Aash Karan Atal Poems : पढ़िए आश करण अटल की वो कविताएं, जो आपका परिचय साहित्य के सौंदर्य से करवाएंगी

1 minute read
Aash Karan Atal Poems Photo Credit : Social media

विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों का उद्देश्य अधिकाधिक ज्ञान अर्जित करने का होता है, इसी ज्ञान की कड़ी में विद्यार्थियों को कविताओं की महत्वता को भी समझ लेना चाहिए। कविताएं समाज को साहसिक और निडर बनाती हैं, कविताएं मानव को समाज की कुरीतियों और अन्याय के विरुद्ध लड़ना सिखाती हैं। कविताओं के माध्यम से समाज की चेतना को जागृत करने वाले “आश करण अटल” की लेखनी ने सदा ही समाज के हर वर्ग को प्रेरित करने का काम किया है। Aash Karan Atal Poems विद्यार्थियों को प्रेरणा से भर देंगी, जिसके बाद उनके जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेगा।

कौन हैं आश करण अटल?

Aash Karan Atal Poems पढ़ने सेे पहले आपको आश करण अटल जी का जीवन परिचय पढ़ लेना चाहिए। भारतीय साहित्य की अप्रतीम अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि आश करण अटल भी हैं, जो कि एक हास्य कवि हैं।

20 अप्रैल 1968 को आश करण अटल का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुआ था। आश करण अटल जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। आश करण अटल ने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की। उनकी कविताओं की भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है, अपने व्यंग से उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया।

आश करण अटल की प्रमुख रचनाओं में “फूलों की तरह”, “चंदा-सूरज की किस्से”, “चौपाटी पर”, “फिल्म पूरी”, “हम क्या समझते नहीं है” इत्यादि हैं। आश करण अटल की महान रचनाओं के कारण उन्हें वर्ष 1999 में साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार, वर्ष 2016 में यश भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मीडिया : एक

Aash Karan Atal Poems आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, आश करण अटल जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “मीडिया : एक” भी है, जो कुछ इस प्रकार है:

ख़बर थी— 

एक बीमार नेता ने, लंदन में 
अंतिम साँस ली। 
उधर यमदूत नेता को लेकर 
नरक पहुँचे भी नहीं 
उससे पहले चैनल का रिपोर्टर 
लंदन पहुँच गया अपनी टीम लेकर 
और नेता के बेटे का इंटरव्यू लिया— 

“आपको कैसा लग रहा है?” 
“जी, मैं कुछ समझा नहीं, क्या कैसा लग रहा है?” 
“आपके पिताजी के मरने की ख़बर सुनकर” 
“आपको कैसा लग रहा है?” 
“जी, बहुत बुरा लग रहा है।” 
“अंतिम साँस लेने से पहले 
उन्होंने किसी दर्द या तकलीफ़ की शिकायत की थी?” 

“जी नहीं। डायरेक्ट अंतिम साँस ली थी।” 
“इससे पहले भी कभी 
उन्होंने अंतिम साँस ली थी?” 
“जी, कोशिश तो की थी 
लेकिन डॉक्टरों ने लेने नहीं दी।” 

“अंतिम साँस लेने के बाद क्या हुआ?” 
“जी, अंतिम साँस लेने के बाद वो मर गए।'' 
क्या उनको पता था 
कि अंतिम साँस लेने के बाद वे मर जाएँगे?” 
“जी, पता था।” 

“जब उनको पता था कि अंतिम साँस लेने के बाद 
वे मर जाएँगे तो उन्होंने अंतिम साँस क्यों ली?” 
“जी, राष्ट्रहित में ली।” 
“उन्होंने राष्ट्रहित में अंतिम साँस ली, 
यह आप कैसे कह सकते हैं?” 

“जी, मैं ऐसे कह सकता हूँ कि 
उन्होंने जो भी काम किया, वो या तो राष्ट्रहित में किया 
या पार्टी के हित में किया। 
अगर पार्टी के हित में किया। 
अगर पार्टी के हित में अंतिम साँस लेते 
तो चुनाव से ठीक पहले लेते, 

सहानुभूति की लहर बनती, 
दो-चार सीटें ज़्यादा मिलतीं 
यानी पार्टी के हित में 
अंतिम साँस नहीं ली। 
इसका ये मतलब हुआ 
कि उन्होंने राष्ट्रहित में अंतिम साँस ली।” 

