Josh Malihabadi Shayari: जोश मलीहाबादी उर्दू भाषा की एक लोकप्रिय प्रसिद्ध उर्दू शायर थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में अपने समय के समाजिक और राजनीतिक विषयों पर खुलकर लिखा। जोश मलीहाबादी उर्दू के एक ऐसे लोकप्रिय शायर थे, जिन्हें “शायर-ए-इंक़लाब” के नाम से भी जाना जाता है। जोश मलीहाबादी के शेर, शायरी और ग़ज़लें आपको उर्दू साहित्य की खूबसूरती और साहित्य की समझ से परिचित करवाने का काम करती हैं। साथ ही जोश मलीहाबादी की रचनाएं आज भी एक अलग ही बुलंद अंदाज में इश्क़ और इंकलाब की पैरवी करती हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से आप चुनिंदा Josh Malihabadi Shayari पढ़ पाएंगे, जो आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने का सफल प्रयास करेंगी।
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जोश मलीहाबादी का जीवन परिचय
जोश मलीहाबादी का जन्म 5 दिसंबर 1898 को उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में हुआ था। जोश मलीहाबादी के वालिद बशीर अहमद ख़ां बशीर, दादा मुहम्मद अहमद ख़ां अहमद और परदादा फ़क़ीर मुहम्मद ख़ां गोया मारूफ़ शायर थे। शायरों के घराने से आने के कारण उन्हें शायरी विरासत में मिली और उनकी शायरी समय के साथ-साथ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।
जोश मलीहाबादी का मूल नाम शब्बीर अहमद हसन ख़ाँ था, उन्हें “शायर-ए-इंक़लाब” (क्रांति का शायर) की नाम से भी जाना जाता है। उनकी रचनाओं में ग़ज़ल, नज़्म, क़सीदे, मसनवी और रुबाई शामिल थीं, जो कि उस समय के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आधारित थीं। उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाओं में “शहर-ए-अफ़सोस”, “शहर-ए-नौ”, “जिंदगी और मौत”, “नया दौर” और “आँसू” शामिल हैं। 22 फरवरी 1982 को पाकिस्तान के इस्लामाबाद में उनका निधन हो गया था।
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जोश मलीहाबादी की शायरी – Josh Malihabadi Shayari
जोश मलीहाबादी की शायरी पढ़कर युवाओं में साहित्य को लेकर एक समझ पैदा होगी, जो उन्हें उर्दू साहित्य की खूबसूरती से रूबरू कराएगी, जो इस प्रकार है –
“हद है अपनी तरफ़ नहीं मैं भी
-जोश मलीहाबादी
और उन की तरफ़ ख़ुदाई है…”
“मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है
-जोश मलीहाबादी
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है…”
“उस ने वा’दा किया है आने का
-जोश मलीहाबादी
रंग देखो ग़रीब ख़ाने का…”
“इंसान के लहू को पियो इज़्न-ए-आम है
-जोश मलीहाबादी
अंगूर की शराब का पीना हराम है…”
“वहाँ से है मिरी हिम्मत की इब्तिदा वल्लाह
-जोश मलीहाबादी
जो इंतिहा है तिरे सब्र आज़माने की…”
“काम है मेरा तग़य्युर नाम है मेरा शबाब
-जोश मलीहाबादी
मेरा ना’रा इंक़िलाब ओ इंक़िलाब ओ इंक़िलाब…”
“आड़े आया न कोई मुश्किल में
-जोश मलीहाबादी
मशवरे दे के हट गए अहबाब…”
“सुबूत है ये मोहब्बत की सादा-लौही का
-जोश मलीहाबादी
जब उस ने वादा किया हम ने ए’तिबार किया…”
“इस दिल में तिरे हुस्न की वो जल्वागरी है
-जोश मलीहाबादी
जो देखे है कहता है कि शीशे में परी है…”
“हम ऐसे अहल-ए-नज़र को सुबूत-ए-हक़ के लिए
-जोश मलीहाबादी
अगर रसूल न होते तो सुब्ह काफ़ी थी…”
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मोहब्बत पर जोश मलीहाबादी की शायरी
मोहब्बत पर जोश मलीहाबादी की शायरियाँ जो आपका मन मोह लेंगी –
“दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
-जोश मलीहाबादी
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया…”
“एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के
-जोश मलीहाबादी
एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है…”
“कोई आया तिरी झलक देखी
-जोश मलीहाबादी
कोई बोला सुनी तिरी आवाज़…”
“हम गए थे उस से करने शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
-जोश मलीहाबादी
मुस्कुरा कर उस ने देखा सब गिला जाता रहा…”
“गुज़र रहा है इधर से तो मुस्कुराता जा
-जोश मलीहाबादी
चराग़-ए-मज्लिस-ए-रुहानियाँ जलाता जा…”
“इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो ‘जोश’
-जोश मलीहाबादी
ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यूँ न हो…”
“हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशन
-जोश मलीहाबादी
ख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है…”
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जोश मलीहाबादी के शेर
जोश मलीहाबादी के शेर पढ़कर युवाओं को जोश मलीहाबादी की लेखनी से प्रेरणा मिलेगी। जोश मलीहाबादी के शेर युवाओं के भीतर सकारात्मकता का संचार करेंगे, जो कुछ इस प्रकार हैं;
“सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया
-जोश मलीहाबादी
जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया…”
“इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकी
-जोश मलीहाबादी
झुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?”
