रस हिंदी व्याकरण और हिंदी साहित्य में पढ़ाए जाने वाला एक महत्वपूर्ण टॉपिक है। जैसा कि आचार्य भरतमुनि ने वर्णन किया है – विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः – अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव के मेल से रस की उत्पति होती है। इसका मतलब यह है कि विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से दयालु व्यक्ति के मन में उपस्थित ‘रति’ आदि स्थायी भाव ‘रस’ के स्वरूप में बदलता है। Ras in Hindi के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ें।
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रस क्या होता है?
‘रस’ शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के मेल से बना है। संस्कृत वाङ्गमय में रस की उत्पत्ति ‘रस्यते इति रस’ इस प्रकार की गयी है अर्थात् जिससे आस्वाद अथवा आनन्द प्राप्त हो वही रस है। रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’। काव्य को पढ़ने या सुनने से अथवा चिन्तन करने से जिस अत्यंत आनन्द का अनुभव होता है, उसे ही रस कहा जाता है।
रस की विशेषताएं
रस की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
- रस स्वप्रकाशानन्द तथा ज्ञान से भरा हुआ है।
- भाव सुखात्मक दुखात्मक होते हैं, किन्तु जब वे रस रूप में बदल जाते हैं तब आनन्दस्वरूप हो जाते हैं।
- रस अखण्ड होता है।
- रस न सविकल्पक ज्ञान है, न निर्विकल्पक ज्ञान, अतः अलौकिक है।
- रस वेद्यान्तर सम्पर्क शून्य है अर्थात् रसास्वादकाल में सामाजिक पूर्णतः तन्मय रहता है।
- रस ब्रह्मानन्द सहोदर है। अतः ras in Hindi का आनन्द ब्रह्मानन्द (समाधि) के समान है।
रस के बारे में महान कवियों की पंक्तियां
रस के महत्व को बताते हुए आचार्य भरतमुनि ने स्वयं लिखा है-
नहि रसाते कश्चिदर्थः प्रवर्तते।
ऐसा ही विश्वनाथ कविराज ने भी लिखा है
सत्वोद्रेकादखण्ड-स्वप्रकाशानन्द चित्तमयः ।
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो बास्वाद सहोदरः ॥
लोकोत्तरचमत्कार प्राणः कैश्चित्प्रमातृभिः ।
स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ॥
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है कि अन्तःकरण में रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण के सुन्दर और स्वच्छ प्रकाश से ‘रस’ का साक्षात्कार होता है। (प्रकृति के तीन गुण होते हैं सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण जिनकी बात यहाँ की गई है लेकिन तीनों में श्रेष्ठ सतोगुण माना जाता है।) यह रस अखण्ड, अद्वितीय, स्वयंप्रकाश, आनन्दमय और ज्ञान स्वरूप वाला है। इस अनुपम ‘रस’ के साक्षात्कार के समय दूसरे वेद्य विषयों का स्पर्श भी नहीं होता है।
अतः ब्रह्मास्वाद (समाधि) के समान होता है। इस रस की अलोकिकता यह है कि जैसे- आत्मा से भिन्न होने पर भी शरीर में ‘गौरोऽहं’, ‘कणोऽहं’ इत्यादि की अभेद प्रतीति होती है; उसी प्रकार आत्मा से भिन्न होने पर भी आनन्दमय एवं चमत्कारमय ‘रस’ आत्मा से अभिन्न प्रतीत होता है।
रस सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक मम्मटाचार्य ने (ग्यारहवीं सदी में) काव्यानंद को ब्रह्मानन्द सहोदर’ अर्थात् योगी द्वारा अनुभूत आनन्द कहा है।
रस के सम्बन्ध में ब्रह्मानन्द की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तिरीयोपनिषद है जिसमें कहा गया है- ‘रसो वै सः’ अर्थात् आनन्द ही ब्रह्म है।
हिन्दी वाङ्गमय में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. नगेन्द्र आदि आचार्य शुक्ल ने संस्कृत रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को ‘हृदय की मुक्तावस्था’ के रूप में मानते हैं।
‘विश्वनाथ कविराज’ ने उल्लेख किया है:
अविरुद्धा विरुद्धा वा विरोधातुमक्षमाः ।
आस्वादांकुरकन्दोऽसौ भावः स्थापीति संमतः ॥
