Gupta Dynasty in Hindi: गुप्त वंश की स्थापना भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने देश को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाया। गुप्त वंश की स्थापना ने भारत के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की। गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में कला, साहित्य, विज्ञान और प्रशासनिक व्यवस्था में अभूतपूर्व विकास हुआ। इस वंश के शासकों ने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि कला, साहित्य और विज्ञान को भी बढ़ावा दिया। गुप्त वंश के योगदान को आज भी भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसलिए इस लेख में हम गुप्त वंश की स्थापना, उसके प्रमुख शासकों, प्रशासनिक व्यवस्था और इस वंश के ऐतिहासिक महत्व को विस्तार से समझेंगे।
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गुप्त राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास – Early History of Gupta dynasty in Hindi
गुप्त साम्राज्य की नींव श्रीगुप्त ने चौथी शताब्दी में रखी। उनके उत्तराधिकारी घटोत्कच हुए, लेकिन असली शक्ति चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ईस्वी) के शासन में देखने को मिली। उन्होंने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया, जिससे उनकी राजनीतिक स्थिति और मज़बूत हुई। उनके पुत्र समुद्रगुप्त (335-375 ईस्वी) ने अपने सैन्य अभियानों से पूरे उत्तर भारत को एकजुट कर दिया और दक्षिण भारत में भी अपनी शक्ति का प्रभाव डाला। उनके उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415 ईस्वी) ने कला, संस्कृति और विज्ञान को बढ़ावा दिया और उनके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपनी चरम सीमा पर पहुँचा।
गुप्त वंश की स्थापना श्रीगुप्त (Shri Gupta) ने तीसरी शताब्दी के अंत में की थी। यह एक छोटा साम्राज्य था, लेकिन उनके उत्तराधिकारी इसे एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित करने में सफल रहे। इस वंश ने लगभग 319 ई. से 550 ई. तक भारत पर शासन किया। इस दौरान कला, संस्कृति, विज्ञान और प्रशासन में अद्वितीय उन्नति हुई।
गुप्त राजवंश के इतिहास के साधन
गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्यिक और पुरातत्वीय दोनों ही प्रमाणों से हमें ज्ञात कराता है । साहित्यिक साधनों में पुराण सबसे ऊपर हैं । पुराणों में
- विष्णु,
- वायु
- ब्रह्माण्ड
तीनों को पुराणों में हम गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक मान सकते हैं ।
इनसे हमें गुप्त वंश के प्रारंभिक इतिहास के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त होता है । विशाखदत्त कृत ‘देवीचन्द्रगुप्तम्’ नाटक से गुप्तवंशी नरेश रामगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के विषय में कुछ बारे में सूचना मिलती है । उस समय अधिकांश विद्वान महाकवि कालिदास को गुप्तकालीन विभूति मानते हैं । उनकी ऐसे अनेकानेक रचनाओं से गुप्तयुगीन समाज साथ ही संस्कृति पर सुन्दर तरह का प्रकाश पड़ता है । शूद्रककृत ‘मृच्छकटिक’ और वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ से भी गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था साथ ही नगर जीवन के विषय में रोचक के बारे में सामग्री मिल जाती है । भारतीय साहित्य के अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के बारे में विवरण भी गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक मैं हुआ है । ऐसे प्रकार के यात्रियों में फाहियान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय किया गया है , वह एक चीनी यात्री था । फाहियान गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415 ईस्वी) के शासन काल के समय में भारत आया था।
उसने ही मध्यदेश की प्रजा का वर्णन किया है । सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय के बारे में हमें सूचनायें मिलती हैं । यह पता चलता है कि उसने कुमारगुप्त प्रथम (शक्रादित्य), बुध गुप्त, बालादित्य आदि बहुत सारे गुप्त शासकों का उल्लेख किया है , साथ ही इसके बारे में विवरण से हमें यह पता चलता कि कुमारगुप्त ने ही उस समय नालंदा महाविहार की स्थापना करवाई थी । वह ‘बालादित्य’ को हूण नरेश मिहिरकुल का विजेता बताता है , उसकी पहचान नरसिंह गुप्त बालादित्य से करवाई जाती है । साहित्यिक साक्ष्यों के पुरातत्वीय प्रमाणों से भी हमें गुप्त राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण के बारे में पर्याप्त सहायता मिलती है।