“वे लंदन क्यों आए?” 
“जी, अंतिम साँस लेने के लिए आए।” 
“वे ये अंतिम साँस भारत में भी ले सकते थे 
इसके लिए इतनी दूर क्यों आए?” 
“जी, राष्ट्रहित में आए।” 

“आपने प्रधानमंत्री का वो बयान पढ़ा है 
जिसमें उन्होंने कहा है कि नेता जी के जाने से 
राष्ट्र का बड़ा नुक़सान हुआ है?” 
“जी पढ़ा है।” 

रिपोर्टर के चेहरे पर एक चमक-सी आई 
उसने प्रधानमंत्री के बयान में सेंध लगाई : 
“आप कह रहे हैं उन्होंने राष्ट्रहित में 
अंतिम साँस ली और प्रधानमंत्री कह रहे हैं 
कि उनके जाने से राष्ट्र का बड़ा नुक़सान हुआ है! 

अब सवाल ये उठता है कि राष्ट्रहित में 

अंतिम साँस ली तो राष्ट्र का नुक़सान कैसे हुआ? 
फ़ायदा होना चाहिए! 
फ़ायदा क्या हुआ 
ये प्रधानमंत्री को बताना चाहिए। 
और क्या इस परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए? 
सरकारी ख़र्चे पर डायलिसिस के सहारे जीवित 
निकम्मे नेताओं को राष्ट्रहित में मरने के लिए 
आगे आना चाहिए? 

बहरहाल, ये हैं कुछ अनसुलझे सवाल।” 
वो आँधी की तरह आया 
और तूफ़ान की तरह छा गया 
कुछ सवाल किए 
और जवाब लिए बिना ही 
ब्रेक पर चला गया।

-आश करण अटल

मीडिया : दो

Aash Karan Atal Poems आपकी सोच का विस्तार कर सकती हैं, आश करण अटल जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “मीडिया : दो” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

शहर के बीच 
हाई-वे का सीन था 
सीन प्रातःकालीन था 
रिपोर्टर मुस्कुराया 
और गर्व से बताया—  
“ये है एशिया का सबसे बड़ा 
ओपन एयर शौचालय 
और मैं हूँ अजय 

आप देख रहे हैं 
हमारा विशेष कार्यक्रम 
‘हाई-वे के हमदम’ 
हाथ में लौटा-डिब्बा लिए 
लोग आ रहे हैं 
जा रहे हैं 
और वापस जा रहे हैं 
हिंदू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई 
वैसे तो हर जगह लड़ाई 
हाई-वे पर भाई-भाई।” 

इसके बाद रिपोर्टर ने 
अपना रुख़ दूसरी तरफ़ किया 
और एक हाई-वे के 
हमदम का इंटरव्यू लिया— 
“आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” 

“जी, मैं क्या कर रहा हूँ 
ये तो आप देख ही रहे हैं 
पर आप यहाँ क्या कर रहे हैं?” 

रिपोर्टर बोला— 
“हम लाइव टेलीकास्ट कर रहे हैं 
हमारा विशेष कार्यक्रम— 
'हाई-वे के हमदम' 
इसमें आपका स्वागत है।” 

हमदम बोला— 
“हम तो यहाँ रोज़ आते हैं 
आज आपका स्वागत है। 
लेकिन ये तो कहो 
आज फ़ैशन शो की जगह हमारा शो? 

मज़े से फ़िल्माओ, क्या लोकेशन है 
हम धरतीपुत्र 
और ये धरती के पुत्रों का 
खुला अधिवेशन है।” 

रिपोर्टर ने पूछा— 
“क्या आपको नहीं लगता कि आप 
सरकारी नियम का उल्लघंन कर रहे हैं?” 
“जी, हम तो क़ुदरत के नियम का 
पालन कर रहे हैं” 

क़ुदरत के नियम पालन से 
सरकारी नियम पालन से 
सरकारी नियम टूटते हैं 
तो हम इसमें क्या कर सकते हैं?” 
हमदम ने बताया।  

रिपोर्टर ने इंटरव्यू आगे बढ़ाया— 
“ये हाई-वे कब से है?” 
“जी, दस साल से।” 
''यहाँ आपका अधिवेशन 
कब से चल रहा है?” 
“जी, महाभारत काल से, 
पहले यहाँ एक गाँव था 

एक दिन शहर आ पहुँचा टहलता हुआ 
और गाँव का अपहरण कर लिया 

हमने भी आधुनिकता के सामने 
समर्पण कर दिया 
नतीजा सामने है, देख लिया? 

