जानिए आधुनिक भारत के निर्माता राजा राम मोहन राय के बारे में

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राजा राम मोहन राय

राजा राम मोहन राय, भारतीय समाज सुधारक, एक महान विद्वान और एक स्वतंत्र विचारक थे जिन्होंने 1803 में रॉय ने हिन्दू धर्म और इसमें शामिल विभिन्न मतों में अंध-विश्वासों पर अपनी राय रखी थी। उन्हें मुगल सम्राट अकबर द्वितीय द्वारा राजा की उपाधि भी दी गई थी। राजा राम मोहन राय को अनेक भाषा जैसे कि अरबी, फारसी, अंग्रेजी और हिब्रू भाषाओं का ज्ञान था। उन्हें, कई इतिहासकारों द्वारा “बंगाल पुनर्जागरण का पिता” भी माना जाता है। महज 15 साल की उम्र में उन्होंने बंगाल में पुस्‍तक लिखकर मूर्तिपूता का विरोध शुरू किया था। Raja Ram Mohan Roy in Hindi के बारे में विस्तार से जानने के लिए ये ब्लॉग अंत तक पढ़ें।

उससे पहले राजा राम मोहन राय के बारे में कुछ प्रमुख जानकारी आप नीचे दिए टेबल से प्राप्त कर सकते हैं।

नाम राजा राम मोहन राय 
जन्म 22 मई, 1772
समाचार पत्र ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन
संवाद कौमुदी
मिरात-उल-अखबार
बंगदूत
मृत्यु  27 सितंबर 1833
आंदोलन मूर्तिपूजा, बहुविवाह, बाल विवाह, सती प्रथा, अनमेल विवाह का विरोध किया। 

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Raja Ram Mohan Roy का जीवन परिचय

राम मोहन का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हूगली जिले के में राधानगर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रामकंतो रॉय और माता का नाम तैरिनी था। राम मोहन का परिवार वैष्णव था, जो कि धर्म सम्बन्धित मामलो में बहुत कट्टर था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी करवा दी गई। लेकिन उनकी पत्नी का जल्द ही देहांत हो गया। इसके बाद 10 वर्ष की उम्र में उनकी दूसरी शादी हुई जिसे उनके 2 पुत्र हुए लेकिन 1826 में उस पत्नी का भी देहांत हो गया और इसके बाद उनकी तीसरी शादी हुई लेकिन तीसरी पत्नी भी ज्यादा समय जीवित नहीं रह सकी।

इसके बाद महज 15 साल की उम्र में राजा राम मोहन राय ने बंगाल में पुस्‍तक लिखकर मूर्तिपूता का विरोध शुरू किया और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त कर मैथ्‍स, फिजिक्‍स, बॉटनी और फिलॉसफी जैसे विषयों को पढ़ने के साथ साथ वेदों और उपनिषदों को भी जीवन के लिए अनिवार्य बताया था।

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 राजा राम मोहन राय की विचारधारा

  • राजा राम मोहन राय पश्चिमी आधुनिक विचारों से बहुत ही प्रभावित थे।
  • वह बुद्धिमान और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी अपना बल देते रहते थे।
  • राजा राम मोहन राय का यह मानना था कि धार्मिक रूढ़िवादिता सामाजिक जीवन को क्षति पहुंचाती है।
  • इसलिए समाज की स्थिति में सुधार करने के बजाय हम लोगों को और परेशान करती रहती है।
  • राजा राम मोहन राय ने निष्कर्ष निकाला निम्नलिखित में है:
    • धार्मिक सुधार
    • सामाजिक सुधार
    • राजनीतिक आधुनिकीकरण
  • राजा राम मोहन राय सब मनुष्यों की सामाजिक समानता में विश्वास करते थे।
  • इस प्रकार से जाति व्यवस्था के प्रबल विरोधी भी थे।
  •  वह इस्लामिक एकेश्वरवाद के प्रति बहुत ही आकर्षित  थे।
  • राजा राम मोहन राय ने कहा था कि ईश्वर बाद भी वेदांत का एक मूल संदेश है।
  • एकेश्वरवाद को हिंदू धर्म के बहुदेव वाद और ईसाई धर्म वाद के प्रति उनका यह मानना था कि एक सुधारात्मक कदम है।
  • राजा राम मोहन राय का मानना था कि महिलाओं को अशिक्षित रखना, बाल विवाह, सती प्रथा, जैसे अन्य प्रकार के अमानवीय रूपों से मुक्त नहीं किया जाता तब तक हिंदू समाज प्रगति नहीं कर सकता है।