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गुप्त राजवंश के तीन प्रमुख साहित्यिक साक्ष्य
गुप्त राजवंश के तीन प्रमुख साहित्यिक साक्ष्य का वर्गीकरण तीन भागों में किया जा सकता है:
- अभिलेख,
- सिक्के
- स्मारक
अभिलेख – Abhilekh
गुप्तकालीन अभिलेखों में सबसे पहले उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख के बारे में किया जा सकता है । यह एक प्रशस्ति है ,जिससे समुद्रगुप्त के राज्याभिषेक, दिग्विजय यह सब उसके व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश पड़ता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से मीला गुहालेख से उसकी दिग्विजय की के बारे में सूचना प्राप्त होती है । उस समय कुमारगुप्त प्रथम के लेख उत्तरी बंगाल से मिलते हैं जो इस बात का सूचक कराते है कि इस समय तक सम्पूर्ण बंगाल का भाग गुप्तों के अधिकार में आ गया था । स्कन्दगुप्त के भितरी स्तम्भ-लेख से हूण आक्रमण के बारे में यह सूचना मिलती है । Gupta dynasty in Hindi में इसी सम्राट के जूनागढ़ से प्राप्त अभिलेख से हमें इसके बारे में यह पता चलता है कि उसने इतिहास-प्रसिद्ध सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था ।
इसके अलावा और भी अनेक प्रकार के अभिलेख एवं दानपत्र मिले हैं जिनसे हमें यह पता चलता है की गुप्त काल की अनेक महत्वपूर्ण बातों की जानकारी होती है । इन सभी अभिलेखों की भाषा विशुद्ध संस्कृत मैं दी गई है तथा इनमें दी गयी तिथियाँ ‘गुप्त संवत्’ की हैं । इतिहास के साथ साहित्य की दृष्टि से भी गुप्त अभिलेखों का विशेष महत्व होता है । इसे संस्कृत भाषा और साहित्य के पर्याप्त विकसित होने के बारे में प्रमाण मिलता है । हरिषेण द्वारा विरचित प्रयाग प्रशस्ति तो वस्तुतः एक प्रकार का क्षचरित-काव्य ही है ।
सिक्के – Sikke
Gupta dynasty in Hindi के इस ब्लॉग में हमें गुप्तवंशी राजाओं के अनेक प्रकार के सिक्के प्राप्त होते हैं ।
- स्वर्ण,
- रजत
- तांबे
स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार कहा जाता था’, रजत सिक्कों को ‘रुपक’ या रुप्यक कहा जाता था ,तथा ताम्र सिक्कों को ‘माषक’ कहा जाता था । गुप्तकालीन स्वर्ण के सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर हमें राजस्थान प्रान्त के बयाना से प्राप्त हुआ है ।
इससे इस बारे में स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी के साथ विवाह किया था । समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों से उसके अश्वमेध यज्ञ की सूचना हुई थी तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्याघ्र-हनन प्रकार के सिक्कों से उसकी पश्चिमी भारत (शक-प्रदेश) के विजय के बारे में सूचना मिलती है ।
मध्य प्रदेश के एरण और भिलसा से रामगुप्त के कुछ सिक्के मिलते हैं जिनसे हमें यह जानकारी मिलती है कि उसकी ऐतिहासिकता का पुनर्निर्माण करने में सहायता प्राप्त करते हैं । कभी-कभी सिक्कों के अध्ययन से हमें उनके काल के बारे में राजनैतिक तथा आर्थिक दशा का भी ज्ञान प्राप्त भी होता है । जैसे कुमारगुप्त के उत्तराधिकारियों के सिक्कों से पतनोन्मुख आर्थिक दशा के बारे मेंआभास मिलता है । इनमें मिलावट की मात्रा अधिक होता है ।
स्मारक – Smarak
गुप्तकाल के अनेक प्रकार के मन्दिर, स्तम्भ मूर्तियों और चैत्य-गृह (गुहा-मन्दिर) का प्राप्त होते हैं जिनसे तत्कालीन कला तथा स्थापत्य की उत्कृष्टता के बारे में सूचित होती है । इनसे तत्कालीन सम्राटों एवं जनता के धार्मिक विश्वास को समझने में के लिए मदद भी मिलती है ।
मन्दिरों के बारे में विशेष उल्लेखनीय है
- भूमरा का शिव मन्दिर,
- तिगवाँ (जबलपुर) का विष्णु मन्दिर,
- नचना-कुठार (मध्य प्रदेश के भूतपूर्व अजयगढ़ रियासत में वर्तमान) का पार्वती मन्दिर,
- देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मन्दिर,
- भितरगाँव (कानपुर) का मन्दिर
- लाड़खान (ऐहोल के समीप)
ये सभी मन्दिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढ़ता के लिये प्रसिद्ध हुआ करते थे हैं और वास्तुकला के भव्य नमूने हैं । मन्दिरों के अतिरिक्त
- सारनाथ,
- मथुरा,
- सुल्तानगंज,
- करमदण्डा,
- खोह
- , देवगढ़
स्थानों से बुद्ध, शिव, विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं ।
मन्दिर तथा मूर्तियों के साथ ही साथ
- बाघ (ग्वालियर, म. प्र.)