शहर ने हमारा 
और हमने शहर का 
हुलिया बिगाड़कर रख दिया।” 

तभी न्यूज़ रीडर ने सवाल किया— 
“अजय! ख़राब मौसम या बरसात के दिन 
बाधा पहुँचाते हैं 
क्या तब भी ये लोग रोज़ आते हैं?” 
बोला अजय— 
“बरसात हो या प्रलय 
रोज़ आना पड़ता है 

आदमी खाए बिन रह सकता है 
बहाए बिना रह सकता है 
लेकिन आए बिना एक दिन से अधिक नहीं 
रह सकता संजय!” 

संजय बोला—“इस जानकारी के लिए 
शुक्रिया अजय!” 
अंतिम सवाल किया रिपोर्टर ने— 
“क्या कारण है कि शहर में 

आप न शरमाते हैं, न लजाते हैं 
इस तरह खुले में बैठ जाते हैं 
जबकि गाँव में आज भी 
लोकलाज निभाते हैं?” 

हमदम बोला— 
“गाँव में एक दूसरे को जानते हैं 
इसलिए करते हैं लाज 
यहाँ जान-पहचान ही नहीं 

तो काहे की लाज 
और किसका लिहाज़ 
गाँव में संस्कार था 
शहर में रोज़गार था 

रोज़गार के लिए गाँव छूटा 
तो आँखों की शर्म रही जाती 
वहाँ पगड़ी उतारने में 
आती थी शर्म 
यहाँ कपड़े उतारने में नहीं आती।”

-आश करण अटल

क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?

Aash Karan Atal Poems आपकी जीवनशैली में साकारत्मक बदलाव कर सकती हैं, आश करण अटल जी की कविताओं की श्रेणी में से एक कविता “क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

घर में पाते ही एकांत 
मैं रटने लगा डार्विन का सिद्धांत 
क्या हमारे पूर्वज बंदर थे, 
क्य हमारे पूर्वज बंदर थे? 

और जब मैं रट रहा था 
तब पिताजी अंदर थे 
वे आए और चिल्लाए—“ये क्या बकता है, 
पूर्वजों को बंदर कहता है? 

सोचा था पढ़ेगा-लिखेगा 
बाप-दादों का नाम रौशन करेगा 
नाम रौशन करना तो दूर 
उल्टे बता रहा है उनको लंगूर?” 

पिताजी ने खींचके एक हाथ दिया 
मैंने डार्विन साहब को याद किया 
कि आप तो मर गए 
मेरी जान को मुसीबत कर गए 

बंदर को पूर्वज मानूँ तो घर में पिटाई 
न मानूँ तो स्कूल में धुलाई 
मैंने सोचा, सबसे पूछा जाए 
और फिर किसी नतीजे पर पहुँचा जाए 

मैंने पूछा अपने पड़ोसी से— 
“क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?” 
तो वे बोले—“तुम्हारे होंगे 
हमारे पूर्वज तो अगरवाल थे।” 

मैंने एक सिनेमा के दर्शक से पूछा— 
“क्या आदमी पहले बंदर था?” 
वह बोला—“था क्या, आज भी है 
विश्वास न हो, तो 
इस फ़िल्म में हीरो को देख लो 
बंदर से दो क़दम आगे है 
अगर कपड़े निकाल दो तो पूरा बंदर है।” 

एक दिन दादाजी सायंकालीन 
आम के भयंकर शौक़ीन 
अपने एक मित्र राम दुलारे के संग बाज़ार को गए 
आम का दाम सुन 
राम दुलारे राम को प्यारे हो गए, 
दादाजी मुँह लटकाए, घर वापस आए 

मैंने दादाजी से पूछा— 
“क्या आदमी पहले बंदर था?” 
दादाजी बोले रोते-रोते— 
“काश! हम आज भी बंदर होते 
तो राम दुलारे, यूँ नहीं मरता 
किसी पेड़ पे चढ़ता, जी भरके आम चूसता 
न बाज़ार जाता, न भाव पूछता 
अगर बंदर होता तो राम दुलारे यूँ नहीं मरता!” 