“हाँ आसमान अपनी बुलंदी से होशियार
-जोश मलीहाबादी
अब सर उठा रहे हैं किसी आस्ताँ से हम…”
“जितने गदा-नवाज़ थे कब के गुज़र चुके
-जोश मलीहाबादी
अब क्यूँ बिछाए बैठे हैं हम बोरिया न पूछ…”
“मिला जो मौक़ा तो रोक दूँगा ‘जलाल’ रोज़-ए-हिसाब तेरा
-जोश मलीहाबादी
पढूँगा रहमत का वो क़सीदा कि हँस पड़ेगा अज़ाब तेरा…”
“बादबाँ नाज़ से लहरा के चली बाद-ए-मुराद
-जोश मलीहाबादी
कारवाँ ईद मना क़ाफ़िला-सालार आया…”
“इधर तेरी मशिय्यत है उधर हिकमत रसूलों की
-जोश मलीहाबादी
इलाही आदमी के बाब में क्या हुक्म होता है…”
“पहचान गया सैलाब है उस के सीने में अरमानों का
-जोश मलीहाबादी
देखा जो सफ़ीने को मेरे जी छूट गया तूफ़ानों का…”
“अब ऐ ख़ुदा इनायत-ए-बेजा से फ़ाएदा
-जोश मलीहाबादी
मानूस हो चुके हैं ग़म-ए-जावेदाँ से हम…”
“बिगाड़ कर बनाए जा उभार कर मिटाए जा
-जोश मलीहाबादी
कि मैं तिरा चराग़ हूँ जलाए जा बुझाए जा…”
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जोश मलीहाबादी की दर्द भरी शायरी
जोश मलीहाबादी की दर्द भरी शायरियाँ कुछ इस प्रकार हैं –
“इस का रोना नहीं क्यूँ तुम ने किया दिल बर्बाद
-जोश मलीहाबादी
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया…”
“आप से हम को रंज ही कैसा
-जोश मलीहाबादी
मुस्कुरा दीजिए सफ़ाई से…”
“वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा
-जोश मलीहाबादी
जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया…”
“अब तक न ख़बर थी मुझे उजड़े हुए घर की
-जोश मलीहाबादी
वो आए तो घर बे-सर-ओ-सामाँ नज़र आया…”
“कोई आया तिरी झलक देखी
-जोश मलीहाबादी
कोई बोला सुनी तिरी आवाज़…”
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जोश मलीहाबादी शायरी २ लाइन्स
जोश मलीहाबादी शायरी २ लाइन्स पढ़कर आप जोश मलीहाबादी की लेखनी के बारे में आसानी से जान पाएंगे, Josh Malihabadi Shayari कुछ इस प्रकार है-
“अब दिल का सफ़ीना क्या उभरे तूफ़ाँ की हवाएँ साकिन हैं
-जोश मलीहाबादी
अब बहर से कश्ती क्या खेले मौजों में कोई गिर्दाब नहीं…”
“दुनिया ने फ़सानों को बख़्शी अफ़्सुर्दा हक़ाएक़ की तल्ख़ी
-जोश मलीहाबादी
और हम ने हक़ाएक़ के नक़्शे में रंग भरा अफ़्सानों का…”
“ज़रा आहिस्ता ले चल कारवान-ए-कैफ़-ओ-मस्ती को
-जोश मलीहाबादी
कि सत्ह-ए-ज़ेहन-ए-आलम सख़्त ना-हमवार है साक़ी…”
“महफ़िल-ए-इश्क़ में वो नाज़िश-ए-दौराँ आया
-जोश मलीहाबादी
ऐ गदा ख़्वाब से बेदार कि सुल्ताँ आया…”
“मिले जो वक़्त तो ऐ रह-रव-ए-रह-ए-इक्सीर
-जोश मलीहाबादी
हक़ीर ख़ाक से भी साज़-बाज़ करता जा…”
“शबाब-ए-रफ़्ता के क़दम की चाप सुन रहा हूँ मैं
-जोश मलीहाबादी
नदीम अहद-ए-शौक़ की सुनाए जा कहानियाँ…”
जोश मलीहाबादी की गजलें
जोश मलीहाबादी की गजलें आज भी प्रासंगिक बनकर बेबाकी से अपना रुख रखती हैं, जो नीचे दी गई हैं-
मेरी हालत देखिए और उन की सूरत देखिए
