Sawan Par Kavita: सावन, यह केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भावनाओं का संगम है। जब घने बादल उमड़ते हैं, ठंडी बूँदें धरती को चूमती हैं और मन में अद्भुत उल्लास जगता है, तब हर दिल सावन की मस्ती में डूब जाता है। यह ऋतु प्रेमियों के मिलन का संदेश लाती है, किसानों के सपनों को हरा-भरा करती है और प्रकृति को नवजीवन प्रदान करती है। सावन का महीना केवल वर्षा की बूंदों से भीगा नहीं होता, बल्कि इसमें प्रेम, भक्ति, उमंग और सौंदर्य की अनगिनत कविताएँ भी गूँथी होती हैं। इसलिए, समय-समय पर हिंदी साहित्य में सावन पर अनेकों कविताएँ लिखी गई हैं, जो हमारे जीवन में इस ऋतु के महत्व और इसकी महिमा को दर्शाती हैं। इस लेख में सावन पर कविता (Poem on Sawan in Hindi) दी गई हैं, जो आपके मन को आनंद से भर देंगी और आपको प्रेम, भक्ति, उल्लास और प्राकृतिक सौंदर्य का संदेश देंगी।
सावन पर कविता – Sawan Par Kavita
सावन पर कविता (Sawan Par Kavita) की सूची इस प्रकार है;-
कविता का नाम | कवि का नाम |
सावन में | रामधारी सिंह “दिनकर” |
सावन | सुमित्रानंदन पंत |
सावन ने गढ़े छंद | हरिवंश प्रभात |
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई | गोपालदास “नीरज” |
देखो फिर सावन आया है | कमलेश द्विवेदी |
आ गया सावन | महेन्द्र भटनागर |
सावन का प्रेम पत्र | आनंद गुप्ता |
सावन: एक सुरीला गीत | मयंक विश्नोई |
सावन में
जेठ नहीं, यह जलन हृदय की,
उठकर जरा देख तो ले;
जगती में सावन आया है,
मायाविन! सपने धो ले।
जलना तो था बदा भाग्य में
कविते! बारह मास तुझे;
आज विश्व की हरियाली पी
कुछ तो प्रिये, हरी हो ले।
नन्दन आन बसा मरु में,
घन के आँसू वरदान हुए;
अब तो रोना पाप नहीं,
पावस में सखि! जी भर रो ले।
अपनी बात कहूँ क्या! मेरी
भाग्य-लीक प्रतिकूल हुई;
हरियाली को देख आज फिर
हरे हुए दिल के फोले।
सुन्दरि! ज्ञात किसे, अन्तर का
उच्छल-सिन्धु विशाल बँधा?
कौन जानता तड़प रहे किस
भाँति प्राण मेरे भोले!
सौदा कितना कठिन सुहागिनि!
जो तुझ से गँठ-बन्ध करे;
अंचल पकड़ रहे वह तेरा,
संग-संग वन-वन डोले।
हाँ, सच है, छाया सुरूर तो
मोह और ममता कैसी?
मरना हो तो पिये प्रेम-रस,
जिये अगर बाउर हो ले।
रामधारी सिंह “दिनकर”
साभार – कविताकोश
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सावन
झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम छम छम गिरतीं बूँदें तरुओं से छन के।
चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।
ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,
जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।
आँधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्
दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।
पंखों से रे, फैले फैले ताड़ों के दल,
लंबी लंबी अंगुलियाँ हैं चौड़े करतल।
तड़ तड़ पड़ती धार वारि की उन पर चंचल
टप टप झरतीं कर मुख से जल बूँदें झलमल।
नाच रहे पागल हो ताली दे दे चल दल,
झूम झूम सिर नीम हिलातीं सुख से विह्वल।
हरसिंगार झरते, बेला कलि बढ़ती पल पल
हँसमुख हरियाली में खग कुल गाते मंगल?
दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन
म्याँउ म्याँउ रे मोर, पीउ पिउ चातक के गण!
उड़ते सोन बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन,
घुमड़ घुमड़ घिर मेघ गगन में करते गर्जन।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख गायन।
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन।
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन।
रिमझिम रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर,
रोम सिहर उठते छूते वे भीतर अंतर!
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर,
रज के कण कण में तृण तृण की पुलकावलि भर।
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब मुझे घेर कर गाओ सावन!
इन्द्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन!
सुमित्रानंदन पंत
साभार – कविताकोश
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सावन ने गढ़े छंद
सावन ने गढ़े छंद, वर्षा ने रचे गीत
किसलय की क्यारी से चली गंध मंद-मंद।
जाती हुई लहरों ने कुछ कहा किनारों से
कुछ सुना दरख्तों ने और उठे झूम-झूम
कलियों के भीगे कपोलों को चूम रहे
भंवरों को देख-देख पत्थर भी जी उठे।
हरियाली लौटी है, बूँदें ले मोती की
होने लगे मुस्कानों के नये अनबंध।
रिमझिम ने स्वर साधा, कलम चले बिन बाधा
धरती की छाती पर हल की नोक साज बने
लिखने और दिखने की अंतहीन इच्छाएँ
तनी हुई छतरी है मन करे कि भीग जाएँ,
डूबते गहराई में, ओझल अमराई में
शाश्वत अभिव्यक्ति के इन्द्रधनुषी रंग।
पेड़ों के हाथ-पाँव बाँध कोई झूले
जैसे कोई चित्रकर सपनों को छूले,
प्रकृति के ग्रंथ सभी मौसम ने पढ़ डाले
पुरवा के झोंके हैं सिहरन के शब्द भरे,
परदेशी यादों के, फुहारों के हाथों से
नभ के वातायन में उड़े मन का पतंग।
हरिवंश प्रभात
साभार – कविताकोश
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुजरी?