अर्थात् अविरुद्ध अथवा विरुद्धभाव (जिसे छिपा न सकें), वह आस्वाद का मूलभूत भाव स्थायी भाव कहा जाता है। रति, क्रोध, उत्साह, घृणा प्रभृति भाव मनुष्य के अन्तःकरण में वासना-रूप में जन्म से ही होते हैं, जिन्हें सिखलाने हेतु किसी शिक्षक की आवश्यकता नहीं होती है। इसी स्थिति को शास्त्रीय भाषा में ‘वासनात्मक’ कहते हैं। अस्तु, स्थायी भाव मानव के अन्तर्मन में वासनात्मक रूप में विद्यमान होते हैं।
रस के अवयव या अंग
रस के मुख्यतः चार अंग या अवयव होते हैं:
- स्थायीभाव
- विभाव
- अनुभाव
- व्यभिचारी अथवा संचारी भाव।
1. स्थायी भाव
स्थायी भाव का अभिप्राय है- प्रधान भाव। रस की अवस्था तक पहुंचने वाले भाव को प्रधान भाव कहते हैं। स्थायी भाव काव्य या नाटक में शुरुआत से अंत तक होता है। स्थायी भावों की संख्या नौ स्वीकार की गयी है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायीभाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी ‘नौ’ है, जिन्हें ‘नवरस’ कहा जाता है। मूलतः नौ रस ही माने जाते है। बाद के आचार्यों ने दो और भावों (वात्सल्य व भगवद् विषयक रति) को स्थायी भाव की मान्यता प्रदान की। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या ग्यारह तक पहुँच जाती है और जिससे रसों की संख्या भी ग्यारह है।
रस और उनके स्थायी भाव
स्थायी भाव | Ras in Hindi |
भय | भयानक |
हास | हास्य |
शोक | करुण |
क्रोध | रौद्र |
विस्मय | अद्भुत |
वत्सल | वात्सल्य |
जुगुत्सा | वीभत्स |
निर्वेद | शांत |
उत्साह | वीर |
अनुराग | भक्ति रस |
स्थायी भावों का संक्षिप्त अर्थ
- रति– प्रिय वस्तु में मन के प्रेमपूर्ण उन्मुखी भाव को ‘रति’ कहते हैं।
- उत्साह – कार्य करने में स्थिरता तथा उत्कट आवेश को ही उत्साह’ कहते है।
- क्रोध– शत्रुओं के विषय में आवेश का दूसरा नाम ‘क्रोध’ है।
- जुगुप्सा– दोष के कारण किसी वस्तु के प्रति उत्पन्न घृणा को जुगुप्सा कहते हैं।
- विस्मय– अलौकिक शक्ति से युक्त किसी वस्तु के दर्शन इत्यादि से उत्पन्न मन के विस्तार को विस्मय कहते हैं।
- निर्वेद – इच्छाहीनता की अवस्था में अथवा सभी प्रकार की इच्छाओं के शान्त हो जाने पर आत्मा के विश्राम से उत्पन्न सुख को ही ‘शम’ या ‘निर्वेद’ कहते हैं।
- हास– वाणी आदि के विकारों को देखकर मन का आनंदित होना ही ‘हास’ है।
- भय-किसी रौद्र की शक्ति से उत्पन्न, मन को व्याकुल कर देने वाला भाव भय कहलाता है।
- शोक- किसी प्रिय वस्तु के नष्ट होने के कारण उत्पन्न मन की व्याकुलता को ही ‘शोक’ कहते हैं।
- संतान विषयक रति– जब कोई बालक के हाव-भाव, मीठी-तोतली बोली को सुनकर आकर्षित होता है, तो उसे संतान विषयक रति कहा जाता है।
- भगवद् विषयक रति– जब आराध्य देव के प्रति भक्त मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी आराधना में लीन हो जाता है, तो ऐसे में जिस भाव की उत्पत्ति होती है उसे भगवद् विषयक रति कहा जाता है।
2. विभाव
विभाव का मतलब है, ‘कारण’। जिन कारणों से सहृदय सामाजिक के हृदय में स्थित स्थायी भाव विकसित होता है, उन्हें विभाव कहते हैं।
विभाव दो प्रकार का होता है:
- आलम्बन विभाव– जिसके कारण आश्रम के हृदय में स्थायी भाव उदबुद्ध होता है। उसे आलम्बन विभाव कहते हैं।
- उद्दीपन विभाव– ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं। उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ एवं बाह्य वातावरण- दो तत्त्व आते हैं, जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त, प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं।
3. अनुभाव
आलम्बन की चेष्टाएँ (कोशिश करने के लिए, इच्छा) उद्दीपन के अन्तर्गत मानी गयी हैं, जबकि आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं।
अनुभाव को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
” अनुभावो भाव बोधक: “
अर्थात् भाव का बोध कराने वाला कारण अनुभाव कहलाता है। आश्रय की वे बाह्य चेष्टाएँ, जिनसे यह ज्ञात होता है कि उसके हृदय में कौन-सा भाव उबुद्ध हुआ है, अनुभाव कहलाती हैं।
अनुभाव चार प्रकार के होते हैं:
- आंगिक (कायिक) – शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं।
- वाचिक– वाणी से प्रकट होते हैं।
- आहार्य – वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं।
- सात्विक – सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएँ जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है- स्वेद, कम्प, रोमांच, स्तम्भ, स्वरभंग, अश्रु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि।
4. संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव
स्थायी भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं। ये सभी रसों में होते हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गयी है।
महाराजा ‘ जसवंत’ सिंह ने अपने ग्रन्थ ‘भाषा-भूषण’ में इनका इस प्रकार वर्णन किया है-
निर्वेदौ शंका गरब चिन्ता मोह विषाद ।
दैन्य असूया मृत्यु मद, आलस श्रम उन्माद ॥
प्रकृति-गोपन चपलता अपसमार भय ग्लानि ।
बीड़ा जड़ता हर्ष धृति मति आवेग बखानि ॥
उत्कंठा निद्रा स्वपन बोध उग्रता बनाय ।
व्याधि अमर्ष वितर्क स्मृति ये तैंतीस गनाय ॥
(‘भाषा-भूषण’ जसवंत सिंह)
रसों के प्रकार, संक्षिप्त अर्थ एवं उदाहरण
रसों के प्रकार, संक्षिप्त अर्थ एवं उदाहरण नीचे दिए गए हैं:
- श्रृंगार-रस
- हास्य रस
- करुण रस
- वीर रस
- भयानक रस
- रौद्र रस
- वीभत्स रस
- अद्भुत रस
- शांत रस
- वात्सल्य रस
- भक्ति रस
(1) श्रृंगार-रस
श्रृंगार रस को रसराज की उपाधि प्रदान की गयी है।
इसके प्रमुखत: दो भेद बताये गये हैं:
(i) संयोग श्रृंगार (संभोग श्रृंगार) – जब नायक-नायिका के मिलन की स्थिति की व्याख्या होती है वहाँ संयोग श्रृंगार रस होता है।
एक पल मेरे प्रिया के दूग पलक,
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था ॥
– सुमित्रानन्दन पन्त
(ii) वियोग श्रृंगार (विप्रलम्भ श्रृंगार) – जहाँ नायक-नायिका के विरह-वियोग, वेदना की मनोदशा की व्याख्या हो, वहाँ वियोग श्रृंगार रस होता है।
अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं।
कैसे रहें रूप-रस राँची ये बतियाँ सुन रूखीं।
अवधि गनत इकटक मग जोवत, तन ऐसी नहि भूखीं।
-सूरदास
वियोग श्रृंगार के मुख्यतः चार भेद होते हैं:
- पूर्वराग वियोग
- मानजनित वियोग
- प्रवास जनित वियोग
- अभिशाप जनित वियोग
(2) हास्य रस
किसी व्यक्ति की अनोखी विचित्र वेशभूषा, रूप, हाव-भाव को देखकर अथवा सुनकर जो हास्यभाव जाग्रत होता है, वही हास्य रस कहलाता है।
सखि! बात सुनो इक मोहन की,
निकसी मटुकी सिर रीती ले कै।
पुनि बाँधि लयो सु नये नतना,
रु कहूँ-कहूँ बुन्द करी छल कै।
निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन,
लीनी उतारि तबै चल कै।
पतुकी धरि स्याम सिखाय रहे,
उत ग्वारि हँसी मुख आँचल दै ॥
(3) करुण रस
प्रिय वस्तु या व्यक्ति के समाप्त अथवा नाश कर देने वाला भाव होने पर हृदय में उत्पन्न शोक स्थायी भाव करुण रस के रूप में व्यक्त होता है।
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार,
बना सिन्दूर अनल अंगार ।
– सुमित्रानन्दन पन्त
(4) वीर रस
युद्ध अथवा शौर्य पराक्रम वाले कार्यों में हृदय में जो उत्साह उत्पन्न होता है, उस रस को उत्साह रस कहते है।
हे सारथे ! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह भेदन कर लड़े।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।
वीररस के चार भेद बताये गये है:
- युद्ध वीर
- दान वीर
- धर्म वीर
- दया वीर।
(5) भयानक रस
जब हमें भयावह वस्तु, दृश्य, जीव या व्यक्ति को देखने, सुनने या उसके स्मरण होने से भय नामक भाव प्रकट होता है तो उसे भयानक रस कहा जाता है।
नभ ते झपटत बाज लखि, भूल्यो सकल प्रपंच।
कंपित तन व्याकुल नयन, लावक हिल्यौ न रंच ॥
(6) रौद्र रस
जिस स्थान पर अपने आचार्य की निन्दा, देश भक्ति का अपमान होता है, वहाँ पर शत्रु से प्रतिशोध की भावना ‘क्रोध’ स्थायी भाव के साथ उत्पन्न होकर रौद्र रस के रूप में व्यक्त होता है।