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 राजा राममोहन राय का योगदान

राजा राम मोहन राय के धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक योगदान के बारे में विस्तार से बताया गया है:

धार्मिक सुधार

  • राजा राममोहन राय का सबसे पहला प्रकाशन  वर्ष 1803 तुहफात उल मुवाहिदीन (देवताओं का एक उपहार)  सामने आया था।
  • इसके अंदर हिंदुओं के तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और भ्रष्ट प्रथाओं का उपचार किया गया था।
  • राजा राम मोहन राय ने वर्ष 1814 में मूर्ति पूजा, जातिगत कठोरता, निरर्थक अनुष्ठानों, अन्य सामाजिक बुराइयों, का विरोध करने के लिए कोलकाता के अंदर आत्मीय सभा की स्थापना भी की थी।
  • राजा राम मोहन राय ने ईसाई धर्म के कर्मकांड की आलोचना भी की थी।
  • उन्होंने ईसा मसीह को ईश्वर के अवतार के रूप में खारिज कर दिया था।

समाज सुधार

  • राजा राम मोहन राय सुधारवादी धार्मिक संघों की कल्पना राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के उपकरणों के रूप में की थी।
  • उन्होंने कई सारी चीजों की स्थापना की है:
    • आत्मीय सभा 1815
    • कोलकाता यूनिटेरियन एसोसिएशन 1821
    • ब्रह्मा सभा 1828
  • उन्होंने कई अभियान भी चलाए थे:
    • जाति व्यवस्था
    • छुआछूत
    • अंधविश्वास
    • नशीली दवाओं
  • राजा राम मोहन राय महिलाओं की स्वतंत्रा और विशेष रूप से सती और विधवा पुनर्विवाह के अनमोल पर अपनी अग्रणी विचार और कार्रवाई के लिए सबसे ज्यादा आ जाने जाते थे।
  • राजा राम मोहन राय ने
    • बाल विवाह
    • महिलाओं की अशिक्षा
    • विधवाओं की अपमानजनक स्थिति
    • महिलाओं के लिए विरासत और संपत्ति
    • ऐसे कई प्रकार के अधिकार की मांग की थी।

शैक्षणिक सुधार

  • राजा राम मोहन राय ने देशवासियों के लिए मध्य आधुनिक शिक्षा का प्रसार करने के लिए बहुत सारे प्रयास किए थे।
  • राजा राम मोहन राय ने हिंदू कॉलेज खोजने के लिए वर्ष 1817 में डेविड हेयर के प्रश्नों का समर्थन भी किया था।
  • राजा राम मोहन राय के अंग्रेजी स्कूल में मैकेनिक और वोल्टेयर के दर्शन को पढ़ाया जाता था।
  • राजा राम मोहन राय ने वर्ष 1825 मै वेदांत कॉलेज की स्थापना की थी जिसके अंदर भारतीय शिक्षण और पश्चिम में सामाजिक के साथ भौतिक विज्ञान दोनों पाठ्यक्रमों को साथ में पढ़ाया जाता था।

राजा राम मोहन राय को राय की उपाधि किसने दी

20 अगस्त, 1828 में उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में दिल्ली के मुग़ल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये। वे उसी कार्य में व्यस्त थे कि ब्रिस्टल में 27 सितंबर, 1833 को उनका देहान्त हो गया। उन्हें मुग़ल सम्राट कबर द्वितीय की ओर से राजा की उपाधि दी गयी।

