इतिहास की दृष्टि से राजस्थान को अत्यंत समृद्ध राज्य माना गया है। यहाँ पृथ्वीराज चौहान, बाप्पा रावल, राणा कुंभा, राणा सांगा और राणा प्रताप जैसे प्रतापी राजाओं ने जन्म लिया और अपने पराक्रम से राजस्थान व भारत को विदेशी आक्रान्ताओं से बचाने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इन्हीं वीर योद्धाओं में से एक थे “भामाशाह” जिन्होंने दूसरों की भलाई के लिए जीवनभर दान किया और इसी कारण उन्हें ‘दानवीर’ कहा जाने लगा। आइए इस लेख के माध्यम से हम जानते हैं कि कौन थे भामाशाह और क्या था उनका इतिहास।
नाम | भामाशाह |
जन्म | 28 जून 1547 |
जन्म स्थान | मेवाड़ (चितौड़गढ़) |
पिता का नाम | भारमल |
धर्म | जैन धर्म |
मृत्यु | 1599 ई. |
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भामाशाह का जीवन परिचय
क्या आप जानते हैं कि इतिहास में जब भी दानवीरों की बात होती है तो “भामाशाह” का नाम आदर से लिया जाता है। बाल्यकाल से ही भामाशाह को मेवाड़ की धरती से विशेष प्रेम था। ऐसे वीर का जन्म राजस्थान के मेवाड़ (चित्तौडग़ढ़) में 29 अप्रैल 1547 को जैन परिवार में हुआ था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भामाशाह का जन्म 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता ‘भारमल’ थे, जिन्हें “राणा साँगा” ने रणथम्भौर के क़िले का क़िलेदार नियुक्त किया था।
भामाशाह बचपन से ही मेवाड़ के राजा “महाराणा प्रताप” के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार रहे थे। उन्होंने अपने समय में महाराणा प्रताप को अपनी सारी जमा-पूंजी अर्पित कर दी थी। एक तरफ जहाँ मेवाड़ को बचाने के लिए महाराणा प्रताप विदेशी आक्रांताओं से लड़े तो दूसरी तरफ भामाशाह ने भी उनकी पूरी तरह से मदद की थी। इस तरह भामाशाह नाम इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गया।
भामाशाह और महाराणा प्रताप
इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग और पराक्रम के लिए अमर होने वाले महान योद्धा “महाराणा प्रताप” उदयपुर, मेवाड़ में ‘सिसोदिया राजवंश’ के राजा थे। महाराणा प्रताप एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने जंगलो में रहना पसंद किया लेकिन कभी मुग़लों की दासता नहीं स्वीकारी। भामाशाह बचपन से ही महाराणा प्रताप के परम मित्र,सहयोगी विश्वास पात्र सहलाकर थे। भामाशाह महाराणा प्रताप से 7 वर्ष छोटे थे और बाद में वह महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति साबित हुए।
हल्दीघाटी युद्ध में भामाशाह का सहयोग
इतिहास में अनेकों लड़ाईयां लड़ी गयी जिनमें से कुछ युद्धों को आज भी याद किया जाता है। ऐसा ही एक युद्ध था ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ जो 18 जून 1576 ई को मेवाड़ के शासक “महाराणा प्रताप” और मुगल बादशाह “अकबर” के मध्य हुआ था। हल्दीघाटी का युद्ध इतना भीषण और विनाशकारी था कि हजारों मेवाड़ी सैनिकों और मुगल सेना की जान चली गयी और भारी मात्रा में धन की हानि हुई।
इस दौरान आगे की लड़ाई लड़ने के लिए “महाराणा प्रताप” के पास बिल्कुल भी संसाधन नहीं बचे थे। महाराणा प्रताप के पास सैनिकों की संख्या कम हो गई थी, उन्हें अपने सैनिकों को देने के लिए पर्याप्त वेतन और भोजन की बहुत आवश्यकता थी परंतु कहीं भी आशा की किरण ना दिखने पर वह गहरी चिंता में डूब गए और उन्हें यह डर सताने लगा कि कहीं मुगल उनके हिस्सों पर कब्जा ना कर ले।