मैंने पूछा एक चोर से— 
“क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?” 
वह बोला—“साहब! 
सिद्धांत तो यही कहता है 
लेकिन जो सिद्धांतों पर चलता है 

वह भूखों मरता है 
मुझे भूखों नहीं मरना 
बंदर को पूर्वज मानकर 
पुलिसवालों को नाराज़ मानकर 
अपने माई-बाप तो पुलिसवाले हैं 
अपन तो उन्हीं के पैदा किए हुए 
और उन्हीं के पाले हैं।” 

मैंने पूछा एक पुलिसवाले से— 
“क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?” 
वह बोला—“जी, हम तो सिपाही हैं 
जो कहेंगे, मान लेंगे 
पर आप ज़रा धीरे बोलिए 
दरोग़ा जी जाग जाएँगे। 

वे तो अपने बाप को 
बाप नहीं मानते 
बंदर को क्या मानेंगे 
उन्होंने सुन लिया 
तो आप और डार्विन 
दोनों को अंदर धर देंगे।” 

मैंने एक नेता से पूछा— 
“क्या आदमी पहले बंदर था?” 
वह बोला—“आदमी पहले बंदर था ये सही है 
पर लगता है तुमको हमारी 
पार्टी का इतिहास मालूम नहीं है 
हमारी पार्टी ने ही आंदोलन चलाकर 

बंदर को आदमी बनाया 
उसके बाद देश आज़ाद कराया 
बेटा, हमारी पार्टी के गुण गा 
हमारी पार्टी नहीं होती 
तो तू आज भी बंदर होता 
इस बार चुनाव जीत गए 
तो हम फिर एक आंदोलन चलाएँगे 
जिसमें बचे-खुचे बंदरों को आदमी बनाएँगे।” 

मैंने एक मदारी से पूछा— 
“क्या आदमी पहले बंदर था?” 
वह बोला—“देख भइये! 
हम आदमियों को बंदर से मुक़ाबला नहीं करना चाहिए 

कहाँ आदमी, कहाँ बंदर 
आदमी की आज क्या है क़दर 
मैं जगबीती नहीं—आपबीती सुना रहा हूँ 
घर की बात बता रहा हूँ 
मेरे एक बंदर जैसा बेटा हूँ 
और एक ये बेटे जैसे बंदर 
मैंने इसे नचा-नचाकर उसे पढ़ाया-लिखाया 
एम.ए. पास कराया 
तीन साल हो गए 
वो आज भी नौकरी के लिए मारा-मारा फिरता है 
और ऐसे में ये बंदर 
मेरे पूरे परिवार का पेट भरता है 
देख भइये, हम आदमियों को 
बंदर से मुक़ाबला नहीं करना चाहिए।” 

अंत में मैंने पूछा ओशो रजनीश से— 
“क्या हमारे पूर्वज बंदर थे?” 
वह बोले—“प्रश्न सामयिक है, मज़ेदार है 
लेकिन एक बार बंदर से भी पूछकर देख लो 
कि क्या उसे आज के मनुष्य का 
पूर्वज बनना स्वीकार है 
वह इनकार कर देगा 
वह शर्म के मारे डूब मरेगा 

या कोई आदमी जैसा चालक बंदर रहा 
तो अदालत में मान-हानि का दावा कर देगा 
कि हुज़ूर, हम बंदरों की प्रतिष्ठा को 
मिट्टी में मिलाया जा रहा है 
इस भ्रष्ट और हिंसक मनुष्य को 
हमारा वंशज बताया जा रहा है 
मनुष्य होना एक दुर्लभ घटना है 
मनुष्य अभी मनुष्य नहीं बना है।” 

हर एक की बात ने मन को छुआ 
उत्तर तो नहीं मिला 
पर एक और प्रश्न उठ खड़ा हुआ 
अब मैं ये नहीं पूछता 
कि क्या आदमी पहले बंदर था? 
वो प्रश्न खड़ा है वहीं का वहीं 
अब मैं पूछता हूँ—आदमी 
आदमी भी है कि नहीं?

-आश करण अटल

विश्वामित्र द्वितीय यानी मैं

Aash Karan Atal Poems के माध्यम से आपको कवि की भावनाओं का अनुमान लगेगा, आश करण अटल जी की कविताओं में से एक कविता “विश्वामित्र द्वितीय यानी मैं” भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:

मैं विश्वामित्र की तरह 
तपस्या करता रहा 
तिल-मिल गलता रहा 

दिन में रात में गर्मी में बरसात में 
तपस्या चलती रही 
मन में आश्वस्त था 

फल गई तो फल गई 
वरना मेनका तो कहीं नहीं गई 

एक दिन यों हुआ 
मेरी तपस्या में विघ्न पड़ा 
झन-झन पायल की झनकार सुनाई पड़ी 
फिर रागिनी छिड़ी 
वातावरण में मस्ती छाई 
मैं समझा अबके मेनका आई 
तभी एकबारगी मुझे 
उस नादान लड़कियों की याद आई 

