
न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका के बीच संबंध
न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका के बीच का यह संबंध भारत के संवैधानिक ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह संविधान में शक्ति के विभाजन के सिद्धांत पर आधारित है, जो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है। न्यायिक समीक्षा का उद्देश्य संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखना और कार्यपालिका के कार्यों को संविधान के अनुरूप सुनिश्चित करना है।
भारत में न्यायिक समीक्षा से जुड़े प्रमुख मामले
यहाँ भारत में न्यायिक समीक्षा (Judicial Review in Hindi) से जुड़े प्रमुख मामलों की जानकारी दी गई है:-
- शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (Shankari Prasad vs. Union of India) मामले में वर्ष 1951 के पहले संशोधन अधिनियम को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह ‘संपत्ति के अधिकार‘ को प्रतिबंधित करता है।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (Golaknath vs. State of Punjab) मामले में पहले, चौथे और सत्रहवें तीन संवैधानिक संशोधनों को चुनौती दी गई थी।
- मिनर्वा मिल्स (Minerva Mills case) मामले में बहुमत के फैसले से संविधान की धारा 4 को रद्द कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भाग III और IV समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और एक की दूसरे पर पूर्ण रूप से प्राथमिकता अनुमति नहीं है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (Kesavananda Bharati vs. State of Kerala) के इस मामले में वर्ष 1971 के 24वें और 25वें संशोधन अधिनियमों को चुनौती दी गई थी। मामले की सुनवाई के लिए 13 जजों की बेंच का गठन किया गया था, जिसका फैसला 7:6 के अनुपात के साथ यह निर्धारित किया गया था कि अनुच्छेद 368 (Article 368) संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति देता है। आसान शब्दों में कहें तो यह फैसला कहता था कि संविधान की मूल संरचना को संसद द्वारा नष्ट या संशोधित नहीं किया जा सकता है।
UPSC के लिए न्यायिक समीक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु
UPSC परीक्षा के लिए न्यायिक समीक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं:-
- UPSC परीक्षा में न्यायिक समीक्षा की परिभाषा और इसके महत्व के बारे में प्रश्न पूछे जाते हैं।
- इस परीक्षा में न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया का समर्थन करने वाले संविधान के कुछ विशिष्ट प्रावधान अनुच्छेद जैसे- अनुच्छेद 372 (1), अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226, अनुच्छेद 251 और अनुच्छेद 254, अनुच्छेद 246 (3), अनुच्छेद 245, अनुच्छेद 137, अनुच्छेद 131-136 के बारे में भी पूछा जाता है।
- UPSC परीक्षा में उम्मीदवारों का मौलिक अधिकारों और अनुच्छेदों को समझना जरूरी हो जाता है।
- Judicial Review से संबंधित उदाहरणों के लिए उम्मीदवार केशवानंद भारती, गोलकनाथ, और मिनर्वा मिल्स जैसे ऐतिहासिक मामलों के निर्णयों को समझें।
- न्यायपालिका द्वारा स्थापित “मूल ढांचा सिद्धांत” भी UPSC की परीक्षा में अक्सर पूछ लिया जाता है।
FAQs
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) वह प्रक्रिया है, जिसमें “न्यायालयों द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि विधायिका और कार्यपालिका के कार्य संविधान के अनुरूप हो।
न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता में अंतर को देखा जाए तो ये दोनों अवधारणाएं न्यायपालिका से जुड़ी होती है, लेकिन इन दोनों के उद्देश्य और कार्यशैली अलग-अलग होते हैं। जहाँ एक ओर न्यायिक सक्रियता में न्यायपालिका सक्रिय रूप से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों में हस्तक्षेप करती है। तो वहीं न्यायिक समीक्षा में न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि विधायिका और कार्यपालिका द्वारा बनाए गए कानून या नीतियाँ संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
न्यायिक समीक्षा का मुख्य उद्देश्य संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखना और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है। साथ ही यह विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों पर नियंत्रण रखती है ताकि संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन न हो।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 32, अनुच्छेद 131-136, और अनुच्छेद 226-227 में न्यायिक समीक्षा के प्रावधान दिए गए हैं।
न्यायिक समीक्षा का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में होता है। आसान भाषा में समझें तो यदि कोई कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
न्यायिक समीक्षा के मुख्य रूप से तीन प्रकार (विधायी समीक्षा, प्रशासनिक समीक्षा और न्यायिक समीक्षा) होते हैं।
संसद की विधायी प्रक्रिया का न्यायालय समीक्षा नहीं कर सकता, इसके साथ ही संविधान संशोधन (अनुच्छेद 368) को न्यायिक समीक्षा के तहत सीमित रूप से चुनौती दी जा सकती है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में न्यायिक समीक्षा के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इसके माध्यम से संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure) संरक्षित रहेगा। यह एक ऐसा फैसला था, जिसे भारतीय न्यायिक समीक्षा के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है।
न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र के तीन स्तंभों (विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका) के बीच संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। इसके माध्यम से नागरिकों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि संविधान की सर्वोच्चता हमेशा बनी रहेगी।
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