बाल विकास के सिद्धांत यह एक महत्वपूर्ण विषय है जिस पर कई प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे- TET, MPTET,CTET आदि में प्रश्न पूछे जाते हैं। यदि आप भी अध्यापक बनने की तैयारी कर रहे हैं तो आपके लिए बाल विकास के सिद्धांत ब्लॉग बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं।इसके साथ ही ये स्टूडेंट के लिए तो है ही लेकिन अपने बच्चे के सही विकास और उनके माता पिता के लिए भी आवश्यक हैं। नीचे बाल विकास के सिद्धांत को बहुत आसान और अच्छी तरह से समझाया गया है।आइए पढ़ते हैं बाल विकास के सिद्धांत और उससे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां।
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बाल विकास क्या है?
गर्भाधान से लेकर जन्म तक व्यक्ति में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं । जिन्हें भ्रूणावस्था का शारीरिक विकास माना जाता है। जन्म के बाद वह कुछ विशिष्ट परिवर्तनों की ओर संकेत करता है। इसे ही बाल विकास कहते हैं। जैसे गति, भाषा, संवेग और सामाजिकता के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। बाल विकास का यह क्रम वातावरण से प्रभावित होता है। इसी के आधार पर अनेक बाल विकास के सिद्धांत दिए गए हैं।
अध्यापक के लिए वातावरण और बालक एक-दूसरे के पर्याय (जोड़ीदार) बनकर चुनौती प्रस्तुत करते हैं।अध्यापक के लिये आवश्यक है कि वह सफलता प्राप्त करने के लिए बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करें क्योंकि इन अवस्थाओं के कारण ही वह बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपनी शिक्षण पद्धति को विकसित कर सकता है। इसी को समझाने के लिए आइए देखते हैं बाल विकास के सिद्धांत-
बाल विकास के सिद्धांत
बाल विकास के सिद्धांत:
- बाल की दिशा का सिद्धांत
- विकास क्रम का सिद्धांत
- विकास की गति का सिद्धांत
- बाल की दिशा का सिद्धांत- इस बाल विकास के सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है। इसे मस्ताधोमुखी विकास का सिद्धांत भी कहते हैं। मस्ताधोमुखी विकास का अर्थ यह है कि पहले बालक के मस्तिष्क का विकास होता है फिर भुजाओं और अन्य इंद्रियों का। बाल विकास के दिशा के सिद्धांत के अनुसार पहले बालक सिर हिलाना सीखता है फिर उठना फिर बैठना और फिर चलना।
प्रश्न-इस पर कई बार यह प्रश्न पूछा जाता है की बालक की दिशा के सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास किस ओर होता है?
उत्तर- सिर से पैर की ओर।
- विकास क्रम का सिद्धांत- इस बाल के सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास लगातार होता रहता है परंतु एक निश्चित क्रम में होता है। निश्चित क्रम से अर्थ है कि बालक का विकास पहले गर्भावस्था फिर शैशवावस्था बाल्यावस्था और किशोरावस्था इसी क्रम में होता है। विकास क्रम के सिद्धांत के अनुसार बालक में भाषा व गामक (देखना,सुनना,लटकना आदि छोटे विकास) विकास होता है। तथा इस बाल विकास सिद्धांत के अनुसार भाषा का विकास का क्रम सुनना,बोलना, पढ़ना तथा लिखना होता है परंतु मांटेसरी के अनुसार इसका क्रम-
सुनना,बोलना,लिखना तथा पढ़ना बताया गया है।
प्रश्न-इस बाल विकास के सिद्धांत में अक्सर पूछे जाने वाला प्रश्न यह है कि मांटेसरी के अनुसार विकास क्रम के सिद्धांत का क्या क्रम है?
उत्तर-सुनना,बोलना,लिखना,पढ़ना
- विकास की गति का सिद्धांत- इस सिद्धांत को डग्लस एवं होलैंड ने दिया था। इस बाल विकास सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास लगातार होता रहता है परंतु विकास की गति हर अवस्था में अलग-अलग रहती है। विकास की गति के सिद्धांत के अनुसार शैशवावस्था में बालक का विकास तीव्र, बाल्यावस्था में बालक का विकास मंद तथा किशोरावस्था में बालक का विकास दोबारा तीव्र हो जाता है।
हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाएं
एक बालक को अपने जीवन में विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना होता है।बाल – विकास में इन अवस्थाओं का निर्धारण आयु द्वारा होता है। अर्थात बालक किस अवस्था में है ये उसकी आयु से पता चलता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव इन अवस्थाओं से गुजरता है। जैसा कि हम जानते है ,कि मनुष्य का शारीरिक और मानसिक विकास उसकी आयु के अनुसार अलग – अलग अवस्थाओं में अलग – अलग होता है। अतः बाल विकास में इन्ही अवस्थाओं का निर्धारण आयु द्वारा किया गया है।
हरलॉक के अनुसार विकास
गर्भावस्था – गर्भधारण से जन्म तक का काल।
नवजात अवस्था – जन्म से 14 दिन तक।
शैशवावस्था – 14 दिन से 2 वर्ष तक का काल
बाल्यावस्था – 2 वर्ष से 11 वर्ष
किशोरावस्था – 11 वर्ष से 21 वर्ष
प्रश्न-बाल विकास के गति के सिद्धांत को किसने दिया था?