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पत्रकारिता

राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन’, ‘संवाद कौमुदी’, मिरात-उल-अखबार ,(एकेश्वरवाद का उपहार) बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। उनके जुझारू और सशक्त व्यक्तित्व का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि सन् 1821 में अँग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई। फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बरता के खिलाफ राय ने एक लेख लिखा।

महान समाज सुधारक और ब्रह्म समाज की स्थापना

  • राजा राम मोहन राय हिंदू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 20 अगस्त 1828 को ” ब्रह्म समाज ” नामक एक नए प्रकार के समाज की स्थापना भी की थी।
  • ब्रह्म समाज को सबसे पहला भारतीय सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन माना जाता था।
  • यह दौर के समय में भारतीय समाज में  ” सती प्रथा ”  जोरों पर थी।
  • राजा राम मोहन राय पुरोहित ,अनुष्ठानों और बलि के खिलाफ थे।
  • यह प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों को पढ़ने पर केंद्रित था।
  • यह समाज सभी धर्मों की एकता में विश्वास करता था ‌।
  • यह आधुनिक भारत में सभी
    • सामाजिक
    • धार्मिक
    • राजनीतिक आंदोलनों को अग्रदूत था।
  • वर्ष 1866 मैं ब्रह्म समाज दो भागों में विभाजित हो गया था।
    • ब्रह्मा समाज का नेतृत्व केशव चंद्र सेन ने किया था।
    • ब्रह्मा समाज का नेतृत्व देवेंद्र नाथ टैगोर ने किया था।
  • प्रमुख दो नेता थे:
    • देवेंद्र नाथ टैगोर
    • केशव चंद्र सेन

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 राजा राम मोहन राय ने मतभेद हुआ तो घर त्यागा

  • राजा राम मोहन राय मूर्ति पूजा और रूढ़िवादी हिंदू परंपराओं के विरुद्ध थे।
  • इसके साथ वह सभी प्रकार के सामाजिक धर्मांधता और अंधविश्वास के खिलाफ भी थे।
  • परंतु राजा राम मोहन राय के पिता रूढ़िवादी हिंदू ब्राह्मण थे।
  • छोटी उम्र में ही अपने पिता के साथ धर्म के नाम पर मतभेद होने लगे थे ‌।
  •  इसी कारण की वजह से राजा राम मोहन रायछोटी उम्र में ही घर त्याग कर हिमालय और तिब्बत की यात्रा पर चले गए थे।
  • परंतु जांब वापस लौट कर आए तो उनके माता-पिता ने उनमें बदलाव लाने के लिए उनका विवाह करवा दिया था।
  • विवाह करने के बावजूद भी राजा राम मोहन राय नेम धर्म के नाम पर पाखंड का उजागर करने के लिए हिंदू धर्म की गहराइयों का अध्ययन करना जारी रखा था।
  • उन्होंने वेद और उपनिषद को गहआई से पढ़ा है।
  • फिर उन्होंने अपनी सबसे पहली पुस्तक मुंहफट उल मुवाहिदीन- लिखी थी जिसके अंदर उन्होंने धर्म की वकालत की और इसके साथ रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों का विरोध भी किया था।

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सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन

  • लगभग 200 साल पहले जब सती प्रथा जैसी बुराइयों ने समाज का जकड़ रखा था उस समय में राजा राम मोहन राय जैसे महान सामाजिक सुधारकों ने समाज में बदलाव लाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया था।
  • सती प्रथा के अंदर एक विधवा को अपने पति की चिता के साथ जला देने के लिए मजबूर किया जाता था।
  • राजा राम मोहन राय ने महिलाओं के लिए पुरुषों के समान अधिकारों के लिए प्रचार भी किया था।
  • इसके अंदर उन्होंने पुनर्विवाह का अधिकार और इसके साथ संपत्ति रखने का अधिकार भी वकालत की थी।
  • राजा राम मोहन राय ने बताया था कि सती प्रथा के बारे में किसी भी वेद में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया गया है।
  • फिर उन्होंने गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैटिंग की मदद के साथ सती प्रथा के खिलाफ एक नया कानून निर्माण करवाया था।
  • राजा राम मोहन राय ने कई सारी जगह पर जाकर लोगों को सती प्रथा के खिलाफ जागरूक किया था।
  • उन्होंने अपने जीवन में लोगों की सोच और परंपरा को बदलने में काफी प्रयास किए थे।