जिनके पीछे मैं बहुत घूमा 
पर जिन्होंने मुझे घास तक नहीं चराई 
अब जब कल वे मेनका वाली बात सुनेंगी 
तो ख़ूब जलेंगी 
अच्छा हुआ उनका भ्रम गया 
अपना तो मेनका के साथ जम गया 
तपस्या करते-करते बाल बढ़ गए दाढ़ी बढ़ गई 
जटा में जूएँ पड़ गई 

मन में सोचा—मेनका इस रूप में देखेगी 
तो क्या सोचेगी 
मन को समझाया, सोचेगी क्या? 
मेनका हम ऋषि-मुनियों के लिए नई थोड़ी है 
उसने कइयों की तपस्या तोड़ी है 
वो ख़ूब खेली-खाई है 
उसको पता है ये जटा-जूट और कृशकाया ही 
हम तपस्वियों की कमाई है 
तभी एकदम पास में बाँसुरी के स्वर सुनाई पड़े 

मेरे कान हुए खड़े 
कि ये क्या गड़बड़ घोटाला है 
दाल में ज़रूर कुछ काला है 
समाधि से जगा आँखें खुलीं तो झटका लगा 
वहाँ मेनका नहीं साक्षात् खड़े थे कृष्ण कन्हाई 
बोले—“वत्स, तेरी तपस्या पूर्ण हुई बधाई 
तू भवसागर तर गया।” 

मैंने मन में सोचा कि मर गया 
ये तो भगवान जी आ गए 
वो अप्सरा की बच्ची मेनका कहाँ मर गई 
लगता है, तपस्या फल गई 
और मेनका हाथ से निकल गई 
मेरा दिल टूट गया, मैंने डरते हुए पूछा— 
“भगवान! वो मेनका वाला सीन कहाँ छूट गया?” 

भगवान बोले—“भक्त, 
जब कोई तपस्या तोड़ने के लिए मेनका को भेजता है 
मेनका करती तप का हरण 
उससे पहले मैंने कर लिया तेरा वरण।” 

मैंने कहा—“बॉस! ये आपने अच्छा नहीं किया 
पता नहीं किस जनम का बदला लिया 
मैंने इस दिन के लिए तपस्या की थी? 
आपको बीच में आने की क्या पड़ी थी?” 

अब भगवान हैरान, पूछा— 
“जब तुझे तेरी आवश्यकता नहीं थी 
तो तू तपस्या करने क्यों लगा?” 

मैंने कहा—“प्रभु! 
मेरे साथ हुआ है दग़ा, बात यों बढ़ी 
कि मैंने विश्वामित्र की कहानी पढ़ी 
और कहानी में मेनका का 
तपस्या तोड़ने आना मुझे भा गया 
और इस चक्कर में यहाँ आ गया 
मुझसे तो विश्वामित्र ठीक रहे, 
बुढ़ापे में मेनका पा गए 
यहाँ मेनका की ज़रूरत थी तो आप आ गए 
प्रभु, आप हमेशा गड़बड़ करते रहे हैं 
पहले विश्वामित्र का बुढ़ापा बिगाड़ा 
अब मेरी जवानी के पीछे पड़े हैं 

मैंने माना कि बड़ी बात है आपको पाना 
पर आपको कौन समझाए 
ये तो ठीक वैसे ही हुआ 
जैसे किसी मुख्यमंत्री को 
राज्यपाल बना दिया जाए 
हालाँकि राज्यपाल का पद बड़ा है 
पर मुख्यमंत्री का अलग मज़ा है 
प्रभु, मेरे साथ अन्याय हो रहा है 
अभी मेरी उम्र ही क्या है 
अभी आप जाइए और मेनका को भेज के 

मेरी तपस्या तुड़वाइए 
पहले मेनका को पा लूँ तो फिर आपको पा सकूँगा 
अगर मेनका छूट गई तो 
आपको मेनका छूट गई तो 
आपको पाकर भी नहीं पा सकूँगा 
जीवन-भर मेनका ने ख़यालों में उलझा रहूँगा।”

-आश करण अटल
आशा है कि Aash Karan Atal Poems के माध्यम से आप आश करण अटल की कविताएं पढ़ पाएं होंगे, जो कि आपको सदा प्रेरित करती रहेंगी। साथ ही यह ब्लॉग आपको इंट्रस्टिंग और इंफॉर्मेटिव भी लगा होगा, इसी प्रकार की अन्य कविताएं पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ बने रहें।

प्रातिक्रिया दे

Required fields are marked *

*

*