सहजोबाई मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की प्रमुख संत-कवयित्री थीं, जिनका स्थान भारतीय अध्यात्म में अत्यंत सम्मानित है। संत चरणदास की शिष्या होने के कारण वे निर्गुण भक्ति और चरणदासी संप्रदाय की महत्वपूर्ण हस्ती मानी जाती हैं। गुरु-स्तुति पर आधारित उनकी प्रसिद्ध कृति ‘सहजप्रकाश’ में गुरु महिमा और निर्गुण भक्ति के सिद्धांतों का विस्तार मिलता है। स्त्री भक्त कवयित्रियों में विशिष्ट पहचान रखने वाली सहजोबाई के जीवन और साहित्यिक योगदान का परिचय इस लेख में बताया गया है।
| नाम | सहजोबाई (Sahjo Bai) |
| जन्म | सन 1725 (मान्यता के अनुसार) |
| जन्म स्थान | डेहरा गांव, मेवात |
| गुरु का नाम | संत चरणदास जी |
| पिता का नाम | हरिप्रसाद जी |
| माता का नाम | अनूपीदेवी |
| भाई | राधाकृष्ण, गंगाविष्णु, हरिनारायण, दासकुंवर |
| साहित्यकाल | भक्तिकाल |
| प्रमुख रचना | ‘सहजप्रकाश’ |
| भाषा | खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेली और ब्रजभाषा |
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सहजोबाई का जन्म
निर्गुण परंपरा के प्रमुख संत कबीरदास, संत रविदास व दादू दयाल की तरह संत-भक्त कवयित्री सहजोबाई का कोई प्रमाणिक जीवन वृत्त अब तक सुलभ नहीं हो सका है। विद्वानों का मत है कि उनका जन्म लगभग 1725 में मेवात के डेहरा गांव या दिल्ली क्षेत्र में हुआ माना जाता है। इनके पिता का नाम हरिप्रसाद जी और माता का नाम अनूपीदेवी था। वे अपने भाइयों में सबसे छोटी और परिवार की एकलौती बहन थीं।
सहजोबाई की गुरु भक्ति
निर्गुण मत की चरणदासी परंपरा के प्रवर्तक संत चरणदास जी के प्रसिद्ध बावन शिष्यों में सहजोबाई की गणना प्रथम स्थान पर की जाती है। एक अन्य प्रसिद्ध संत कवयित्री दयाबाई उनकी गुरु-भगिनी थीं। सहजोबाई का संबंध निर्गुण पंथ के चरणदासी संप्रदाय से था। उन्होंने भी अपने संप्रदाय की परंपरा के अनुसार ईश्वर की अपेक्षा गुरु को अधिक महत्त्व दिया है। उनकी गुरु-भक्ति का स्वरूप निर्गुण संत परंपरा से ही प्रेरित हुआ है। उनके अनुसार, गुरु के सान्निध्य में आकर ही मनुष्य को निर्वाण अथवा मोक्ष की प्राप्ति संभव है। गुरु के माध्यम से ही मनुष्य के सभी विकार और दोष समाप्त होते हैं। सहजोबाई ने सर्वाधिक पद गुरु-महिमा और गुरु-स्तुति से संबंधित विषयों पर लिखे हैं।
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सहजोबाई की साहित्यिक रचनाएँ
सहजोबाई की प्रमुख रचना ‘सहजप्रकाश’ मानी जाती है, जिसका प्रसार मुख्यतः दिल्ली क्षेत्र में हुआ। इस ग्रंथ में सत्संग का निर्णय, सदगुरु की महिमा, साधु-असाधु की वाणी, साधु-महिमा और प्रेम के अतिरिक्त निर्गुण मत के अन्य सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। सहजोबाई निर्गुण संप्रदाय में दीक्षित थीं; इसलिए उनके काव्य में निर्गुण ब्रह्म को विशेष स्थान प्राप्त है। उनके काव्य में सिद्धों और नाथों की हठयोग-साधना का भी प्रभाव देखने को मिलता है।
बताना चाहेंगे ‘सहजप्रकाश’ में तत्कालीन समाज का भी चित्रण मिलता है। सहजोबाई गुरु-महिमा, वैराग्य, साधु के गुण, जन्म-मरण इत्यादि विषयों के माध्यम से सामाजिक संरचना का भी यथास्थान उल्लेख करती हैं। माना जाता है कि सन 1782 में गुरु चरणदास जी को सायुज्य-पद प्राप्त होने के पश्चात सहजोबाई लगभग 23 वर्षों तक गुरु गद्दी पर आसीन रहीं। इस अवधि में उन्होंने धर्मस्थल स्थापित कर अपने मत का प्रचार-प्रसार किया तथा अपने शिष्यों को भगवद्भक्ति के प्रचार हेतु देश-देशांतरों में भेजा।
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सहजोबाई की भाषा शैली
सहजोबाई ने भी अन्य निर्गुण संतों की भाँति अपनी रचना ‘सहजप्रकाश’ में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है। इसमें खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेली और ब्रजभाषा का सम्मिलित रूप देखने को मिलता है। उन्होंने सरल, सर्वग्राह्य और जनसाधारण की बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है, जो निर्गुण संत काव्य परंपरा की विशेषता रही है।
FAQs
सहजोबाई मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की एक सुपरिचित संत-भक्त कवयित्री थीं।
सहजोबाई का जन्म लगभग 1725 में मेवात के डेहरा गांव या दिल्ली क्षेत्र में हुआ माना जाता है।
सहजोबाई प्रसिद्ध महात्मा चरणदास जी की शिष्या थीं।
सहजोबाई ने गुरुस्तुति के उद्देश्य से ‘सहजप्रकाश’ (Sahaj Prakash) पुस्तक की रचना की थी।
सहजोबाई चरणदासी संप्रदाय की कवयित्री थीं।
आशा है कि आपको संत-भक्त कवयित्री सहजोबाई का जीवन परिचय पर हमारा यह ब्लॉग पसंद आया होगा। ऐसे ही अन्य प्रसिद्ध कवियों एवं महान व्यक्तियों के जीवन परिचय पढ़ने हेतु Leverage Edu से जुड़े रहें।
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