- अजन्ता की कुछ गुफाओं (16वीं एवं 17वीं) के चित्र भी गुप्त काल के ही माने जाते हैं ।
बाघ की गुफाओं के चित्र लौकिक जीवन से सम्बन्धित है और अजन्ता के चित्रों का विषय धार्मिक से संबंधित है। इन चित्रों के माध्यम से गुप्तकालीन समाज की वेष-भूषा, श्रुंगार-प्रसाधन और धार्मिक विश्वास को समझने के बारे में सहायता मिलती है। साथ ही इनसे गुप्तयुगीन चित्रकला के पर्याप्त विकसित होने का भी प्रमाण भी साथ में उपलब्ध हो जाता है।
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गुप्त काल की विशेषताएँ
गुप्त काल को भारतीय इतिहास का “स्वर्ण युग” कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान विज्ञान, कला, साहित्य और प्रशासन का अद्वितीय विकास हुआ। गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- गुप्त काल में कला और साहित्य को अधिक बल मिला, इसमें कालिदास जैसे महान कवि हुए हैं। इसी काल में संस्कृत साहित्य का भी विकास हुआ।
- इसी काल में अजंता और एलोरा की गुफाओं में भित्तिचित्र और मूर्तिकला जैसा निर्माण हुआ।
- विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी इसी काल में आर्यभट्ट ने शून्य (0) और दशमलव पद्धति की खोज की। इसके साथ ही वराहमिहिर ने खगोलशास्त्र पर महत्वपूर्ण ग्रंथ भी इसी कालखंड में लिखे।
- गुप्त काल में शासन प्रणाली के तहत केंद्रीय शासन, लेकिन स्थानीय प्रशासन की स्वतंत्रता, भूमि कर और व्यापार कर की व्यवस्था पर भी अधिक बल दिया जाता था।
- इसी कालखंड में हिंदू धर्म को राजकीय संरक्षण के साथ-साथ बौद्ध और जैन धर्म को भी संरक्षण दिया गया।
- इसी शासन काल में मंदिर निर्माण की परंपरा शुरू हुई।
गुप्त वंश की राजधानी क्या थी?
गुप्त वंश की राजधानीपाटलिपुत्र थी। पाटलिपुत्र वर्तमान में बिहार राज्य की राजधानी है और इसे अब पटना के नाम से जाना जाता है। प्राचीनकाल में पटना भारत एक सबसे बड़े महानगरों में से एक था। तब बिहार राज्य को मगध के नाम से जाना जता था।
गुप्त वंश के प्रमुख शासक
यहाँ आपके लिए गुप्त वंश के प्रमुख शासकों की जानकारी दी गई है, जो कुछ इस प्रकार है –
श्रीगुप्त
गुप्त वंश के पहले राजा का नाम श्रीगुप्त बताया जाता है। श्रीगुप्त गुप्त वंश के संस्थापक और प्रथम शासक थे। उन्होंने लगभग 240-280 ईस्वी के दौरान शासन किया। हालांकि उनके बारे में ऐतिहासिक स्रोत सीमित हैं, लेकिन विद्वानों का मानना है कि उन्होंने गुप्त साम्राज्य की नींव रखी, जो बाद में भारत के इतिहास का स्वर्ण युग कहलाया। श्रीगुप्त का साम्राज्य गंगा घाटी और वर्तमान बिहार, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के कुछ हिस्सों तक सीमित था। उन्होंने अपने शासनकाल में एक मजबूत प्रशासनिक ढांचा तैयार किया, जिससे आगे चलकर गुप्त वंश का विस्तार संभव हो सका। उन्होंने “महाराज” की उपाधि धारण की, जो दर्शाता है कि वे अपने समय में एक स्वतंत्र शासक थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि उन्होंने अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिए लिच्छवि गणराज्य से मित्रता स्थापित की।
घटोत्कच
घटोत्कच के बाद उनके पुत्र श्रीगुप्त शासक बने। बता दें कि घटोत्कच गुप्त गुप्त वंश के दूसरे शासक थे और उन्होंने अपने पिता श्रीगुप्त के बाद शासन संभाला। यद्यपि उनके शासनकाल के बारे में बहुत सीमित जानकारी उपलब्ध है, फिर भी वे गुप्त साम्राज्य की नींव को और मजबूत करने में सफल रहे। घटोत्कच गुप्त ने लगभग 280-319 ई. के बीच शासन किया। उनके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य धीरे-धीरे शक्तिशाली बनने लगा और प्रशासनिक स्थिरता प्राप्त हुई। उनके बाद उनके पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम ने शासन संभाला, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य को एक विशाल शक्ति में बदला।
चन्द्रगुप्त प्रथम
चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश (Gupta Dynasty in Hindi) का पहला शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसने लिच्छवि राजकुमारी से विवाह किया। प्रोफेसर आर एस शर्मा के अनुसार गुप्त शासक वैश्य (बनिया) थे और क्षत्रिय कुल में विवाह के बाद उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश के प्रथम महान शासक थे, जिन्होंने 319-335 ई. तक शासन किया। वे गुप्त साम्राज्य के वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं क्योंकि उनके शासनकाल में गुप्त वंश एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा। उन्होंने राजनीतिक और सैन्य विस्तार के साथ-साथ प्रशासनिक सुधार भी किए, जिससे गुप्त काल का “स्वर्ण युग” आरंभ हुआ।
समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त ने लगभग पूरे भारत पर विजय प्राप्त की। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि एक अद्वितीय शक्ति के रूप में भारत के अधिकांश लोगों का राजनीतिक एकीकरण था। समुद्रगुप्त ने महा राजाधिराज की उपाधि ली। सारे बड़े युद्ध जीतने के बाद समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ या अश्व यज्ञ किया। विदेशी राज्यों के कई शासकों जैसे शक और कुषाण राजाओं ने समुद्रगुप्त के वर्चस्व को स्वीकार किया और उन्हें अपनी सेवाएं प्रदान कीं।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
चंद्रगुप्त ने एक आक्रामक विस्तारवादी नीति अपनाई। उन्होंने 375 से 415 ई तक शासन किया। उन्होंने शक-क्षत्रप वंश के रुद्रसिंह तृतीय को हराया और गुजरात में अपना साम्राज्य कायम किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिन्हें विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है, गुप्त वंश के सबसे शक्तिशाली और महान शासकों में से एक थे। उनके शासनकाल को भारतीय इतिहास का “स्वर्ण युग” कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान कला, विज्ञान, साहित्य और प्रशासन अपने चरम पर थे। उन्होंने अपने कुशल सैन्य अभियानों, कूटनीति और प्रशासनिक क्षमता से गुप्त साम्राज्य को भारत का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया।
कुमारगुप्त प्रथम
कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय से 415 ई में सत्ता प्राप्त की। कुमारगुप्त प्रथम गुप्त वंश के महान शासकों में से एक थे। वे चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के पुत्र थे और उन्होंने लगभग 40 वर्षों तक गुप्त साम्राज्य पर शासन किया। उनका शासनकाल गुप्त वंश के स्वर्ण युग का महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसमें कला, शिक्षा, संस्कृति और प्रशासन का अत्यधिक विकास हुआ। उन्होंने अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा स्थापित मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखा और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की। उनका शासनकाल बाहरी आक्रमणों और विद्रोहों से भरा रहा, लेकिन वे कुशलता से इनका सामना करने में सफल रहे।
स्कंदगुप्त
उसने कुमारादित्य की उपाधि धारण की और 455ई से 467ई तक 12 वर्षों तक शासन किया। उसने हूणों को पराजित किया। स्कंदगुप्त गुप्त वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक थे। वे सम्राट कुमारगुप्त प्रथम के पुत्र थे और 455 ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के राजा बने। उनके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य ने आंतरिक विद्रोहों और विदेशी आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया। विशेष रूप से, उन्होंने हूणों के आक्रमण को विफल कर भारतीय उपमहाद्वीप की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा। हालांकि, उनके शासनकाल के अंत में आर्थिक संकट और प्रशासनिक कमजोरी के कारण गुप्त साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।
गुप्त साम्राज्य का पतन
गुप्त वंश (319 ई. – 550 ई.) भारतीय इतिहास का एक महान राजवंश था, जिसने लगभग 200 वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर शासन किया। इस वंश के शासनकाल को “स्वर्ण युग” कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान कला, साहित्य, विज्ञान, गणित और प्रशासनिक व्यवस्था में अपार उन्नति हुई। लेकिन 5वीं शताब्दी के मध्य से गुप्त साम्राज्य में धीरे-धीरे कमजोरी आने लगी, और अंततः 6वीं शताब्दी के मध्य तक इसका पतन हो गया।
गुप्त साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण
गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi) के पतन के पीछे कई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य कारण थे। इन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:
- 5वीं शताब्दी के मध्य से मध्य एशिया से हूणों (हुण) का आक्रमण बढ़ने लगा। स्कंदगुप्त (455-467 ई.) ने इन आक्रमणों का डटकर मुकाबला किया और उन्हें पराजित किया, लेकिन इससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। स्कंदगुप्त के बाद आने वाले शासक हूणों के आक्रमण को रोकने में असफल रहे, जिससे गुप्त साम्राज्य कमजोर होता चला गया। 500 ई. के बाद, हूणों ने मालवा, पंजाब और राजस्थान के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया।
- प्रारंभिक गुप्त शासकों ने एक मजबूत प्रशासनिक प्रणाली बनाई थी, लेकिन बाद के शासकों ने इसे संभालने में असमर्थता दिखाई। प्रशासनिक कमजोरी भी इस साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण है।
- हूणों के आक्रमणों और लगातार युद्धों के कारण खजाने पर भारी बोझ पड़ा। इसलिए आर्थिक संकट भी इस साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण बने।
- गुप्त साम्राज्य अत्यधिक विशाल हो गया था, जिसे नियंत्रित करना मुश्किल हो गया। साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय राजाओं ने स्वतंत्रता की घोषणा करनी शुरू कर दी। मालवा, बंगाल, कश्मीर, और दक्कन में नए राजवंश उभरने लगे, जो गुप्त शासन को चुनौती देने लगे।
- गुप्त काल के बाद भारतीय समाज में जाति प्रथा और सामाजिक भेदभाव बढ़ने लगा। समाज में अस्थिरता बढ़ी, जिससे प्रशासन कमजोर हुआ। बौद्ध धर्म और जैन धर्म का प्रभाव कम होने से सांस्कृतिक एकता भी कमजोर हो गई।
- गुप्त साम्राज्य के कमजोर होने का फायदा उठाकर वाकाटक, मौखरि, और गुप्तों के अन्य विरोधी शक्तिशाली हो गए। हूणों की शक्ति बढ़ने के बाद उन्होंने उत्तर भारत में अपना प्रभाव जमा लिया। कई छोटे-छोटे राजाओं ने गुप्त साम्राज्य की जगह नए राज्यों की स्थापना कर ली।
FAQs
गुप्त वंश (Gupta Dynasty in Hindi) की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी, जिन्होंने लगभग 240 ईस्वी में एक छोटे राज्य की नींव रखी थी।
गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi) का स्वर्ण युग चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.) और समुद्रगुप्त (335-380 ई.) के शासनकाल में आया, जब कला, विज्ञान और साहित्य का उत्कर्ष हुआ।
समुद्रगुप्त को दूसरा अशोक इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह एक कुशल योद्धा होने के साथ-साथ कला और संस्कृति का संरक्षक भी था। उसका प्रयाग प्रशस्ति शिलालेख उसकी विजयों को दर्शाता है।
चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415 ई.) ने शक राजाओं को पराजित किया, जिससे उसे “विक्रमादित्य” की उपाधि मिली। उसके शासनकाल में उज्जैन एक प्रमुख सांस्कृतिक और व्यापारिक केंद्र बना।
गुप्त काल की कला अजंता-एलोरा की गुफाओं, नालंदा विश्वविद्यालय, तथा मथुरा और सारनाथ की बुद्ध प्रतिमाओं में देखी जा सकती है।
गुप्त काल में आर्यभट्ट ने शून्य की अवधारणा दी, दशमलव प्रणाली विकसित हुई, तथा खगोलशास्त्र और गणित में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया।
गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi) में कालिदास ने “अभिज्ञानशाकुंतलम” और “मेघदूतम” जैसे नाटक लिखे। इसके अलावा, विष्णु शर्मा की पंचतंत्र कथाएँ भी इसी समय प्रचलित हुईं।
गुप्त प्रशासन में राजा सर्वोच्च होता था। उसके अधीन मंत्रिपरिषद होती थी। भूमि कर, व्यापार कर और धार्मिक दान से राज्य की आर्थिक व्यवस्था संचालित होती थी।
गुप्त साम्राज्य का पतन हूणों के आक्रमण, कमजोर शासकों, और प्रांतीय शासकों की स्वायत्तता बढ़ने के कारण हुआ।
इस काल में संस्कृत साहित्य, कला, विज्ञान, और प्रशासन में उत्कृष्ट प्रगति हुई, इसलिए इसे भारत का “शास्त्रीय युग” कहा जाता है।
आशा करते हैं कि आपको Gupta Dynasty in Hindi ब्लॉग के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त हुई होगी और आपको यह जानकारी पसंद आई होगी। इसी तरह के अन्य ब्लॉग्स पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ जुड़े रहें।
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