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राजा राम मोहन राय के साहित्यिक कार्य

  • मुंहफट उल मुवाहिदीन- 1804
  • वेदांत गाथा – 1815
  • वेदांत सार के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद – 1816
  •  केनोपनिषद – 1816
  • ईशोपनिषद – 1816
  • कठोपनिषद – 1817
  • मुंडक उपनिषद – 1819
  • हिंदू धर्म की रक्षा – 1820
  •  द प्रिसेपटस  ऑफ जीसस –  द गाइड  टू पीस एंड हैप्पीनेस – 1820
  • बंगाली व्याकरण – 1826
  •  द यूनिवर्सल  रिलीजन – 1829
  •  भारतीय दर्शन का इतिहास – 1829
  • गोडीय व्याकरण – 1833

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राजा राम मोहन राय की मृत्यु

वर्ष 1830 में राजा राम मोहन राय अपनी पेंशन और भत्ते के लिए मुगल सम्राट अकबर द्वितीय के राजदूत बनकर यूनाइटेड किंग्डम गए थे। 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल के पास सटापलेटोन  में  मैनिजाइटिस के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी।

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राजा राम मोहन राय के बारे में कुछ रोचक तथ्य

  • राजा राम मोहन राय का जन्मा बंगाल में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
  • राजा राम मोहन राय ब्रह्म समाज के संस्थापक थे।
  • राजा राम मोहन राय सामाजिक सुधार युग के पिता थे।
  • केवल 15 साल की उम्र में ही उन्हें संस्कृत बंगाली अरबी और फारसी का ज्ञान हो गया था।
  • राजा राम मोहन राय अपने करियर की शुरुआत की दोर में  ” ब्रह्ममैनिकल मैगजीन ” , ”   संवाद कौमुदी ”  में भी काम किया था।
  • राजा राम मोहन राय ने अपना सारा जीवन महिलाओं के हक के लिए संघर्ष करते हुए बिताया था।
  • उन्होंने महिलाओं के प्रति सीने में एक अलग ही जगह बनाई थी।
  •  राजा राम मोहन राय को महिलाओं के प्रति दर्द सबसे पहले उस वक्त एहसास हुआ था जब उन्होंने अपने घर की अपनी भाभी को क्षति हुए देखा था।
  • राजा राम मोहन राय ने अपने जीवन में कभी भी  नहीं सोचा था कि जिस सती प्रथा का विरोध कर रहे थे और जिसे वह समाज में से मिटाना चाहते थे उसी सती प्रथा का सिकार उनकी भाभी हो जाएगी।
  • राजा राम मोहन राय जब किसी प्रकार के काम के लिए विदेश गए थे उस समय उनकी भाभी की मृत्यु हो गई थी।
  • यह हादसा होने के बाद राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ अपना आंदोलन को तेज कर दिया था।
  • सती प्रथा का शिकार होने पर अपनी भाभी को त्याग करने के बाद उन्होंने यह ठान लिया था कि अब ऐसा किसी भी महिलाओं के साथ नहीं होने देंगे।
  • फिर उन्होंने समाज के कुरीतियों के खिलाफ गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक के मदद से साल 1929 में सती प्रथा के खिलाफ नया कानून बनवाया था।
  • राजा राम मोहन राय मूर्ति पूजा के विरोधी भी थे।
  • उनके जीवन में एक ऐसा मोड भी आया था जब राजा राम मोहन राय साधू बनना चाहते थे परंतु उनके माता ने उन्हें रोक दिया था।
  • राजा राम मोहन राय स्वतंत्रता चाहते थे।
  • बताते थे कि इस देश के नागरिक भी उसकी कीमत पहचाने।
  • वर्ष 1816  मैं उन्होंने पहली बार अंग्रेजी भाषा में हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल किया था‌।
  • राजा राम मोहन राय मैं ब्रह्म समाज की शुरुआत की थी।
  • जिसके अंदर सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज भी उठाई थी।
  • वर्ष 1983 मैं इंग्लैंड ब्रिस्टल की म्यूजियम एंड आर्ट गैलरी में राजा राम मोहन राय की प्रदर्शनी भी हुई थी।
  • वर्ष 1830 मैं मुगल साम्राज्य का दूत बन का पैटर्न भी गए थे‌।
  • वहां जाकर सती प्रथा पर रोक लगाने वाले कानून पटाया जाए इसके लिए।
  • राजा राम मोहन राय का निधन 27 सितंबर  1833 इंग्लैंड में हुआ था।

