Bachpan Par Kavita: बचपन हमारी जिंदगी का सबसे सुखद समय होता है, जिसमें हम अपनी ज़िंदगी को अनोखे अंदाज़ में जीते हैं। वहीं बचपन की यादें, उम्र के हर पड़ाव में हमारे चेहरे पर मुस्कान लाने में सक्षम होती हैं। ऐसे में बचपन पर कविताएं पढ़कर आप अपने उन लम्हों को फिर से जी पाएंगे, जिनमें चिंताओं का कोई नामोनिशान नहीं होता था। इस लेख में आपके लिए बचपन पर कविता (Bachpan Par Kavita) दी गई हैं। यहां पढ़ें बचपन पर चुनिंदा लोकप्रिय कविताएं।
बचपन पर कविता – Bachpan Par Kavita
बचपन पर कविता (Bachpan Par Kavita) और उनकी सूची इस प्रकार हैं:-
कविता का नाम | कवि/कवियत्री का नाम |
मेरा नया बचपन | सुभद्राकुमारी चौहान |
आजा मेरे बचपन आजा | शिशुपाल सिंह ‘निर्धन’ |
बचपन | जगदीश व्योम |
बचपन की कविता | मंगलेश डबराल |
बचपन फिर बेताब हो रहा | प्रभुदयाल श्रीवास्तव |
तब बचपन याद आता है | आशुतोष राणा |
बचपन में | हेमन्त देवलेकर |
बचपन के दिन | मयंक विश्नोई |
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मेरा नया बचपन
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किए दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
– सुभद्राकुमारी चौहान
आजा मेरे बचपन आजा
आजा मेरे बचपन आजा
जब मेरा पहला पैर कभी तेरी दुनिया में आया था,
लल्ला, मुन्ना, भैया कहकर, सबने ही प्यार जताया था।
तब नेह न था मुझको इतना, इस पैसा और रुपैया में,
माँ से मेरी यह हठ तो थी कि बिठला दे मुझे ऊँट भुलैया में।
जब द्वेष-भाव का नाम न था, मेरे वो पावन क्षण आजा
आजा मेरे बचपन आजा।
जब जलते दीपक की लौ में मेरी लौ भी लग जाती थी,
तब मुझसे बातें करने में सबकी वाणी तुतलाती थी।
नभ पर तारों के आते ही, बिस्तर पर मैं सो जाता था,
एक प्यार भरा चुम्बन मुझको सूरज के बाद जगाता था।
प्रातः चुल्लू-भर पानी में माँ रोज़ बनाती थी राजा
आजा मेरे बचपन आजा।
खटिया पर खेला करता था, ले रोटी का टुकड़ा कर में,
कर काँव-काँव झपटा करता, कौआ रोटी पर क्षण-भर में।
जननी धमकाया करती थी — खाले, वरना मैं खा जाऊँगी।
जो अबकी रोया और तनिक, रामू की माँ बन जाऊँगी।
यूँ प्यार जताया करती थी, आजा रे कौआ ती खा जा
आजा मेरे बचपन आजा।
मैं खेल-खेलकर खेल नए, जब अपने घर को आता था।
करने पर खेल ख़तम हर दिन, ननुआ अपना मर जाता था।
इस तरुणाई ने तो मुझको, ऐसे खड्डे में डार दिया,
बन्धन की बेड़ी पैरों में, बचपन का ननुआ मार दिया।
अब बिना कहे सो जाता हूँ, आजा रे मेरे हौआ आजा
आजा मेरे बचपन आजा।
मैं देख पराई नई वस्तु, रोया-चिल्लाया करता था।
चिड़िया ले गई — कह देने पर, फिर ख़ुश हो जाया करता था।
अब वो मेरे सोना से दिन, उड़ गई कहाँ चिड़िया लेकर,
राजा से रंक बनाया है मेरे जीवन का धन लेकर।
वो गीत नया कर जा फिर से, आजा चन्दा मामा आजा
आजा मेरे बचपन आजा।
– शिशुपाल सिंह ‘निर्धन’
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बचपन
छीनकर खिलौनो को बाँट दिये गम
बचपन से दूर, बहुत दूर हुए हम !