उत्तर-डग्लस एवं होलैंड
- परस्पर संबंध का सिद्धांत- बाल विकास के सिद्धांत में परस्पर संबंध का सिद्धांत थार्नडाइक ने दिया था। इस बाल विकास के सिद्धांत के अनुसार थार्नडाइक बताते हैं कि बालक के सभी विकास एक दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं। यदि एक भी विकास सही रूप से नहीं हुआ तो बालक का संपूर्ण विकास नहीं हो पाएगा। बालक में शारीरिक,मानसिक, सामाजिक,संवेगात्मक विकास परस्पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इस बाल विकास सिद्धांत के अनुसार यदि बालक शरीर से स्वस्थ होगा तभी उसका मानसिक विकास स्वस्थ होगा और यदि मानसिक विकास स्वस्थ होगा तभी वह सामाजिक कार्यों में भाग लेगा और संवेग स्थिर रहेगा।
प्रश्न-परस्पर संबंध का सिद्धांत किसने दिया था?
उत्तर-थार्नडाइक
- निरंतर विकास का सिद्धांत- बाल विकास के सिद्धांत में निरंतर विकास का सिद्धांत स्किनर ने दिया था। इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास मंद जरूर हो जाता है परंतु बालक का विकास लगातार चलता रहता है। बालक का विकास जन्मपूर्व से लेकर जीवनपर्यंत (जब तक जीवन है तब तक) चलता रहता है।
- व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धांत- व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धांत हरलॉक ने बाल विकास के सिद्धांत में दिया था। इस सिद्धांत के अनुसार सभी बालकों का विकास निरंतर होता रहता है परंतु किसी में भी समानता नहीं पाई जाती। उदाहरण के तौर पर यदि हम दो बच्चों के विकास को देखें तो दोनों में विकास जरूर होगा परंतु दोनों में विभिन्नता पाई जाएगी। इस सिद्धांत के अनुसार बालकों में शारीरिक,मानसिक ,सामाजिक,संवेगात्मक रूप से विभिन्नता पाई जाती है।
- एकीकरण का सिद्धांत- इसे समन्वय का सिद्धांत भी कहते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग चलाना सीखता है फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है तथा अंत में सभी में एकीकरण करता है।उदाहरण के तौर पर यदि किसी बालक के आगे एक खिलौना रखा है और वह थोड़ा दूर है तो वह उसे अपने पूरे शरीर को हिला कर घसीटते हुए खिलौने तक पहुंचता है फिर हाथ का इस्तेमाल करके उसे छूने की कोशिश करता है तथा अंत में दोनों क्रियाओं को जोड़कर वह खिलौने को हाथ में ले लेता है। इसे ही एकीकरण का सिद्धांत कहते हैं।
- वंशानुक्रम एवं वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार वंशानुक्रम और वातावरण एक दूसरे का गुणनफल होते हैं। मतलब की किसी भी बाल के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का विकास पूर्ण होगा तभी बालक का विकास होगा केवल एक के विकास से बालक का विकास नहीं होगा। इस सिद्धांत पर कई अवधारणा प्रसिद्ध है परंतु यही सही कांसेप्ट है।
बालक पर वंशानुक्रम के महत्व के सम्बन्ध में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण किये गये, जिसके आधार पर सिद्ध किया गया कि बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू पर वंशानुक्रम प्रभावी होता है। कुछ मत निम्नलिखित हैं-
प्रभाव | प्रतिपादक विद्वान का नाम |
1. मूल शक्तियों का प्रभाव | थॉर्नडाइक (Thorndike) |
2 शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव | कार्ल पियर्सन (Karl Pearson) |
3. प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव | क्लीन वर्ग (Kin Verg) |
4. व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव | कैटेल (Cattell) |
5. सामाजिक स्थिति पर प्रभाव | विनसिप (Winship) |