राजा राम मोहन राय पर निबंध

 प्रस्तावना

राजाराममोहन राय आधुनिक भारत के जनक ही नहीं थे, वरन् वे नये युग के निर्माता थे । वे आधुनिक सचेत मानव थे और नये भारत के ऐसे महान् व्यक्तित्व थे, जिन्होंने पूर्व एवं पश्चिम की विचारधारा का समन्वय कर सौ वर्षों से सोये हुए भारत को जागृत किया।

वे इस समाज एवं शताब्दी के ऐसे निर्माता थे, जिन्होंने उन सब बाधाओं को दूर किया, जो हमारी प्रगति के मार्ग में बाधक थीं । वे मानवतावाद के सच्चे पुजारी थे । उन्हें पुनर्जागरण व सुधारवाद का प्रथम प्रर्वतक कहा जाता है ।

प्रारम्भिक जीवन

राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजा राम मोहन राय की प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषाओं में पटना में हुई, जहाँ उन्होंने कुरान, सूफी रहस्यवादी कवियों के काम तथा प्लेटो और अरस्तू के कार्यों के अरबी अनुवाद का अध्ययन किया था। उनके तीन विवाह हुए थे; क्योंकि दुर्भाग्यवश उनकी पूर्व पत्नियों का देहावसान हो गया था । 16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने प्रचलित अन्धविश्वासों पर एक निबन्ध लिखा था । राजाराममोहन राय बहुविवाह एवं बालविवाह के कट्टर विरोधी थे । वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राजस्व विभाग में नौकरी करते थे ।

सन् 1809 में कलेक्टर के दीवान बन गये । जब वे रंगपुर में नियुक्त थे, तो वहां उन्हें अनेक धर्मावलम्बी मिले, जिनके बीच विचार गोष्ठियों के आधार पर ब्रह्मसमाज की नींव पड़ी । 1812 में उन्होंने सती प्रथा को समाप्त करने का संकल्प लिया ।

1814 में नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । राजाराममोहन राय हिन्दू धर्म में मूर्तिपूजा, बहुविवाह, बाल विवाह, सती प्रथा, अनमेल विवाह के बोलबाले से काफी दुखी थे । इस बीच उन्होंने वेदान्त-सूत्र उपनिषद का बंगला अनुवाद किया । 1823 में हिन्दू नारी के अधिकारों का हनन नामक पुस्तक लिखी, जिसमें यह मांग की गयी कि हिन्दू नारी को अपने पति की सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए ।

1827 में वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध वजसूचि नामक पुस्तक लिखी । राजाराममोहन राय ने हिन्दू कॉलेज की स्थापना की । इस कार्य में उन्हें सर एडवर्ड व डेविड हाल तथा हरिहरानन्द का साथ भी मिला । यद्यपि हरिहरानन्द संन्यासी थे, तथापि उन्होंने हिन्दू समाज के लिए बहुत कुछ किया ।