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे ॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए घोषणा वे हो गये उठकर खड़े ॥
उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा ॥
मुख बाल-रवि सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित हुआ।
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ॥
-मैथिलीशरण गुप्त
(7) वीभत्स रस
घृणित दृश्य को देखने-सुनने से मन में उठा नफरत का भाव विभाव-अनुभाव से तृप्त होकर वीभत्स रस की व्यञ्जना करता है।
रक्त-मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है,
महाघोर दुर्गन्ध, रुद्ध हो उठती श्वासा।
तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत, रुण्डमुण्डहत,
कुत्सित कृमि संकुल कर्दम में महानाश के॥
(8) अद्भुत रस
जब हमें कोई अद्भुत वस्तु, व्यक्ति अथवा कार्य को देखकर आश्चर्य होता है, तब उस रस को अद्भुत रस कहा जाता है।
एक अचम्भा देख्यौ रे भाई। ठाढ़ा सिंह चरावै गाई ॥
जल की मछली तरुबर ब्याई। पकड़ि बिलाई मुरगै खाई।।
– कबीर
(9) शान्त रस
वैराग्य भावना के उत्पन्न होने अथवा संसार से असंतोष होने पर शान्त रस की क्रिया उत्पन्न होती है।
बुद्ध का संसार-त्याग-
क्या भाग रहा हूँ भार देख?
तू मेरी ओर निहार देख-
मैं त्याग चला निस्सार देख।
अटकेगा मेरा कौन काम।
ओ क्षणभंगुर भव ! राम-राम !
रूपाश्रय तेरा तरुण गात्र,
कह, कब तक है वह प्राण- मात्र,
बाहर-बाहर है टीमटाम।
ओ क्षणभंगुर भव! राम-राम !
(10) वात्सल्य रस
अधिकतर आचार्यों ने वात्सल्य रस को श्रृंगार रस के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की है, परन्तु साहित्य में अब वात्सल्य रस को स्वतन्त्रता प्राप्त हो गयी है।
यसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावैं दुलरावैं, जोइ-सोई कछु गावैं ।
जसुमति मन अभिलाष करैं।
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगैं,
कब धरनी पग द्वैक घरै।
(11) भक्ति रस
जब आराध्य देव के प्रति अथवा भगवान् के प्रति हम अनुराग, रति करने लगते हैं अर्थात् उनके भजन-कीर्तन में लीन हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में भक्ति रस उत्पन्न होता है। उदाहरण-
जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो।
सोइ सुसील, पुनीत, वेद विद विद्या-गुननि भर्यो।
उतपति पांडु सुतन की करनी सुनि सतपंथ उर्यो ।
ते त्रैलोक्य पूज्य, पावन जस सुनि-सुन लोक तर्यो।
जो निज धरम बेद बोधित सो करत न कछु बिसर्यो ।
बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो।
रस हिंदी व्याकरण पीपीटी
FAQs
रस के ग्यारह भेद होते है- (1) श्रृंगार रस (2) हास्य रस (3) करुण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) वीभत्स रस (8) अद्भुत रस (9) शांत रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस।
रस हिंदी व्याकरण के 4 अंग होते हैं- (1) स्थायी भाव, (2) विभाव, (3) अनुभाव, (4) संचारी भाव
‘रस’ शब्द रस् धातु और अच् प्रत्यय के संयोग से बना है। संस्कृत वाङ्गमय में रस की उत्पत्ति ‘रस्यते इति रस’ इस प्रकार की गयी है अर्थात् जिससे आस्वाद अथवा आनन्द प्राप्त हो वही रस है।
उम्मीद है, Ras in Hindi के बारे में आपको इस ब्लॉग में समझ आया होगा। यदि आप हिन्दी व्याकरण के और ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं तो Leverage Edu के साथ बनें रहें।
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हास्य रस का अच्छा उदाहरण
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हेलो भागवत जी, हास्य रस का एक अच्छा उदाहरण इस प्रकार है।
“हँसि-हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में। ”
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हास्य रस का अच्छा उदाहरण
हेलो भागवत जी, हास्य रस का एक अच्छा उदाहरण इस प्रकार है।
“हँसि-हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में। ”