6. चरित्र पर प्रभाव | डगडेल (Dugdale) |
7. महानता पर प्रभाव | गाल्टन (Galton) |
8. वृद्धि पर प्रभाव | गेडार्ड (Gaddard) |
9. संचयी प्रभाव | कोलेसनिक (Kolesnik) |
वातावरण
वातावरण के लिए पर्यावरण शब्द का प्रयोग किया जाता है। पर्यावरण दो शब्दों से बना है-परि + आवरण। परि का अर्थ है चारों ओर एवं आवरण का अर्थ है-डकने वाला। इस प्रकार पर्यावरण व वातावरण वह वस्तु है जो चारों ओर से आवृत्त करती है। अत: हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो कुछ है वहीं वातावरण है।
वातावरण की परिभाषाएँ-
- रॉस के अनुसार, “वातावरण वह बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है। (Environment is an external force which influences us.) -Ross
- एनॉस्टरसी के अनुसार, वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के पित्रैकों के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है।
iii) वंशानुक्रम के सिद्धांत-वंशानुक्रम के सिद्धांत या नियम का अध्ययन मनोवैज्ञानिकों तथा जीव वैज्ञानिकों के लिए रोचक तथा रहस्यमय विषय रहा है, फिर भी अनुभव, अध्ययन के आधार पर वंशानुक्रम के निम्नलिखित नियमों का प्रतिपादन किया गया है।
- बीजकोष की निरन्तरता (Law of Continuity of Genes) ।
- समानता का नियम (Law of Resemblance)।
- विभिन्नता का नियम (Law of Variation)।
- प्रत्यागमन का नियम (Law of Regression )।
- अर्जित गुणों का संक्रमण (Law of Transmission of Acquirel Traits)।
- मेण्डल का नियम (Mendels Law)।
9) समान प्रतिमान का सिद्धांत- यह बाल विकास का सिद्धांत हरलॉक ने दिया था। इस सिद्धांत के अनुसार एक प्रकार की जाति विशेष का विकास एक समान होता है। उदाहरण के तौर पर एक बालक भारत का है तथा दूसरा बालक अफ्रीका का क्योंकि दोनों की जाति समान है दोनों ही बालक है तो दोनों का विकास एक समान ही होगा चाहे उन का वातावरण अलग ही क्यों ना हो।
10) सामान्य से विशिष्ट की ओर सिद्धांत- इस बाल विकास सिद्धांत के अनुसार बालक सबसे पहले सामान्य क्रियाएं करता है फिर विशिष्ट क्रियाएं करता है। उदाहरण- दौड़ना एक विशिष्ट क्रिया है परंतु बालक सीधा दौड़ने ही नहीं लगता पहले वह उठना, फिर बैठना, फिर चलना तथा फिर दौड़ना प्रारंभ करता है।
11) चक्राकार या वर्तुलाकार का सिद्धांत- इस बाल विकास सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास वर्तुलाकार होता है। वर्तुलाकार का अर्थ यह है कि बच्चे की लंबाई,चौड़ाई,भार और आकार सभी रूपों में बालक का विकास होता है।
बाल विकास सिद्धांत पर TET की परीक्षा में पूछे जाने वाले 10 ऑब्जेक्टिव प्रश्न
A. सभी की विकास दर समान नहीं होती है।
B. विकास हमेशा रेखीय होता है।
C. यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
D. विकास की सभी प्रक्रियाएँ अन्तः सम्बंधित नहीं है।
उत्तर-(A)
A. हरलॉक
B. जेम्स ड्रेवर
C. मैर डुगल
D. मुनरो
उत्तर-(A)
A. शिक्षार्थी का वजन एवं ऊँचाई
B. स्मृति का विकास
C. तर्क एवं निर्णय
D. अवबोधन की क्षमता
उत्तर-(A)
A. व्यक्ति विभिन्न दर से विकसित होतें है।
B. विकास शनैः शनैः होता है।
C. विकास तुलनात्मक रूप से क्रमबद्ध होता है।
D. विकास एक निश्चित उम्र के बाद रुक जाता है।
उत्तर-(D)
A. वजन बढ़ाने की
B. शिक्षा की
C. समायोजन की
D. अच्छे परीक्षा परिणाम देने की
उत्तर-(C)
A. परिवार
B. विद्यालय
C. जन संचार माध्यम
D. पत्र-पत्रिकाएँ
उत्तर-(A)
A. शैशवावस्था
B. बाल्यावस्था
C. प्रौढकाल
D. किशोरावस्था
उत्तर-(D)
A. हरलॉक
B. सोरनसन
