Chand Par Kavita: चाँद को प्रेम और कल्पना का ऐसा प्रतीक माना जाता है, जिस पर हर सदी में कवियों ने कई अनुपम कृतियां लिखी हैं। आसान शब्दों में कहा जाए तो चाँद, आकाश का एक ऐसा जादुई दीपक है, जो हर रात हमारी खिड़की के बाहर अपनी चाँदनी बिखेरता है और हमारे मन को शीतलता पहुंचाता है। चाँद केवल एक खगोलीय पिंड नहीं है, बल्कि यह तो कवियों और प्रेमियों के लिए भावनाओं का अथाह सागर है। इस लेख में आपके लिए चाँद पर कविता (Chand Par Kavita) दी गई हैं, यहां पढ़ें चाँद पर चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं।
चाँद पर कविता – Chand Par Kavita
चाँद पर कविता (Chand Par Kavita) और उनकी सूची इस प्रकार हैं:-
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
चांद का कुर्ता | रामधारी सिंह “दिनकर” |
नया चाँद | हरिवंशराय बच्चन |
पूर्णिमा का चाँद | शमशेर बहादुर सिंह |
चांद की कविता | मंगलेश डबराल |
अंधेरे पाख का चांद | केदारनाथ सिंह |
अगर चांद मर जाता | त्रिलोचन |
इकला चांद | केदारनाथ अग्रवाल |
आधा चांद मांगता है पूरी रात | नरेश सक्सेना |
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चांद का कुर्ता
हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
– रामधारी सिंह “दिनकर”
नया चाँद
उगा हुआ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
आ-जा रही हैं कारें
साइकिलों की क़तारें;
पटरियों पर दोनों ओर
चले जा रहे हैं बूढ़े
ढोते ज़िदगी का भार
जवान, करते हुए प्यार
बच्चे, करते खिलवार।
उगा हुआ है नया चाँद
जैसे उग चुका है हज़ार बार।
मैं ही क्यों इसे देख
एकाएक
गया हूँ रुक
गया हूँ झुक!
– हरिवंशराय बच्चन
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पूर्णिमा का चाँद
चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
चूमता है बादलों के झिलमिलाते
स्वप्न जैसे पाँव।
– शमशेर बहादुर सिंह
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चांद की कविता
जैसे ही हम चांद की तरफ़ देखने को होते हैं
कहीं पास से एक कुत्ते के
भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है
हम उसे खोजने लगते हैं
जबकि चांद हमारे ठीक सामने
चमक रहा होता है
आइने की तरह
इतना साफ़ कि हम उसमें
अपने चेहरे के गड्ढे और धब्बे भी
क़रीब-क़रीब देख सकते हैं
जब हमारे दिमाग़ दर्द कर रहे होते हैं
वह हमारे ठीक ऊपर चमक रहा होता है
प्रेमियों को घरों से निकालकर
अज्ञात जगहों में भटकाता रात को
असंख्य झरनों की शक्ल में
चारों ओर से बहाता हुआ
शमशेर जैसे कवि ने
इस ऐतिहासिक चांद से
कुछ देर बातें भी की हैं
जो लोग चांद को सभी पहलुओं से जान चुके हैं
उन्हें सबसे पहला एहसास
उसकी चमक के ख़त्म होने का हुआ
उन्होंने बारीक़ी से चांद की मिट्टी की जाँच की
और उसे अपने पास सुरक्षित रख लिया
लेकिन चांद के बारे में अब भी
बच्चे कहीं ज़्यादा जानते हैं
जैसे ही कहीं
कुत्ते का भौंकना सुनाई देता है
वे आसमान की ओर इशारा करके
कहते हैं: देखो चांद-चांद
– मंगलेश डबराल
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अंधेरे पाख का चांद
जैसे जेल में लालटेन
चाँद उसी तरह
एक पेड़ की नंगी डाल से झूलता हुआ
और हम
यानी पृथ्वी के सारे के सारे क़ैदी खुश
कि चलो कुछ तो है
जिसमें हम देख सकते हैं
एक-दूसरे का चेहरा!
– केदारनाथ सिंह
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अगर चांद मर जाता
अगर चाँद मर जाता
झर जाते तारे सब
क्या करते कविगण तब?
खोजते सौन्दर्य नया?
देखते क्या दुनिया को?
रहते क्या, रहते हैं
जैसे मनुष्य सब?
क्या करते कविगण तब?
प्रेमियों का नया मान
उनका तन-मन होता
अथवा टकराते रहते वे सदा
चाँद से, तारों से, चातक से, चकोर से
कमल से, सागर से, सरिता से
सबसे
क्या करते कविगण तब?
आँसुओं में बूड़-बूड़
साँसों में उड़-उड़कर
मनमानी कर- धर के
क्या करते कविगण तब
अगर चाँद मर जाता
झर जाते तारे सब
क्या करते कविगण तब?
– त्रिलोचन
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इकला चांद
इकला चांद
असंख्य तारे,
नील गगन के
खुले किवाड़े;
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आएंगे
बाँह पसारे !
– केदारनाथ अग्रवाल
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चाँद पर कविताएं
चाँद पर कविताएं निम्नलिखित हैं, जिन्हें पढ़कर आप अपने जीवन में चाँद के महत्व को जान पाएंगे –
आधा चांद मांगता है पूरी रात
पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चांद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग
आधे वस्त्रों से ढांकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते हुए पूरे पांव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताकत
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में।
आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं
बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन
पूरा स्वाद
पूरी दवा
पूरी नींद
पूरा चैन
पूरा जीवन
पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए
हम नहीं समुद्र, नहीं चांद, नहीं सूर्य
हम मनुष्य, हम
आधे चौथाई या एक बटा आठ
पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य।
– नरेश सक्सेना
ईद का चांद हो गया है कोई
ईद का चांद हो गया है कोई
जाने किस देस जा बसा है कोई
पूछता हूं मैं सारे रस्तों से
उस के घर का भी रास्ता है कोई
एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई
इक मुझे छोड़ के वो सब से मिला
इस से बढ़ के भी क्या सज़ा है कोई
दिल में थोड़ी सी खोट रखता है
यूं तो सोने से भी खरा है कोई
वो मुझे छोड़ दे कि मेरा रहे
हर क़दम पर ये सोचता है कोई
हाथ तुम ने जहां छुड़ाया था
आज भी उस जगह खड़ा है कोई
फिर भी पहुंचा न उस के दामन तक
ख़ाक बन बन के गो उड़ा है कोई
तुम भी अब जा के सो रहो ‘रहबर`
ये न सोचो कि जागता है कोई
– राजेंद्र नाथ ‘रहबर’
बूढा चांद
बूढा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है
यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढा प्रहरी
प्रेम की ढाल!
हाथी दांत की
स्वप्नों की मीनार
सुलभ नहीं,
न सही!
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा!
राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढा चांद
कला के विछोह में
म्लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया!
पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है!
वही कला,
राका शशि,
वही बूढा चांद,
छाया शशि है!
– सुमित्रानंदन पंत
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