चन्द्रगुप्त मौर्य को भारत के सबसे महान शासकों में से एक माना जाता है। वे मध्यकालीन भारत के सबसे शक्तिशाली सम्राटों में से एक थे। उन्होंने ही अपने गुरु चाणक्य के मार्गदर्शन में महान मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी जिस वंश में आगे चलकर अशोक महान जैसे महान शासक का जन्म हुआ था। यहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म से लेकर उनकी मृत्यु तक उनके जीवन के सभी महत्वपूर्ण घटनाओं और पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया जा रहा है।
जन्म | 340 ई.पू. |
पूरा नाम | चन्द्रगुप्त मौर्य |
जन्म स्थान | पाटलिपुत्र मगध (वर्तनाम में पटना, बिहार) |
माता का नाम | नंदा |
पिता का नाम | मुरा |
पत्नी का नाम | दुर्धरा |
पुत्र का नाम | बिंदुसार |
मृत्यु | 300 ई.पू. |
This Blog Includes:
- चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन परिचय
- चन्द्रगुप्त मौर्य की सैन्य शक्ति
- चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य
- चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था
- मौर्य शासन के स्रोत
- चन्द्रगुप्त मौर्य का अखंड भारत का स्वप्न
- चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा प्राप्त की गई विजय
- चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर झुकाव
- चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु
- FAQs
चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन परिचय
चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 300 ई.पू. में हुआ था। इन्होंने महान मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त मौर्य पूरे भारत को एक करने में कामयाब रहे थे। उन्होंने भारतवर्ष पर 24 वर्ष तक शासन किया। चन्द्रगुप्त को भारत के इतिहास का एक महान सम्राट माना जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के गद्दी पर बैठने से पहले सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया था। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, जो चन्द्र गुप्त के प्रधानमन्त्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धान्तों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।
सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत पर धनानंद का शासन था। चाणक्य ने नन्दवंश को ख़त्म करने का निश्चय लिया था। अपनी योजना के तहत चंद्रगुत ने सर्वप्रथम पंजाब पर कब्ज़ा किया। उसका यवनों के विरुद्ध स्वातन्त्यय युद्ध सम्भवतः सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरम्भ हो गया था। जस्टिन के अनुसार ‘सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त भारत ने सान्द्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बन्धन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला।’ चन्द्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियान लगभग 323 ई.पू. में आरम्भ किया, किन्तु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चन्द्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिन्ध के प्रान्त मिल गए।
चन्द्रगुप्त मौर्य की पहली पत्नी का नाम दुर्धरा था। इनसे उन्हें बिन्दुसार नाम का पुत्र प्राप्त हुआ। उनकी दूसरी पत्नी यूनान के प्रधानमंत्री की पुत्री हेलना थी। इससे उन्हें जस्टिन नाम का पुत्र मिला।
चन्द्रगुप्त मौर्य की सैन्य शक्ति
चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल और शक्तिशाली सेना थी। चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना का विवरण इस प्रकार है :
- मेगास्थनीज वर्णन करता है की एक बार जब चंद्रगुप्त छावनी लगा कर रुका हुआ था तब वो अपने साथ 4 लाख की सेना लेकर आया हुआ था जिससे हम अनुमान लगा सकते है कि चंद्रगुप्त मौर्य के पास निश्चित रूप से विशाल सैन्यबल मौजूद था।
- प्लिनी लिखित नेचुरेलिस हिस्टोरिया के किताब 4 के अध्याय 22 के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में निम्नलिखित सैनिक थे :-