मेरी हालत देखिए और उन की सूरत देखिए फिर निगाह-ए-ग़ौर से क़ानून-ए-क़ुदरत देखिए सैर-ए-महताब-ओ-कवाकिब से तबस्सुम ता-बके रो रही है वो किसी की शम-ए-तुर्बत देखिए आप इक जल्वा सरासर मैं सरापा इक नज़र अपनी हाजत देखिए मेरी ज़रूरत देखिए अपने सामान-ए-ताय्युश से अगर फ़ुर्सत मिले बेकसों का भी कभी तर्ज़-ए-मईशत देखिए मुस्कुरा कर इस तरह आया न कीजे सामने किस क़दर कमज़ोर हूँ मैं मेरी सूरत देखिए आप को लाया हूँ वीरानों में इबरत के लिए हज़रत-ए-दिल देखिए अपनी हक़ीक़त देखिए सिर्फ़ इतने के लिए आँखें हमें बख़्शी गईं देखिए दुनिया के मंज़र और ब-इबरत देखिए मौत भी आई तो चेहरे पर तबस्सुम ही रहा ज़ब्त पर है किस क़दर हम को भी क़ुदरत देखिए ये भी कोई बात है हर वक़्त दौलत का ख़याल आदमी हैं आप अगर तो आदमियत देखिए फूट निकलेगा जबीं से एक चश्मा हुस्न का सुब्ह उठ कर ख़ंदा-ए-सामान-ए-क़ुदरत देखिए रश्हा-ए-शबनम बहार-ए-गुल फ़रोग़-ए-मेहर-ओ-माह वाह क्या अशआर हैं दीवान-ए-फ़ितरत देखिए इस से बढ़ कर और इबरत का सबक़ मुमकिन नहीं जो नशात-ए-ज़िंदगी थे उन की तुर्बत देखिए थी ख़ता उन की मगर जब आ गए वो सामने झुक गईं मेरी ही आँखें रस्म-ए-उल्फ़त देखिए ख़ुश-नुमा या बद-नुमा हो दहर की हर चीज़ में 'जोश' की तख़्ईल कहती है कि नुदरत देखिए -जोश मलीहाबादी
जब से मरने की जी में ठानी है
जब से मरने की जी में ठानी है किस क़दर हम को शादमानी है शाइरी क्यूँ न रास आए मुझे ये मिरा फ़न्न-ए-ख़ानदानी है क्यूँ लब-ए-इल्तिजा को दूँ जुम्बिश तुम न मानोगे और न मानी है आप हम को सिखाएँ रस्म-ए-वफ़ा मेहरबानी है मेहरबानी है दिल मिला है जिन्हें हमारा सा तल्ख़ उन सब की ज़िंदगानी है कोई सदमा ज़रूर पहुँचेगा आज कुछ दिल को शादमानी है -जोश मलीहाबादी
बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया
बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया सोई जो अक़्ल रूह ने बेदार कर दिया अल्लाह रे हुस्न-ए-दोस्त की आईना-दारियाँ अहल-ए-नज़र को नक़्श-ब-दीवार कर दिया या रब ये भेद क्या है कि राहत की फ़िक्र ने इंसाँ को और ग़म में गिरफ़्तार कर दिया दिल कुछ पनप चला था तग़ाफ़ुल की रस्म से फिर तेरे इल्तिफ़ात ने बीमार कर दिया कल उन के आगे शरह-ए-तमन्ना की आरज़ू इतनी बढ़ी कि नुत्क़ को बेकार कर दिया मुझ को वो बख़्शते थे दो आलम की नेमतें मेरे ग़ुरूर-ए-इश्क़ ने इंकार कर दिया ये देख कर कि उन को है रंगीनियों का शौक़ आँखों को हम ने दीदा-ए-ख़ूँ-बार कर दिया -जोश मलीहाबादी
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है ख़िलाफ़-ए-मस्लहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह वो आते हैं तो चेहरे पर तग़य्युर आ ही जाता है हवाएँ ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बन कर मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है शगूफ़ों पर भी आती हैं बलाएँ यूँ तो कहने को मगर जो फूल बन जाता है वो कुम्हला ही जाता है समझती हैं मआल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है -जोश मलीहाबादी
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