राजाराममोहन राय के धार्मिक विचारों को चुनौती देने के विचार से मद्रास के राजकीय कॉलेज के प्रधानाध्यापक शंकरशास्त्री ने राजाराममोहन को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा । शास्त्रार्थ में मोहनराय की जीत हुई । अपने शास्त्रार्थ सम्बन्धी विचारों को उन्होंने अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला तथा संस्कृत भाषाओं में प्रकाशित किया । ईसाई धर्म व उनकी मिशनरियों के कार्यों की आलोचना करने के फलस्वरूप उन्हें बाइबिल का अध्ययन कर उनसे शास्त्रार्थ करना पड़ा । इसके लिए उन्होंने यूनानी, हिब्रू, लेटिन भाषाएं भी सीखीं।

सन् 1821 में उन्होंने बाइबिल के न्यू टेस्टा में वर्णित धार्मिक चमत्कारों को मानने से इनकार कर दिया । इसके लिए उन्हें काफी अपशब्द सुनने को मिले, किन्तु उन्होंने अपना मानसिक सन्तुलन नहीं खोया । राजाराममोहन राय के विचारों से पादरी विलियम काफी प्रभावित थे । उनके सद्प्रयत्नों से ही उन्होंने सती प्रथा का अन्त किया । यद्यपि इस मार्ग में उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा ।

बैंटिंग ने 4 दिसम्बर 1829 को कानून बनाकर सती प्रथा पर रोक लगा दी । इस कानून से कट्टरपन्धियों में हलचल-सी मच गयी । कोर्ट में मुकदमे दायर हुए, पक्ष-विपक्ष की दलीलों के बीच मोहनराय को अपमान के कड़वे घूंट भी पीने पड़े । राजाराममोहन राय ने प्रगतिशील ब्रह्मसमाज की स्थापना की । इस कार्य में उनके प्रमुख साथी थे, केशवचन्द्रसेन ।

राजाराममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक सुधार कार्य

राजाराममोहन राय के धार्मिक सुधार कार्यों में मूर्तिपूजा तथा कर्मकाण्ड का विरोध रहा है । हिन्दू धर्म की धार्मिक कुप्रथाओं एवं अन्धविश्वासों का उन्होंने जमकर विरोध किया । वे एक समाजसुधारक थे, अत: उन्होंने उन सब कुरीतियों का विरोध किया, जो मानवता के विरुद्ध थीं । इनमें सती प्रथा, अनमेल विवाह, बहुविवाह, जातिप्रथा का विरोध था ।

उनके राजनैतिक सुधार कार्यों में प्रेस व विचार सम्बन्धी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, प्रशासन सम्बन्धी सुधार हैं, जिनमें जमींदारों से लगान की दरें कम कराया जाना, कृषिसुधार, भारत सरकार का प्रशासनिक व्यय कम करना है । एक शिक्षाविद की तरह मोहनराय ने ग्रीक, हिब्रू, अंग्रेजी, बंगला, संस्कृत, अरबी, फारसी व गुरुमुखी का ज्ञान भी प्राप्त किया । उन्होंने 1816-17 में अंग्रेजी स्कूल की भी स्थापना की ।

उपसंहार

राजाराममोहन राय को आधुनिक युग का निर्माता, आधुनिक भारत का जनक इसलिए कहा जाना उचित है; क्योंकि उन्होंने देश व जाति-उत्थान के लिए महान कार्य किये । मानवता के लिए किये गये उनके कार्यों के लिए भारत उनका ऋणी रहेगा ।

टैगोर ने ठीक ही कहा है- ”राजाराममोहन राय इस शताब्दी के महान् पथ निर्माता हैं । उन्होंने भारी बाधाओं को हटाया है, जो हमारी प्रगति को रोकती हैं । उन्होंने हमको मानवता के विश्वव्यापी सहयोग के वर्तमान युग में प्रवेश कराया है ।

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