C. क्रो एवं क्रो
D. जीन पियाजे
उत्तर-(A)
A. शैशवावस्था
B. बाल्यावस्था
C. प्रौढकाल
D. किशोरावस्था
उत्तर-(D)
A. वृद्धि एवं विकास पर्यायवाची है।
B. वृद्धि में मात्रात्मक परिवर्तन निहित है।
C. वृद्धि जीवनपर्यन्त नहीं होती
D. वृद्धि के साथ विकास भी होता है।
उत्तर-(A)
बाल विकास की अवस्थाएं
बालक के विकास से अभिप्राय उसके गर्भ में आने से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त होने तक की स्थिति से है। पितृ सूत्र (Sperms) तथा मातृ सूत्र (Ovum) के संयोग से जीवन प्राप्त करता है। यह स्थिति जब तक भ्रूण गर्भ से बाहर नहीं आता, गर्भ स्थिति काल (Prenatel Period) कहलाती है। 9 कलेण्डर माह एवं 10 दिन अथवा 10 चन्द्रकाल या 180 दिन तक वह भ्रूण गर्भ में रहता है और उसका विकास होता है। इस अवधि में शारीरिक अंगों का विकास होता है। गर्भ में स्थित भ्रूण जब पूर्ण विकसित हो जाता है तब वह बाहर आता है। जिसे जन्म होना कहा जाता है। जन्म से उसके विकास का नया दौर प्रारम्भ हो जाता है । इसे गर्भोत्तर (Rostinatel) की स्थिति कहते हैं। मुनरो ने इस विकास की परिभाषा करते हुए लिखा है-परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।
शैशवावस्था में विकास
शारीरिक विकास
शैशवावस्था-जीवन का आरम्भ जन्म से नहीं बल्कि गर्भ के स्थित हो जाने से ही हो जाता है। भ्रूण परिपक्वता प्राप्त कर लेने के बाद बाहर आता है। शैशवावस्था जन्म के बाद मानव विकास की प्रथम अवस्था है। गर्भवस्था जन्म पूर्व विकास का काल है जिसमें नवीन मानव जीवन प्रारम्भ होता है। शैशवावस्था में नवजात शिशु का विकास होता है। शैशवावस्था जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल माना जाता है। यह वह अवस्था है जो बालक के सम्पूर्ण भावी जीवन को प्रभावित करती है।
शिशु पूर्णतः माता-पिता पर निर्भर होता है। उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर होता है। उसकी सभी आवश्यकताएँ माता-पिता तथा अन्य पारिवारिक सदस्य द्वारा पूरी होती है।
जन्म के समय बालक का भार लगभग 5 से 8 पौण्ड होता है। लम्बाई लगभग 20 इंच होती है। लड़कों की लम्बाई, लड़कियों की अपेक्षा जन्म के समय आधा इंच अधिक होती है। लड़कियों का भार लड़कों की अपेक्षा अधिक होता है। एक वर्ष में शिशु की लम्बाई 27 इंच से 28 इंच तक 2 वर्ष में 3 इंच तक, 7 वर्ष में 40 इंच से 42 इंच तक हो जाती है। इसी प्रकार जन्म के पहले सप्ताह में शिशु का भार 6 से 8 औसत तक कम हो जाता है। इसके बाद उसका भार आरम्भ होता है। 4 माह में 14 पौण्ड, 8 माह में 18 पौण्ड, वर्ष में 21 पौण्ड तथा 6 वर्ष में उसका भार 40 पौण्ड के लगभग विकसित होता है।
जन्म के समय शिशु की हड्डियाँ कोमल एवं लचीली होती हैं इनकी संख्या 270 होती है। फॉरफोरस, कैल्शियम एवं अन्य खनिज पदार्थों की सहायता से शिशुओं की हड्डियों का विकास होता है। 6 माह में शिशु के अस्थाई दाँत निकलने प्रारम्भ हो जाते हैं। 5 वर्ष की आयु के पश्चात् स्थायी दाँत निकलने लगते हैं। इस काल के शिशुओं में माँसपेशियों का विकास भी तीव्रगति से होता है। भुजाओं तथा टाँगों के विकास के अनुपात पहले वर्ष की अपेक्षा दुगना होता है। यही प्रक्रिया मास्तिष्क की भी होती है जन्म के समय शिशु के मस्तिष्क का भार 350 ग्राम होता है। 2 वर्ष में यह भार दोगुना हो जाता है और 6 वर्ष में यह भार 1260 ग्राम हो जाता है। सामान्यतः शिशु के जन्न उपरान्त प्रथम 6 वर्ष तक शैशवावस्था कहलाती है।
मानसिक विकास/बौद्धिक क्षमता