उस कठिन समय में महाराणा प्रताप के मित्र “भामाशाह” मसीहा बनकर आये और उन्होंने महाराणा प्रताप को मातृभूमि की रक्षा के लिए पच्चीस लाख रुपए तथा बीस हजार अशरफिया समर्पित की। महाराणा प्रताप को दी गई भामाशाह की इस सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी और अंत में इस युद्ध में ना तो अकबर जीता और ना ही महाराणा प्रताप हारे। लेकिन इतिहास में ऐसे कई प्रमाण मौजूद हैं, जिसमें महाराणा प्रताप की जीत साबित होती है।
भामाशाह: योद्धा भी और दानवीर भी
माना जाता है कि भामाशाह योद्धा भी थे और दानवीर भी। इतिहास में भामाशाह को हल्दीघाटी के युद्ध में मुग़लों के खिलाफ युद्ध करते हुए देखा गया। इस युद्ध में भामाशाह, महाराणा प्रताप के हरावल दस्ते में शामिल थे। उस दौरान उनके साथ उनके भाई ताराचंद भी थे। इसके अलावा महाराणा प्रताप के दीर्घकालीन युद्ध की कई महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ भामाशाह का नाम जुड़ा हुआ है। भामाशाह ने मेवाड़ की सैन्य टुकड़ियों का नेतृत्व करते हुए कई बार मुगलों की शाही सेना पर आक्रमण किया और मेवाड़ के लिए धन प्राप्त किया। भामाशाह ने महाराणा प्रताप के सैन्य संगठन, युद्ध नीति और आक्रमणों की योजना आदि में प्रमुख हिस्सा लिया था।
महाराणा प्रताप और भामाशाह को अलग करने की साज़िश
अकबर जहां पर भी कामयाब नहीं होता वहां पर फूट डालो और राज करो की नीति अपनाता और इस नीति के तहत वह राजपूत राजाओं, सामंतों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काकर अलग कर देता या उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लेता। महाराणा प्रताप और भामाशाह के साथ भी उसने कुछ ऐसा ही किया। जिस तरह से हल्दीघाटी युद्ध में भामाशाह के सहयोग ने ही महाराणा प्रताप को संघर्ष की दिशा और मेवाड़ को आत्मसम्मान दिया। उसके बाद अकबर ने इन दोनों को भी अलग करने के काफी प्रयत्न किये लेकिन अकबर की सारी कोशिशें नाकाम रही। भामाशाह को अकबर ने कई प्रलोभन भी दिए लेकिन उनपर उसका तनिक भी असर न हुआ।
भामाशाह की मृत्यु
महाराणा प्रताप की मृत्यु के 2 साल बाद 1599 ई. यानी की 52 साल की आयु में भामाशाह की भी मृत्यु हो गयी। मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी संपूर्ण धनसंपदा अपनी पत्नी को सौंप कर कहा कि यह मातृभूमि की रक्षा के लिए दान कर देना। उस समय मेवाड़ में महाराणा “अमर सिंह” का शासन था। भामाशाह के कहे मुताबिक उनकी पत्नी ने भी अपना सारा खजाना महाराणा अमर सिंह को सौंप दिया और इस तरह वीर, दानवीर और दानदाता भामाशाह का नाम इतिहास में सदा के लिए अमर हो गया।
FAQs
दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल, 1547 को हुआ था।
भामाशाह बाल्यकाल से ही मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। इसके अलावा दानवीरता के लिए भामाशाह का नाम इतिहास के पन्नो में दर्ज है।
भामाशाह का मूल नाम भामाशाह भारमल था।
भामाशाह के पिता का नाम भारमल था।
दानवीर भामाशाह का जन्म जैन परिवार में हुआ था।
आशा है कि आपको भामाशाह के बारे में सभी आवश्यक जानकारी मिल गयी होगी। ऐसे ही इतिहास से संबंधित अन्य ब्लॉग्स को पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।