- 6,00,000 पैदल सेना
- 30,000 घुड़सवार सेना
- 8,000 युद्ध रथ
- 9,000 युद्ध हाथी
- चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना के सैनिकों की कुल संख्या 6,90,000 थी। ये विशाल सेना दल उस वक्त मौजूद किसी भी राजा के तुलना में सबसे अधिक थी ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य
चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बहुत ही विशाल था। इसमें लगभग सम्पूर्ण उत्तरी और पूर्वी भारत के साथ साथ उत्तर में बलूचिस्तान, दक्षिण में मैसूर तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विस्तृत भूप्रदेश सम्मिलित था। शासन को सुविधाजनक बनाने के लिए अलग अलग प्रांतों में बांटा गया था। प्रांतों के शासक सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य को रिपोर्ट करते थे। राज्यपालों की मदद के लिए मंत्रिमंडल गठित किया जाता था। केंद्रीय और प्रांतीय शासन के विभिन्न विभाग बने हुए थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र हुआ करती थी। इसे अब पटना के नाम से जाना जाता है जो कि बिहार प्रांत की राजधानी है। इस राजधानी को सुदृढ़ सड़कों और चौड़े राजमार्गों द्वारा मौर्य साम्राज्य के अन्य राज्यों से जोड़ा गया था ताकि सम्राट को शासन करने में कोई परेशानी न हो।
चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था
चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की शासन व्यवस्था का पता मुख्य रूप से मेगस्थनीज़ के वर्णन और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से होता है। राजा, शासन के विभिन्न अंगों का प्रधान था। शासन के कार्यों में वह अथक रूप से व्यस्त रहता था। अर्थशास्त्र में राजा की दैनिक चर्या का आदर्श कालविभाजन दिया गया है। मेगेस्थनीज के अनुसार राजा दिन में नहीं सोता वरन् दिनभर न्याय और शासन के अन्य कार्यों के लिये दरबार में ही रहता है।
मेगेस्थनीज और कौटिल्य दोनों से ही ज्ञात होता है कि राजा के प्राणों की रक्षा के लिये समुचित व्यवस्था थी। राजा के शरीर की रक्षा अस्त्रधारी स्त्रियाँ करती थीं। मेगेस्थनीज का कथन है कि राजा को निरन्तर प्राणों का डर लगा रहता था जिससे हर रात वह अपना शयनकक्ष बदलता था। राजा केवल युद्धयात्रा, यज्ञानुष्ठान, न्याय और आखेट के लिये ही अपने प्रासाद से बाहर आते थे। शिकार के समय राजा का मार्ग रस्सियों से घिरा होता था जिनकों लाँघने पर प्राणदण्ड मिलता था।
अर्थशास्त्र में राजा की सहायता के लिये मन्त्रिपरिषद् की व्यवस्था थी।
कौटिल्य के अनुसार राजा को बहुमत मानना चाहिए और आवश्यक प्रश्नों पर उपस्थित मन्त्रियों का विचार जानने का प्रयास करना चाहिए। मन्त्रिपरिषद् की मन्त्रणा को गुप्त रखते का विशेष ध्यान रखा जाता था। मेगेस्थनीज ने दो प्रकार के अधिकारियों का उल्लेख किया है – मन्त्री और सचिव। इनकी संख्या अधिक नहीं थी किन्तु ये बड़े महत्वपूर्ण थे और राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। अर्थशास्त्र में शासन के अधिकारियों के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख है। शासन के विभिन्न कार्यों के लिये पृथक् विभाग थे, जैसे कोष, आकर, लक्षण, लवण, सुवर्ण, कोष्ठागार, पण्य, कुप्य, आयुधागार, पौतव, मान, शुल्क, सूत्र, सीता, सुरा, सून, मुद्रा, विवीत, द्यूत, वन्धनागार, गौ, नौ, पत्तन, गणिका, सेना, संस्था, देवता आदि, जो अपने अपने अध्यक्षों के अधीन थे।
मेगस्थनीज के अनुसार राजा की सेवा में गुप्तचरों की एक बड़ी सेना होती थी। ये अन्य कर्मचारियों पर कड़ी दृष्टि रखते थे और राजा को प्रत्येक बात की सूचना देते थे। अर्थशास्त्र में भी चरों की नियुक्ति और उनके कार्यों को विशेष महत्व दिया गया है।
मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगरशासन का वर्णन किया है जो संभवत: किसी न किसी रूप में अन्य नगरों में भी प्रचलित रही होगी। अर्थशास्त्र में दो प्रकार की न्यायसभाओं का उल्लेख है और उनकी कार्यविधि तथा अधिकार क्षेत्र का विस्तृत विवरण है। साधारण प्रकार धर्मस्थीय को दीवानी और कण्टकशोधन को फौजदारी की अदालत कह सकते हैं। दण्डविधान कठोर था, शिल्पियों का अंगभंग करने और जानबूझकर विक्रय पर राजकर न देने पर प्राणदण्ड का विधान था। विश्वासघात और व्यभिचार के लिये अंगच्छेद का दण्ड था।
मेगस्थनीज ने राजा को भूमि का स्वामी कहा है। भूमि के स्वामी कृषक थे। राज्य की जो आय अपनी निजी भूमि से होती थी उसे सीता और शेष से प्राप्त भूमिकर का भाग कहते थे। इसके अतिरिक्त सीमाओं पर चुंगी, तटकर, विक्रयकर, तोल और माप के साधनों पर कर, द्यूतकर, वेश्याओं, उद्योगों और शिल्पों पर कर, दण्ड तथा आकर और वन से भी राज्य को आय थी।
अर्थशास्त्र का आदर्श है कि प्रजा के सुख और भलाई में ही राजा का सुख और भलाई है। अर्थशास्त्र में राजा के द्वारा अनेक प्रकार के जनहित कार्यों का निर्देश है जैसे बेकारों के लिये काम की व्यवस्था करना, विधवाओं और अनाथों के पालन का प्रबन्ध करना, मजदूरी और मूल्य पर नियन्त्रण रखना। मेगस्थनीज ऐसे अधिकारियों का उल्लेख करता है जो भूमि को नापते थे और सभी को सिंचाई के लिये नहरों के पानी का उचित भाग मिले, इसलिए नहरों और प्रणालियों का निरीक्षण करते थे। सिंचाई की व्यवस्था के लिये चन्द्रगुप्त ने विशेष प्रयत्न किया, इस बात का समर्थन रुद्रदामन् के जूनागढ़ के अभिलेख से होता है।
मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त के सैन्यसंगठन का भी विस्तार के साथ वर्णन किया है। चन्द्रगुप्त की विशाल सेना में छ: लाख से भी अधिक सैनिक थे। सेना का प्रबन्ध युद्ध परिषद् करती थी जिसमें पाँच पाँच सदस्यों की छ: समितियाँ थीं। इनमें से पाँच समितियाँ क्रमश: नौ, पदाति, अश्व, रथ और गज सेना के लिये थीं। एक समिति सेना के यातायात और आवश्यक युद्धसामग्री के विभाग का प्रबंध देखती थी।
मौर्य शासन के स्रोत
मौर्य शासन के बारे में हमें विभिन्न स्रोतों के द्वारा पता चलता है। ऐसे कई ग्रन्थ और स्मारक मिले हैं जिनसे चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल और उनके जीवन के बारे में हमें विभिन्न ग्रंथों और स्मारकों के द्वारा पता चलता है। इन पुस्तकों और स्मारकों के बारे में यहाँ विस्तार से बताया जा रहा है :
प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तक
- अर्थशास्त्र , कौटिल्य
- मुद्रा राक्षस , विशाखा दत्ता
- इंडिका, मेगास्थेनेस
- महाभाष्य , पतंजलि
- मालविकाग्निमित्रम् , कालीदास
- हर्षचरित , बाणभट्ट
अभिलेख / शिलालेख प्रमाण
- अशोक के अभिलेख / शिलालेख
- खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख
चन्द्रगुप्त मौर्य का अखंड भारत का स्वप्न
चन्द्रगुप्त का साम्राज्य अत्यन्त विस्तृत था। इसमें लगभग सम्पूर्ण उत्तरी और पूर्वी भारत के साथ साथ उत्तर में बलूचिस्तान, दक्षिण में मैसूर तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विस्तृत भूप्रदेश सम्मिलित था। इनका साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिन्द्कुश तक दक्षिण में कर्नाटक तक पूर्व में बंगाल तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक था। साम्राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी सम्राट स्वयं था। शासन की सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभाजित कर दिया गया था। प्रान्तों के शासक सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होते थे। राज्यपालों की सहायता के लिये एक मन्त्रिपरिषद् हुआ करती थी। केन्द्रीय तथा प्रान्तीय शासन के विभिन्न विभाग थे और सबके सब एक अध्यक्ष के निरीक्षण में कार्य करते थे। साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेश सड़कों एवं राजमार्गों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए थे।
पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) चन्द्रगुप्त की राजधानी थी जिसके विषय में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ ने विस्तृत विवरण किया है। नगर के प्रशासनिक वृत्तान्तों से हमें उस युग के सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को समझने में अच्छी सहायता मिलती है। मौर्य शासन प्रबन्ध की प्रशंसा आधुनिक राजनीतिज्ञों ने भी की है जिसका आधार ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ एवं उसमें स्थापित की गई राज्य विषयक मान्यताएँ हैं। चन्द्रगुप्त के समय में शासनव्यवस्था के सूत्र अत्यन्त सुदृढ़ थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा प्राप्त की गई विजय
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अलेक्सेंडर को चाणक्य नीति के अनुसार चलकर ही हराया था। इसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य एक ताकतवर शासक के रूप में सामने आ गए थे, उन्होंने इसके बाद अपने सबसे बड़े दुश्मन नंदा पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उन्होंने हिमालय के राजा पर्वत्का के साथ मिल कर धना नंदा पर आक्रमण किया। 321 BC में कुसुमपुर में ये लड़ाई हुई जो कई दिनों तक चली अंत में चन्द्रगुप्त मौर्य को विजय प्राप्त हुई और उत्तर का ये सबसे मजबूत मौर्या साम्राज्य बन गया। इसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तर से दक्षिण की ओर अपना रुख किया और बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक राज्य फ़ैलाने में लगे रहे। विन्ध्य को डेक्कन से जोड़ने का सपना चन्द्रगुप्त मौर्य ने सच कर दिखाया, दक्षिण का अधिकतर भाग मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया था।
305 BCE में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पूर्वी पर्शिया में अपना साम्राज्य फैलाना चाहा, उस समय वहां सेलयूचुस निकेटर का राज्य था, जो seleucid एम्पायर का संसथापक था व अलेक्सेंडर का जनरल भी रह चूका था। पूर्वी पर्शिया का बहुत सा भाग चन्द्रगुप्त मौर्य जीत चुके थे, वे शांति से इस युद्ध का अंत करना चाहते थे, अंत में उन्होंने वहां के राजा से समझौता कर लिया और चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों में सारा साम्राज्य आ गया, इसी के साथ निकेटर ने अपनी बेटी की शादी भी चन्द्रगुप्त मौर्य से कर दी। इसके बदले उसे 500 हाथियों की विशाल सेना भी मिली, जिसे वे आगे अपने युद्ध में उपयोग करते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चारों तरफ मौर्य साम्राज्य खड़ा कर दिया था, बस कलिंगा (अब उड़ीसा) और तमिल इस सामराज्य का हिस्सा नहीं था। इन हिस्सों को बाद में उनके पोते अशोका ने अपने साम्राज्य में जोड़ दिया था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर झुकाव
चन्द्रगुप्त मौर्य का झुकाव जैन धर्म की तरफ तब हुआ जब वे लगभग 50 साल से अधिक उम्र के हो चुके थे। उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा प्राप्त की और व जैन धर्म के नियमों का कड़े रूप से पालन करने लगे। वे जैन धर्म के मूल सिद्धांतों जैसे सत्य अहिंसा और वृत्त एवं सदाचार आदि का कड़ाई से पालन करने लगे थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु
चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु 340 ई.पू. में हुई थी। कहा जाता है कि उन्होंने संथरा नियम का पालन करते हुए खुद अपने प्राण त्याग दिए थे। संथरा एक प्रकार का जैन धर्म का वृत होता है जिसमें व्यक्त तब तक कुछ खाया पिया नहीं जाता जब तक वह मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाता। कुछ इतिहाकारों के मुताबिक चन्द्रगुप्त मौर्य ने संथरा वृत का पालन करते हुए कर्णाटक में अपने प्राण त्याग दिए थे।
FAQs
चन्द्र गुप्त मौर्य नंदवंशी राजा महापद्मानन्द की दूसरी पत्नी मुरा के पुत्र थे।
चन्द्र गुप्त मौर्य की पहली पत्नी दुर्धरा थी, जबकि दूसरी पत्नी देवी हेलना थी।
चन्द्रगुप्त के काल में आने वाला प्रसिद्द विदेशी यात्री मेगस्थनीज़ था।
आशा है कि आपको इस ब्लाॅग में चन्द्रगुप्त मौर्य के बारे में जानने को मिल गया होगा। इतिहास से जुड़े इसी प्रकार के अन्य ब्लॉग पढ़ने के लिए Leverage Edu के साथ बने रहें।