अच्छी तरह से अभी पढ़ना न आया
कपड़ों को अपने बदलना न आया
लाद दिए बस्ते हैं भारी-भरकम
बचपन से दूर, बहुत दूर हुए हम!
अँग्रेजी शब्दों का पढ़ना-पढ़ाना
घर आके दिया हुआ काम निबटाना
होम-वर्क करने में फूल जाय दम
बचपन से दूर, बहुत दूर हुए हम!
देकर के थपकी न माँ मुझे सुलाती
दादी है अब नहीं कहानियाँ सुनाती
बिलख रही कैद बनी, जीवन सरगम
बचपन से दूर, बहुत दूर हुए हम!
इतने कठिन विषय कि छूटे पसीना
रात-दिन किताबों को घोट-घोट पीना
उस पर भी नम्बर आते हैं बहुत कम
बचपन से दूर, बहुत दूर हुए हम!
– जगदीश व्योम
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बचपन की कविता
जैसे जैसे हम बड़े होते हैं
लगता है हम बचपन के बहुत क़रीब हैं।
हम अपने बचपन का अनुकरण करते हैं
ज़रा देर में तुनकते हैं और
ज़रा देर में ख़ुश हो उठते हैं।
खिलौनों की दूकान के सामने
देर तक खड़े रहते हैं।
जहाँ-जहाँ ताले लगे हैं
हमारी उत्सुक आँखें जानना चाहती हैं
कि वहाँ क्या होगा।
सुबह हम आश्चर्य से चारों ओर देखते हैं
जैसे पहली बार देख रहे हों ।
हम तुरंत अपने
बचपन में पहुँचना चाहते हैं।
लेकिन वहाँ का कोई
नक्शा हमारे पास नहीं है।
वह किसी पहेली जैसा
बेहद उलझा हुआ रास्ता है।
अक्सर धुँए से भरा हुआ
उसके अंत में एक गुफ़ा है जहाँ
एक राक्षस रहता है।
कभी-कभी वहाँ घर से भागा हुआ
कोई लड़का छिपा होता है।
वहाँ सख़्त चट्टानें और
काँच के टुकड़े हैं छोटे छोटे
पैरों के आसपास।
घर के लोग हमें
बार-बार बुलाते हैं।
हम उन्हें चिट्ठियाँ लिखते हैं।
आ रहे हैं, आ रहे हैं, आएँगे हम जल्दी ।
– मंगलेश डबराल
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बचपन फिर बेताब हो रहा
गुड़ की लैया नहीं मिली है,
बहुत दिनों से खाने को।
बचपन फिर बेताब हो रहा,
जैसे वापस आने को।
आम, बिही, जामुन पर चढ़कर,
इतराते बौराते थे।
कच्चे पक्के कैसे भी फल,
तोड़-तोड़ कर खाते थे।
मन फिर करता बैठ तराने
किसी डाल पर गाने को।
मन करता है फिर मुढ़ेर से,
कूद पडूं सरिता जल में।
आँख खोलकर ख़ूब निहारूं,
नदिया के सुंदर तल में।
हौले-हौले हाथ बढ़ाकर,
सीपी शंख उठाने को।
आँख बंद करता हूँ जब भी,
दिखते नभ् मैं कनकैया।
पेंच लड़ाने तत्पर मुझसे,
दिखते प्रिय बल्लू भैया।
बच्चे दौड़ लगाते दिखते,
कटी पतंग उठाने को।
– प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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तब बचपन याद आता है
जब हम रो नही पाते
सुख से सो नही पाते
जब हम खो नही पाते
तब बचपन याद आता है
जब चिंता सताती है
हमारे तन को खाती है
जब भी मन नही मिलता
तब बचपन याद आता है
जब हम टूट जाते है
जब अपने रूठ जाते है
जब सपने सताते है
तब बचपन याद आता है
बच्चे हम रह नही पाते
बड़े हम हो नही पाते
खड़े भी रह नही पाते
तब बचपन याद आता है