शैशवावस्था में शिशु की मानसिक/ बौद्धिक क्षमताओं ध्यान, स्मरण, कल्पना, संवेदना(सहानुभूति) आदि के विकास में तीव्रता रहती है। शैशवावस्था में बाल विकास का प्रमुख साधन ज्ञानेन्द्रियाँ (Sense Organs) हैं। शिशु अपने वातावरण प्रत्येक वस्तुओं से साझा करता है उसे जानने समझने का बहुत अधिक प्रयास करता।
सामाजिक विकास
बाल्यावस्था के आरम्भ में बालक का विधिवत सामाजिक जीवन में प्रवेश होता है। बाल्यावस्था में बालक घर या पड़ोस तथा विद्यालय के छात्रों के साथ काफी समय व्यतीत करता है। यहीं से उसमें समूह बनाने तथा समूह में रहने की प्रवृत्ति विकसित होती है। मित्रभाव पनपने लगता है वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करना पसन्द करता है। उसकी रुचि सामूहिक खेलों में अधिक होती है। इस अवस्था में बालक किसी न किसी समूह का सदस्य बन जाता है। प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होने लगती है। इसी अवस्था में यह भी देखा गया है कि बालकों में ऑडीपस (Odipus) तथा इलेक्ट्रा (Electra) ग्रन्थियाँ विकसित होने लगती हैं।
ऑडीपस-ग्रन्थि के कारण लड़के अपनी माता से अधिक प्रेम करने लगते हैं।
ऑडीपस नामक एक बालक ने अपनी बहिन की सहायता से अपने से पिता की हत्या करके अपने माता से विवाह किया था इसी भावना के कारण यह ग्रन्थि ऑडीपस ग्रन्थि (Odipus Complex) के नाम से पुकारी जाने लगी। इलेक्ट्रा-इलेक्ट्रा ग्रन्थि बालिकाओं में विकसित होने के कारण पिता के प्रति आसक्ति का भाव पाया जाता है। इलेक्ट्रा नामक लड़की ने भाई की सहायता से माता को मारकर पिता से विवाह किया था इसी भावना के कारण यह ग्रन्थि इलेक्ट्रा(Electra Complex) कहलाती है ।
अभिव्यक्ति क्षमता का विकास
भाषा विकास
आयु परिवर्तन के साथ ही साथ बालकों की सीखने की प्रवृत्ति में भी वृद्धि हो जाती है। बाल्यावस्था में बालक शब्द से लेकर वाक्य विन्यास की सभी क्रियाएं संयम लेता है। भाषा विकास के अनुसार बालक पहले वर्ण,वर्ण से शब्द, शब्द से वाक्य तथा वाक्य से भाषा सीखता है।
भाषा विकास की प्रगति
आयु | शब्द |
जन्म से 8 माह | 0 |
10 माह | 1 |
1 वर्ष | 3 |
वर्ष से 3 वर्ष तक | 19 |
1 वर्ष से 6 वर्ष तक | 22 |
1 वर्ष से 9 वर्ष तक | 118 |
2 वर्ष | 272 |
4 वर्ष | 1150 |
5 वर्ष | 2072 |
6 वर्ष | 2562 |
सृजनात्मकता का विकास
शैशवावस्था में सृजनात्मकता का विकास निम्न प्रकार होता है-
- कल्पना की सजीवता
- अनुकरण द्वारा सीखना
- क्रिया द्वारा सीखना
सौन्दर्य बोध व मूल्यों का विकास
- शैशवावस्था में सौन्दर्य बोध की भावना का प्रत्यक्षीकरण इस प्रकार होता है
- आत्म-प्रेम की भावना का विकास
- सामाजिक भावना का विकास
- आत्म-प्रदर्शन की इच्छा।
व्यक्ति का विकास
शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व निम्नलिखित प्रकार व्यक्त होता है-
- एकान्त प्रियता (अन्तर्मुखी)
- सीखने में तीव्रता या उत्सुकता
- समवयस्क के प्रति लगाव
- संवेगों का प्रदर्शन।
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आप का बाल विकास पर लेख बहुत पसंद आया….धन्यवाद sir
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12 comments
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राज जी, आपका बहुत बाहत धन्यवाद।
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थैंक्स ए लॉट सर जी
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Aap ki baat achhi he
धन्यवाद
Sir bahut badiya notes hain aapka….Hume aur padhna tha kaha par milega
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