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई।
ज़िंदगी-भर तो हुई गुफ़्तगू गैरों से मगर,
आज तक हमसे न हमारी मुलाक़ात हुई।
हर गलत मोड़ पे टोका है किसी ने मुझको,
एक आवाज़ जब से तेरी मेरे साथ हुई।
मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है,
एक कातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई।
गोपालदास “नीरज”
साभार – कविताकोश
देखो फिर सावन आया है
रिमझिम-रिमझिम गीत सुनाता
देखो फिर सावन आया है।
इतनी तपन लिए थी धरती
ज्यों सीता कि अग्नि-परीक्षा।
वसुधा का सारा जड़-चेतन
माँग रहा था जल की भिक्षा।
तुलसी-बिरवा आँगन का फिर
धीरे-धीरे हरियाया है।
देखो फिर सावन आया है।
बूँदें खेल रहीं बच्चों सी
छुआ-छुई का खेल निरन्तर।
निर्धन की अभिलाषाओं सा
चूने लगा फूस का छप्पर।
चंदा-सूरज दिखें नहीं अब
जाने किसने भरमाया है।
देखो फिर सावन आया है।
युवा-ह्रदय के भावी सपनों
जैसा बढ़ा नदी का पानी।
कजरारे घन मुझसे कहते-
मेघदूत-सी लिखो कहानी।
नयनों की नदिया में कोई
आँसू बनकर लहराया है।
देखो फिर सावन आया है।
पंख लगाये उड़ता बचपन
ऐसे हैं सावन के झूले।
पीव-पीव रट रहा पपीहा
वो प्रियतम को कैसे भूले।
परदेशी जाने कब आये
बिन देखे मन अकुलाया है।
देखो फिर सावन आया है।
कमलेश द्विवेदी
साभार – कविताकोश
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सावन पर उत्कृष्ट कविताएँ – Poem on Sawan in Hindi
यहाँ सावन पर प्रसिद्ध कविताएं (Poem on Sawan in Hindi) दी गई हैं:-
आ गया सावन
प्रीति के प्रिय गीत गाओ !
आ गया सावन सजीवन,
हैं बरसते प्यार के घन!
दूर खेतों में सरस सुन्दर
मुसकराती तृप्त हरियाली,
डाल पर कलियाँ हँसी चंचल
छलछलाकर रस भरी प्याली,
तुम न जाओ दूर मुझसे
प्राण में आकर समाओ!
वायु शीतल बह रही है,
कान में कुछ कह रही है!
स्वर मिलन-संगीत खग-उपवन,
भू-हृदय में हो रही धड़कन,
सब खिँचे जाते जगत के कण,
मूक मनहर सृष्टि-आकर्षण,
भावना ले द्रोह की तुम
यों विमुख होकर न जाओ!
महेन्द्र भटनागर
साभार – कविताकोश
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सावन का प्रेम पत्र
मानसूनी हवाओं की प्रेम अग्नि से
कतरा-कतरा पिघल रहा है आकाश
सावन वह स्याही है
आकाश जिससे लिखता है
धरती को प्रेम पत्र
मेरे असंख्य पत्र जमा है
तुम्हारी स्मृतियों के पिटारे में
शालिक पंक्षी का एक जोड़ा डाकिया बन
जिसे हर रोज
छत की मुंडेर पर तुम्हे सौंपता है
जिसे पढ़ न लो गर
तुम दिन भर रहती हो उदास
तुम्हारी आँखें निहारती रहती है आकाश
ओ सावन!
तुम इस बार लिख दो न
धरती के सीने पर असंख्य प्रेम पत्र
हर लो
अपने प्रियजनों के चेहरे पर फैली गहरी उदासी
ओ सावन!
कुछ ऐसे बरसो
कि किसी पेड़ से न टंगा मिले कोई किसान।
आनंद गुप्ता
साभार – कविताकोश
सावन: एक सुरीला गीत
“पहली वर्षा से
अंतिम वृष्टि तक
पहली दृष्टि से
मंददृष्टि तक
कण-कण में
यूँ रमा हुआ है, जैसे-
जीवन इसका संगीत
है सावन एक सुरीला गीत
बूँद-बूँद की
हर धुन अच्छी
मेघों के संगम से जन्मी
कोमलता में कंपन सच्ची
घनघोर तमस
फैला आकाश में
वज्रपात हुआ सपने जागे
जग डूबा है अब प्रकाश में
सृष्टि की यह सच्ची रीत
है सावन एक सुरीला गीत
मिट्टी की खुशबू पाकर
नन्हीं-नन्हीं कलियाँ खिलती
पाँव थिरकते किसी मोर के
प्रेम बहाती नदियां मिलती
राहों पर उमड़ा सन्नाटा
यादों ने हर सुख-दुःख बाँटा
नदी किनारे कल्पवास पर
आप्लावित साँसें मिलती
जग को कहकर अपना मीत
है सावन एक सुरीला गीत…”
– मयंक विश्नोई
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