किसी को सह नही पाते
अकेले रह नही पाते
किसी को कह नही पाते
तब बचपन याद आता है
– आशुतोष राणा
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बचपन में
समुंदर बचपन में बादल था
किताब बचपन में अक्षर
माँ की गोद जितनी ही थी धरती बचपन में
हर पकवान बचपन में दूध था
पेड़ बचपन में बीज
चुम्मियां भर थी प्रार्थनाएं बचपन में
सारे रिश्तेदार बचपन में खिलौने थे
हर वाद्य बचपन में झुनझुना
हंसी की चहचहाहट भर थे गीत बचपन में
ईश्वर बचपन में माँ था
हर एक चीज़ को
मुंह में डालने की जिज्ञासा भर था विज्ञान बचपन में
और हर नृत्य बचपन में
तेरी उछल-कूद से ज्यादा कुछ नहीं था
– हेमन्त देवलेकर
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बचपन पर हास्य कविताएं
बचपन पर हास्य कविताएं (Bachpan Par Kavita) निम्नलिखित हैं:-
बचपन के दिन
जवानी में ज़िंदगी गुलज़ार मिलेगी
या केवल डाट-फटकार मिलेगी
बचपन के दिन जो आए,
छुट्टी ऑफिस से कई बार मिलेगी
जो दोस्त नहीं होंगे, सफर के साथी
तो किसकी चुगली, किस पार मिलेगी?
बचपन के दिन जो आए,
मौज ही मौज हर बार मिलेगी
खेलने को वक़्त होगा बहुत
गलियों में रौनक इस बार मिलेगी
बचपन के दिन जो आए,
खुशियों की सौगात मिलेगी
भागेंगे घंटियां बजा कर
हम लोगों के घरों की
क्या ऐसी ज़िंदगी फिर एक बार मिलेगी?
मन चंचल और चेहरों पर मुस्कान मिलेगी
बचपन के दिन जो आए,
ठहाकों की बौछार मिलेगी
– मयंक विश्नोई
जाते हैं हम नैनीताल
टन-टन, टन-टन टेलीफोन,
चूहे बोले-हैलो, कौन?
बिल्ली बोली-मैं हूँ मौसी,
गई हुई थी मैं चंदौसी,
चूहे खाना छोड़ दिया है,
जीवन अपना बदल लिया है।
अब तो अच्छे काम करूँगी,
नहीं तुम्हारे प्राण हरूँगी।
तुमको जीवन-कथा बताने,
क्या आ जाऊँ कुछ समझाने?
चूहे बोले-वाह, क्या कहना!
मौसी, थोड़ी देर ठहरना!
जब बिल्ली चुपके से आई,
तख्ती एक टँगी थी पाई-
नहीं चलेगी मौसी, चाल
जाते हैं हम नैनीताल!
– प्रकाश मनु
गप्पूमल थे एक गपोड़ी
गप्पूमल थे एक गपोड़ी,
खाईं झटपट तीन कचौड़ी।
एक कचौड़ी मीठी-मीठी,
एक कचौड़ी बिलकुल फीकी।
लेकिन एक कचौड़ी तीखी,
थी भैया, वह इतनी तीखी।
भागे, भागे, गप्पू भागे,
भागे गप्पू सबसे आगे।
चले मगर कुछ राह न दीखी,
रस्ते में मोटर की पीं-पीं।
अटक-मटककर वे चलते थे,
कंधे झटक-झटक चलते थे।
तभी मटकता आया हाथी,
गप्पूमल पर लात चला दी।
गप्पू कूदे एक खाई में,
चंदा दिख जी परछाईं में।
बस चंदा तक दौड़ लगा दी,
दुनिया अपनी वहीं बसा ली।
अब चंदा पर गप्पूमल हैं,
दादी संग बुनते मलमल हैं।
कभी-कभी जब अकुलाते हैं,
उछल जमीं पर आ जाते हैं।
गप्पें खूब सुना जाते हैं,
चंद्रविहारी कहलाते हैं!
और चाँद पर बस जाने का,
न्योता हमको दे जाते हैं।
गप्पूमल ये अजब गपोड़ी,
अब ना खाते कभी कचौड़ी!
– प्रकाश मनु
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